Saturday, September 29, 2007

एक प्रस्ताव

रघुवीर सहाय की एक बात ध्यान आती है। रचनावली में संकलित अपनी एक चिट्ठी में वे किसी को ऐसा कुछ लिखते हैं- 'अगर मैं किसी दिन आपको यह कहता दिखूं कि रोजी-रोटी, घर-गिरस्ती की परेशानियां इतनी बढ़ गई हैं कि कुछ लिखने-पढ़ने का वक्त ही नहीं मिलता तो समझ लीजिएगा कि रघुवीर सहाय से अब कोई उम्मीद रखना बेकार है, कि उनको जो कहना था वह वे कह चुके।'

जिंदा रहने की शर्तें दिनोंदिन कठिन होती जा रही हैं लेकिन बंजरपन की बुनियादी वजहें इसके अलावा भी हैं। मसलन, एक-दो तो साफ हैं, बाकी पर काम करना पड़ेगा। दिन के बारह-चौदह घंटे खपाकर थोड़े-बहुत पैसे कमाने और अंधेरे में हाथ-पांव मारने की तरह इस पैसे को रहने-खाने, पहनने-ओढ़ने, कुछ चीजें खरीद लाने, जब-तब कोई प्री-अरेंज्ड ट्रिप मार आने में खर्च देने के अलावा इस जिंदगी का क्या किया जा सकता है, क्या किया जाना चाहिए- ऐसी कोई समझ नहीं है, चिंता भी नहीं है।

या फिर, सुनते आए हैं कि दस जगह नाम और फोटो छपने में बड़ा मजा है, जिंदा रहते अमर हो जाने का सबसे आसान तरीका भी यही है तो जब-तब ऐसे 'परमार्थ' के लिए भी कुछ कर डालते हैं। हिंदी में साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के विनाशकारी अफसरीकरण का यही राज है। गंध मारती थोथी महत्वाकांक्षा के ढूहों के अलावा अब वहां विरले ही कुछ दिखाई पड़ता है। कोई रचनात्मक तकलीफ नहीं, कोई संशय नहीं, कोई दुविधा नहीं, अपने होने-न होने से जुड़ा कोई सवाल नहीं। कवि संजय चतुर्वेदी इसे छोटे बाबू से बड़े बाबू बनने का सफर बताते हैं।

जरा गौर करें, पिछले दस-पंद्रह सालों से हमारे इर्द-गिर्द सिर्फ कामयाबी की दास्तानें हैं। सफल जनों के प्रोफाइल पढ़ने से फुर्सत मिले तो फिर उनके जैसा बनने के उपदेश सुनें। देश भर में गिनती के कोई एक हजार लोग सबको यह समझाने में जुटे हैं कि अमुक जैसे कैसे बनें, तमुक की तरह सुंदर कैसे दिखें, स्वस्थ कैसे रहें, सेक्स कैसे करें वगैरह। उनकी कामयाबियों का कृष्णपक्ष क्या है, कोई नहीं जानता। कितने लोगों की नाकामियां या बर्बादियां उनकी कामयाबी के पर्दे में ढंकी हुई हैं, यह भी कोई नहीं जानता। गधे की पीठ पर बैठकर किसी ने उसके सामने डंडे से बांधकर एक गाजर लटका रखी है। यूं अंतहीन गधाचाल चलते हुए हम कबतक उसे ढोते रहेंगे?

सोच का कोई वैकल्पिक आकाश रचा जाना चाहिए। सब पाकर भी क्या नहीं पाया, कुछ भी पाने का इरादा बनाकर निकले बगैर ही सबकुछ पा लिया- ऐसी दास्तानें भी दुनिया में रही हैं और उन्हें सुन-सुनकर निजी दायरों में सिमटी यह दुनिया अबतक बड़ी होना सीखती आई है। लोहिया जिसे इन्सान का अपनी खाल से बाहर निकलना कहते थे- भिक्षुओं, गणितज्ञों, कवियों, दार्शनिकों, घुमक्कड़ों और धुन के धनी दूसरे लोगों के उस अलग तरह के जीवन को अपनी सोच के दायरे में लाने के लिए अब क्या हमें 'कल्याण' खोलकर प्रेरक प्रसंग बांचने का नाटक करना पड़ेगा?

मित्रों, क्या हम एक ऐसी अनियतकालीन पत्रिका की कल्पना कर सकते हैं जिसका एकमात्र उद्देश्य जीवन का वैकल्पिक आकाश रचना हो? जिसके जरिए लोगों को 'नाकाम' जिंदगियों के उजालों और 'कामयाब' जिंदगियों के अंधेरों के बारे में पता चल सके, जिसमें उन तमाम छोटी-छोटी चीजों के लिए जगह मौजूद हो, जिन्हें कामयाबी का रथ अपनी अप्रतिहत गति से कुचलता चला जा रहा है, लेकिन जिनके न रहने पर जिंदगी का कोई कोना खाली छूट जाता है?

चीजें कब बदल जाती हैं, पता नहीं चलता। लोग पहले पिंजरों में तोते पाला करते थे। यह अच्छा था, बुरा था, सो बात छोड़िए। आज लोग अजीब-अजीब नस्लों के कुत्तों से लेकर अजगर और घड़ियाल तक पालते हैं, लेकिन तोते नहीं पालते। बाकी जानवर सिर्फ खाने या जब-तब टहलाने से पल जाते हैं लेकिन तोते को तो बात करते-करते पाला जाता है। भारत की न जाने कितनी पीढ़ियों का बुढ़ापा तोते से बतियाते कट गया। याद है प्रेमचंद की कहानी 'आत्माराम'- सत्त सिवदत्त गुरदत्त दाता, राम के चरन में चित्त लागा ? बात तो अब बीबी-बच्चों तक से नहीं हो पाती, फिर तोता कैसे पलेगा?

ब्लॉगजगत में जब-तब इस तरह के वैकल्पिक स्पेस के दर्शन हो जाते हैं। भाई प्रमोद सिंह और अभय तिवारी की दार्शनिक तड़फड़ाहटों में ही नहीं, सीमाओं के आर-पार जाते समीरलाल के सार्वदेशिक प्रेक्षणों और निजी दायरे का महिमागान करते अनिल रघुराज के झुंझलाहट पैदा करने वाले निषेधों में भी ऐसा कुछ होने की इच्छा झलक जाती है। लेकिन ब्लॉग अंततः एक महंगा और उच्च तकनीकी वाला माध्यम है। इसमें घुसने का पासपोर्ट किसी आम आदमी को एकमुश्त तीस-चालीस हजार रुपये या रोज-ब-रोज तीस-चालीस रुपये लगाकर ही मिल पाता है। बेहतर होता कि ऐसी पत्रिका कागज पर निकलती। ऐसा होने पर इसका सपोर्ट बेस बड़ा रहता और विविधता की गुंजाइश भी ज्यादा रहती। लेकिन यह जबतक नहीं हो पाता है तबतक ब्लॉग पर ही इसकी जड़ें कैसे रोपी जाएं, इसपर सोचा-विचारा जाए। काम जरूरी है, कभी न कभी किसी न किसी को तो करना ही होगा।

5 comments:

azdak said...

पत्रिका का आइडिया अच्‍छा है. मगर पैरलल लाइफस्‍टाइल वाली एक ही पत्रिका क्‍यों.. रघुवीर बाबू की याद को समर्पित और पत्रिकाएं लाई जाएं.. एक तो अकेला मैं भी लाने के जुगाड़ में हूं(और कार्यकर्ता कहां हैं?).. फंडर सजेस्‍ट करो.. ज़रा इस जीवन में हल्‍ला-गुल्‍ला मचाया जाए.. महज एक नौकरी पिटते हुए उसे होम न कर दिया जाए!
और हां, ब्‍लॉग माध्‍यम के बारे में जैनरलाइज़ न किया जाए. सस्‍ता है, महंगा है, जो भी है फिलहाल इसने बहुतों को(हमें भी) सांस लेने, टेक लेने की एक टेकनीक दी है, तो हमें उसका आभारी होना चाहिए. आज के वक्‍त में कहन तो यह होनी चाहिए कि जिस माध्‍यम, प्‍लेटफॉर्म पर चलें, वहां कुछ करते-कबारते चलें..
बाकी दम लगाके कसरत में लगे रहो. जोर लगाके हइसा!

आशुतोष उपाध्याय said...

यूं पत्रिका निकालने का विचार बुरा नहीं है। लेकिन पत्रिकाएं घूम-फिर कर फिर हमारे जैसे `उदास बुिद्धजीवियों´ को कुछ देर `छपछपी´ लगाने से आगे नहीं जातीं। आखिर हम नई जीवनस्थितियों और जीवनशैली से उपजी हताशा के निवारणर्थ `लिखने-पढ़ने´ तक ही क्यों सीमित रहना चाहते हैं। गाजियाबाद के जिस हिस्से में मैं रहता हूं, वहां आसपास निर्माण गतिविधियों की आंधी सी आ गई हैं। देश भर से हजारों मजदूर दिन-रात अट्टालिकाओं को बनाने में जुटे रहते हैं और उनके बच्चे कीड़े-मकोड़ों की तरह कच्ची-अस्थाई झोपिड़यों के आसपास मंडराते रहते हैं। कई बार मन में यह खयाल आता है कि काश इन बच्चों के लिखने-पढ़ने का ही कुछ इंतजाम किया जाता। कौन जाने थोड़ी-बहुत अनौपचारिक लिखाई पढ़ाई इनके लिए आगे चलकर बड़ी राहत बन जाए। लेकिन अकेले शुरू कैसे हो, समझ नहीं आता। कई बार मुझे लगता है कि जिस हिंदस्तान के कायाकल्प का इतना ढोल पीटा जा रहा है, वहां आबादी के अच्छे-खासे हिस्से के जीवन में अंधेरा और गहरा गया है। दिल्ली और इसके आसपास इतनी बड़ी संख्या में कंस्ट्रक्शन मजदूर शायद ही कभी रहे होंगे।
कहने का कुल मतलब यह कि अगर हम अपनी नवअर्जित मध्यवर्गीय सुविधाओं में सचमुच मस्ताए नहीं हैं, तो पढ़ने-लिखने की कवायद से एक कदम आगे निकल अपने निजी समय को कुछ ऐसी गतिविधियों से भी जोड़ें जिनमें बदलाव की शक्ल भी दिखाई पड़े। हां, अगर पत्रिका से ऐसी गतिविधियों का रास्ता खुलता हो, तो अलग बात है।

shashi said...

चंद्र्भूशण जी पत्रिका का विचार अच्छा है. काफ़ी दिन से मैं भी इस बारे मे सोच रहा हू. इस पत्रिका का प्रकाशन आनोपचारिक ढंग से ही हो तो बेहतर. क्यों ना ब्लॉग जगत की ही चुनिंदा सामग्री दी जाए
अब निजी दायरे का अनुभव और लेखन ही कुछ बदल सकता है. हाँ उसे हिंदी के पेशेवर लेखको और आध्यापाको से बचाकर रखना होगा. तभी कुछ उम्मीद बन सकती है. क्या आप सचमुच गंभीर है.
शशि भूषण द्विवेदी

Unknown said...

patrika nikalne ka vichar to achcha hai lekin ise prastav kahana shayad jaldabazi hogi. dikkat aplogon ki tadpadahat mein bhi hai. vah darshanik hai kya? usme darshanikta ki sahityik dham-dham to hai lekin aur kuch nahin.chote munh badi bat ho sakti hai lekin mujhe ap logon ko thoda bahut padhne ke bad ummid kam hi nazar ati hai.
vipin

सुबोध said...

चंद्रभूषण जी आप लोग इतना बेहतर सोच रहे हैं..बस इसे जमीन पर उतार दीजिए..ब्लॉग ने कम से कम एक जमीन तो तैयार कर ही दी है..इसी से शुरुआत सही