अगर हम होते हवाई द्वीप के वासी
तो एक-दूसरे से अपने नाम बदल लेते
सीथियन होते तो
भरे जाम में खड़ा करते एक तीर
कलाइयों में एकसाथ घोंपकर
आधा-आधा पी लेते
झूठ और कपट से भरे इस दौर में
दोस्ती भी अगर
दंतमंजन के विज्ञापनों जैसी ही करनी है
तो बेहतर होगा,
यह बात यहीं खत्म हो जाय
नाम का नहीं, खून का नहीं
पर एक तीखे तीर का साझा
हम अब भी कर सकते हैं
सोच में चुभा हुआ सच का तीर
जो सोते-जागते कभी चैन न लेने दे
मैं कहीं भी रहूं
तुम्हारे होने का खौफ
मुझे नीचे जाने से रोक दे
तुम उड़ो तो इस यकीन के साथ
कि जमीन पर छाया की तरह
मैं भी तुम्हारे साथ चल रहा हूं
6 comments:
दोस्ती में दंतमंजन के इश्तिहार वाली बात बड़ी मर्मस्पर्शी बन पड़ी है. दोस्त तो ज़िन्दगी का नमक है ...उसके बिना सब बेस्वाद है.
तुम उड़ो तो इस यकीन के साथ
कि जमीन पर छाया की तरह
मैं भी तुम्हारे साथ चल रहा हूं
--बहुत गहरी बात है. अच्छा लगा आपके विचार पढ़कर इस रचना के माध्यम से.
क्या कहने चंदू भाई।
"नाम का नहीं, खून का नहीं
पर एक तीखे तीर का साझा
हम अब भी कर सकते हैं
सोच में चुभा हुआ सच का तीर
जो सोते-जागते कभी चैन न लेने दे
मैं कहीं भी रहूं
तुम्हारे होने का खौफ
मुझे नीचे जाने से रोक दे"
क्या बात है ! इसे कहते हैं कविता . इसे मैं भी 'अनहद नाद' पर डालना चाहूंगा .
ओहो, कविता कहवैया..
लगता है कुछ ज्यादा ही अपेक्षा कर रहे है
बढिया लगे रहो
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