Sunday, November 4, 2007

गेरुआ चांद

रोशनियां बहुत तेज हैं

और तुम्हारे सो जाने के बाद भी

नींद की छाती पर मूंग दलती

ये यहीं पड़ी रहती हैं

फिर भी कैसा चमत्कार कि

बची रह जाती है

सलेटी अंधेरों वाली

कोई कुहासे भरी रात



मशीनी ध्वनियां

कभी चिढ़कर तो कभी चुपचाप

चौबीसो घंटे सिर ही खाती रहती हैं

फिर भी कैसा अचरज कि

बची रह जाती है

दोनों कानों के बीच

रात के तीसरे पहर सीले पत्तों पर

महुआ टपकने की आवाज



आधी रात गए

तुम्हारी बालकनी के ऊपर

उग रहा होता है जब

नींद में डूबा गेरुआ चांद

जमीन पर सरक रहा होता है

नम घासों के सिर सहलाता

पंचर पहिए सा बेढब पवन

तब तुम्हीं कहो-

घर से इतनी दूर खींच लाई

इतनी बड़ी कामयाबियों के बाद

तुम यहां क्या कर रहे होते हो?



बुझी-बुझी सी नजर में

तेरी तला..श लिए

भटकते फिरते हैं

हम आज अपनी ला..श लिए

कोई भटकती हुई धुन

यहां अपने होने भर से चौंकाती

पहाड़ों में अटकी धुंध सी

तुम्हारे भीतर घुमड़ती है



कोई नाम गुम जाता है

कोई चेहरा बदल जाता है

आवाज भी कोई नहीं बचती

जिससे तुम्हारी पहचान हो

छब्बीस साल पहले फूटा दायां घुटना

आज ही टपकना था

खिड़की के पल्ले से सिर में बने गुम्मे पर

हाथ भी बार-बार अभी ही जाना था



'टु हेल विद यू-

आखिर किस हक से

अपने प्रेमी के सामने

तुम मुझे डांट सकती हो!'

दुख की रात याद की रात

खीझ में कह जाते हो कुछ ऐसी बात-

किसी के सामने जो कभी कही नहीं जानी



सुनो,

शीशे की सिल में पड़े बुलबुले जैसी

इस तनहा रात की बालकनी में

तुम अकेले नहीं हो

इतनी दूर से अपनी औचट नींद में

तुम्हारे ही इर्द-गिर्द घूमता

न जाने कौन से उपकार के लिए

तुम्हें शुक्रिया कहता कोई और भी है-

जिसकी आवाज मैं यहां तुमसे मुखातिब हूं

7 comments:

अभय तिवारी said...

अद्भुत है चन्दू भाई.. शानदार.. वाह..

Manas Path said...

शानदार कविता है.

अतुल

Udan Tashtari said...

अद्भुत रचना, वाह. बधाई!!

Unknown said...

बुझी-बुझी सी नजर में

तेरी तला..श लिए

भटकते फिरते हैं

हम आज अपनी ला..श लिए

कोई भटकती हुई धुन

यहां अपने होने भर से चौंकाती

पहाड़ों में अटकी धुंध सी

तुम्हारे भीतर घुमड़ती है


पूरी कविता ही बहुत सुंदर है....थोड़ी घुटन, थोड़ी याद और बहुत सारा नौस्टाल्जिया।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया रचना है।बधाई।

दीपा पाठक said...

चंदूजी, आपकी गद्य रचनाएं पढती रही हूं लेकिन कविता पहली बार पढी, पूरी और ध्यान लगा कर, बहुत अच्छी लगी। पिछले कई दिनों से इंटरनेट की पहुंच से दूर थी इसलिए ब्लाग भ्रमण कम रहा और न ही मैं अपने आलेख पर आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए धन्यवाद ही कह पाई। मिलते हैं फिर..... आपके या मेरे ब्लाग पर

मनीषा पांडे said...

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