तहलका में छपी शहीद चंद्रशेखर की मां से बातचीत पर आधारित रिपोर्ट हृदयविदारक है। सीपीआईएमएल-लिबरेशन के नेतागण अगर सचमुच इस मामले में इतने ही संवेदनहीन साबित हुए हैं तो उन्हें इसे रफा-दफा करने के तदर्थ तात्कालिक उपायों के बारे में सोचने के बजाय कुछ समय के लिए अपनी बाकी सारी जिम्मेदारियां ताख पर रखकर कुछ दिन गहरी सोलसर्चिंग करनी चाहिए।
कोई भावनात्मक तर्क नहीं, कोई सफाई नहीं। आप चंद्रशेखर को नई पीढ़ी के क्रांतिकारी प्रतीक के रूप में स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं और जमीनी हालत यह है कि शहादत के बाद उनकी एकमात्र जीवित संबंधी- उनकी मां- के प्रति जो सामान्य जिम्मेदारियां बनती हैं, वह भी पार्टी पूरी नहीं कर पा रही है। यह और कुछ भी हो, सीपीआईएमएल का पारंपरिक व्यवहार नहीं है। बहुत कुछ नहीं हो सकता, सभी जानते हैं। लेकिन क्या दुख-सुख का इतना साझा भी नहीं हो सकता था कि कौशल्या देवी जैसी बड़े कलेजे वाली महिला पार्टी के प्रति सामान्य विश्वास बनाए रखतीं?
मुझे याद आता है, कुछ-कुछ ऐसी ही नाराजगी भोजपुर में शहीद मास्टर जगदीश की पत्नी के अंदर भी थी। उनके अवसरवादी विधायक दामाद ने पार्टी छोड़कर लालू यादव का दामन थाम लिया था और उन्हें पूरे भोजपुर में जहां-तहां घुमाकर पार्टी के खिलाफ माहौल बनाने का प्रयास कर रहा था। बीच में भोजपुर में पार्टी से कुछ गलतियां भी हो गई थीं, जिससे इसकी गुंजाइश और बढ़ गई थी। लेकिन मास्टर जगदीश के साथ काम कर चुके कॉ. रामनरेश राम एक दिन एकवारी जाकर उनके घर पर कुछ देर बैठ भर गए तो पुरानी यादें वापस लौट आईं। बाद में मा. जगदीश की पत्नी का रवैया कैसा रहा, मुझे नहीं पता, लेकिन जितने समय मैं भोजपुर में था, उतने समय तक तो दामाद के बजाय उन्होंने पार्टी के साथ रहना ही ज्यादा ठीक समझा था।
कौशल्या देवी की हालत उनसे बहुत अलग है। वे अब अकेली, तनहा रह गई हैं। उनके प्रति पार्टी की जिम्मेदारियां कहीं ज्यादा हैं। यह सही है कि सीवान जिले में पार्टी की जड़ें भोजपुर जितनी पुरानी नहीं हैं। अगर होतीं तो शायद चंद्रशेखर के साथ इतनी आसानी से यह घटना भी न होने पाई होती। लेकिन जमीनी स्तर पर क्रांतिकारी राजनीति की संस्कृति ऐसी घटनाओं के इर्द-गिर्द ही बनती है।
कितने गहरे लगाव के साथ आप अपने आधार के साथ खड़े होते हैं, कितनी कुर्बानियां देने के लिए तैयार रहते हैं, शहादतों का कितना सम्मान करते हैं और कितनी शिद्दत से शोक को शक्ति में बदल देने का जतन करते हैं- भोजपुर में ये चीजें घटनाओं के दसियों साल गुजर जाने के बाद भी दिखती थीं/हैं तो क्या इसकी वजह वहां बीस साल लंबी भूमिगत, गैर-संसदीय संघर्षों की परंपरा है, जिससे सीवान जैसे संघर्ष के अपेक्षाकृत नए इलाके लगभग पूरी तरह वंचित हैं? बहरहाल, यह सिर्फ एक कयास है, सफाई खोजने, मांगने या देने का कोई आधार इसे नहीं बनाया जाना चाहिए।
जिस दिन चंदू सीवान के अपने आखिरी सफर पर रवाना होने वाले थे, उससे पहले वे यू-90, शकरपुर स्थित पार्टी के केंद्रीय कार्यालय में आए हुए थे। मेरा बेटा तब बहुत छोटा था और उसे लिए हुए मैं भी वहीं बैठा था। बात-बात में हम लोग उठे और मेरे क्वार्टर पर चले आए। चंदू से मेरी पहली मुलाकात 1990 के आसपास जेएनयू में ही हुई थी। पुकार का नाम साझा होने का मजा मित्रों के अलावा हम दोनों भी अक्सर लिया करते थे। उस दिन चंदू अपनी हमेशा जैसी जिंदादिली के बावजूद कुछ बैरागियों जैसे भाव में थे। जिंदगी कहां से कहां चली आई थी- सीवान से झुमरीतिलैया और एनडीए से होती हुई जेएनयू, और फिर दुबारा सीवान।
चंदू उस दिन भोजपुर में बीते मेरे समय के बारे में ज्यादा से ज्यादा बात करना चाहते थे लेकिन उनका मन चंचल हो रहा था। उनका जेएनयू से सीवान जाना मेरे पटना से भोजपुर जाने की तुलना में बहुत अलग था। उनकी यात्रा में फांक बहुत ज्यादा था- दूरियों का ही नहीं, स्थितियों का भी।
मेरा जोर लगातार इस बात पर था कि अगर सीवान शहर में ही रहकर काम करना है तो पूरा एक साल उन्हें सतह की राजनीति करने के बजाय सिर झुकाकर अपना ढांचा खड़ा करने के काम में झोंक देना चाहिए। जमीनी आंदोलन का चरित्र छात्र आंदोलन से इतना अलग है कि हर हाल में इस लंबे संक्रमण में उन्हें जाना ही होगा। सीवान जैसी जगह में तो और भी ज्यादा, जो उन दिनों हमारी पार्टी के पैमाने पर भी सबसे हिंसक इलाके के रूप में जाना जाता था। चंद्रशेखर की आदत बातचीत के दौरान हमेशा क्रॉस करने की थी, जो उस दिन वह नहीं कर रहे थे और यह पहला मौका था जब उनसे बातचीत में मुझे मजा नहीं आ रहा था।
इसके बमुश्किल दो महीने बाद अमर उजाला के दफ्तर में शाम छह बजे के आसपास उनकी शहादत की खबर आई। रात में पता चला कि जेएनयू के छात्र बिहार भवन पर चंद्रशेखर के हत्यारों की गिरफ्तारी के लिए प्रदर्शन करने जा रहे हैं और शहाबुद्दीन के साथ काफी नजदीकी रखने वाला लालू यादव का साला साधू यादव- जो खुद भी एक बड़ा गैंग्स्टर है- बिहार भवन में आया हुआ है। हम लोग बिहार भवन पहुंचे जहां अपने पुराने मित्रों में राजेश जोशी और अरुण पांडे के अलावा अभय तिवारी, राजेश अभय, इरफान और जेएनयू के कई दोस्त मिल गए। प्रदर्शन के दौरान साधू यादव ने भीतर से फायरिंग की तो जवाब में काफी तोड़फोड़ भी हुई।
सबसे दारुण था करीब महीने भर बाद जेएनयू सिटी सेंटर में चंदू की मां कौशल्या देवी को सुनना। एक बूढ़ी, कमजोर महिला डायस पर खड़ी हुई। माइक के सामने बिल्कुल चुपचाप। पूरा हॉल रो रहा था। कोशिश करके उनके मुंह से दो शब्द निकले- 'क्या कहें', और सबकी हिचकियां बंध गईं। मेरी नजर में तो उस दिन उनका कद चंदू से भी ऊंचा हो गया। वही महिला अगर तहलका से बातचीत में सीपीआईएमएल- लिबरेशन को अवसरवादी नेताओं का गिरोह बताती है तो उसकी बात पर यकीन न कर पाने के बावजूद अपनी आत्मा को मैं कीचड़ में लिथड़ी हुई पा रहा हूं।
9 comments:
शहीद चंदू को मेरा लाल सलाम
चंद्रशेखर जी के विषय में फुरसतिया जी, अनिल भाई और अब आपको पढ़ा. अच्छा लगा.उनकी याद को नमन.
चंदू भाई
कौशल्या दी की चिट्ठियाँ मैंने चंदू के नाम छपी थी और सबने पढ़ी हैं....वे इतनी कमजोर नहीं लगती .....बात जो भी हो दुखद है।
शहीद-संस्कृति पर भी बात की जानी चाहिये..
प्रिय अभय, शहीद संस्कृति नाम की किसी चीज के बारे में मैं कुछ नहीं जानता। जान-बूझकर शहीद होने चले जाने वाले किसी व्यक्ति से अभी तक मेरी मुलाकात भी नहीं है। अलबत्ता भगत सिंह को मैं- कुछ गंभीर एतराजों के बावजूद- ऐसा अकेला व्यक्ति मान सकता हूं। जिन्हें हम शहीद कहते आए हैं वे गरीब-गुरबा के हितों के लिए निःस्वार्थ भाव से काम करने वाले लोग रहे हैं, जिनकी संघर्ष के दौरान विरोधी शक्तियों द्वारा हत्या कर दी गई। इसे अलग से कोई संस्कृति बताना यह कहने जैसा लगता है कि उनका मारा जाना बड़ा अच्छा हुआ और सबको इसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। ऐसी राय इस बारे में भला मेरी क्यों होगी। हम चंद्रशेखर और दूसरे शहीद साथियों को उनकी अप्रतिम संघर्ष क्षमता के लिए प्यार करते हैं और लोगों को अपने निजी दायरे में महदूद कर देने वाले इस आत्मकेंद्रित समय में उन्हें नई पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा स्रोत मानते हैं। बस इतना ही।
आपके लेख को पढकर निराशा हुइ। आपकी बात उस पत्रकार पर संदेह के बजाय उन लोगों पर संदेह से शुरु होती है जिनके शायद आप भी कभी संघर्ष के साथी रहे हैं(अनिल जी के लेख से पता चला कि समकालीन जनमत वाले चन्द्रभूषण आप ही हैं)। कौशल्या मां से ही एक बार पूछ लिया होता आपने इस पर विश्वास करने या लेख लिखने से पहले...
जहां तक मैं जानती हूं यह एक वैचारिक बहस के सिलसिले में लिखा गया है...और वैचारिक बहस को स्वस्थ्य दिशा दिखाने की जिम्मेदारी हर उस व्यक्ति की है जो उस विचार के तहत देखे गये सपनों की कद्र करता है, न कि अपने अलगाव को सही साबित करने के लिए तर्क गढता है।
यद्यपि कि आप इस पर यकीन नहीं कर पा रहे है पर फिर भी आपने इसकी सच्चाई जानने के बजाय कयास लगाते हुए इस पर एक लेख लिखना अपनी जिम्मेदारी समझी!!!
मैं आप सब के जीवन का मकसद तो नहीं जानती पर इतना जरुर कहूगीं कि जितना अधिकार आपका है चंदू और भगत सिह पर उतना ही हक हर उस व्यक्ति का है जो बदलाव के सपने देखता है और उन पर विश्वास करता है....इस लिए आपसे सविनय अनुरोध है कि आइन्दा इनके बारे में या किसी भी नौजवान क्रान्तिकारी के बारे में कुछ लिखने से पहले अपने स्रोतों को विश्वसनीयता की जाचं अवश्य करें...।
अभिव्यक्ति, आपका एतराज बिल्कुल वाजिब है। लिबरेशन में इस सिलसिले में छपा लेख मैंने पढ़ लिया है लेकिन अपनी टिप्पणी के बारे में कोई रिजॉइन्डर देने या इसका खंडन करने का काम मैं अपने स्रोतों से इस विषय में आश्वस्त हो जाने के बाद ही करूंगा। यकीन तो मुझे बहुत सारी चीजों पर नहीं होता, लेकिन वे हो जाती हैं- जीवन ऐसा ही है और पार्टी भी इससे बहुत अलग नहीं है। मुझपर इतना भरोसा रखें कि अगर तहलका की रिपोर्ट पूरी तरह फर्जी है या किसी साजिश के तहत छपी है तो मैं इसी जगह न सिर्फ माफी मांगूंगा बल्कि तहलका की संपादकीय टीम और उक्त रिपोर्टर के खिलाफ जो भी, जितना भी मुझसे बन पड़ेगा, वह करने की कोशिश भी करूंगा।
थोडा बहुत मैं भी चंदू को जानती थी, और रह रह कर इतने सालो बाद भी मुझे ये बात सालती है कि ये चंदू का ये हश्र क्यों हुआ? कितनी संभावनाए एक साथ ख़त्म हुयी। शहादत का जामा, भगत सिंह से उनकी तुलना, चंदू की राजनीती, चंदू का आदर्श सब कुछ एक बड़ी पीडा से भर देता है। अगर आप उनकी माँ के लिए कुछ करना चाहे और मेरे लायक कुछ हो तो याद कीजियेगा.
tahalka main kaushalya mata ke vicharon ko jis tarah faltu aur bajarun tarike se chapi gayin use vimersh ka bishya banane ke bajay uska virodh hona chahiya.searchsoul libration ke nataon se jyada dilli main baithe batkati ki kamai khanewale mahanubhaw ko karni chahiya.
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