Tuesday, September 11, 2007

हंसी क्यों इतनी मंहगी

टीवी पर हंसी का बाजार गरम है। इस बाजार में बतौर उपभोक्ता अपनी भी भागीदारी है, लेकिन कुछ चिंताओं के साथ। क्या संगीत की तरह हंसी भी अब हमारे जीवन से गायब हो रही है? दो-चार दशक पहले कजरी, फगुआ और शादी-ब्याह की गीत-गवनई का सिलसिला कम होने के साथ ही गाने का ठेका लताबाई और रफी साहब के नाम उठ गया था। फिर धीरे-धीरे लोगों ने अपनी तरंग में कुछ गुनगुनाना भी छोड़ दिया और संगीत की मशीनों पर दूसरों की गाई-बजाई आवाजें सुन-सुनकर ही संतोष करने लगे। क्या ऐसा ही अब हंसी के साथ भी होने जा रहा है?

आपको याद आता है कि मित्र-परिजनों के बीच अपनी सहज गति में खुलकर ठहाका आपने कितने दिन पहले लगाया था? मुझे तो हाल के ऐसे सारे मौके टीवी के सामने बैठने के ही याद आते हैं। अपने बीच जमकर ठहाके लगाने वाले अकेले मनोहर नायक हैं, जिनसे नौकरी का साथ छूटने के बाद मुलाकात भी अब महीनों में होती है। बाकी सारे लोग महीन हंसने वाले हैं, वह भी गाहे-बगाहे।

आदमी खुलकर हंसता है दोस्तों के साथ अड्डेबाजी के दौरान या शादी-ब्याह जैसे किसी आयोजन में हमउम्र रिश्तेदारों के बीच। ये दोनों चीजें अपने बीच से कितनी सफाई से गायब हो गईं? कौन जाने, कल संगीत की तरह हास्य में भी लोगों से कहा जाए कि यार जरा वो राजू श्रीवास्तव का औरतों वाला सुनाना। या फिर हास्याचार्यों की कोई जमात ही ऐसी पैदा हो जाए, जिसे ऐसे वाकये कंठस्थ हों कि किस कॉमेडियन ने कब और कहां कौन सा चुटकुला सुनाया था!

डर तो पूरा है, लेकिन कहीं न कहीं यह भरोसा भी है कि मीडिया और इंटरटेनमेंट कंपनियों की पूरी कोशिश के बावजूद हंसी की दुर्गति संगीत जितनी नहीं होने पायेगी। लोगों के पास खुलकर ठहाके लगाने के मौके भले ही कम से कमतर होते जाएं लेकिन उनके इर्द-गिर्द ऐसी स्थितियां हमेशा बनती रहेंगी, जिनसे उनके होंठों पर हल्की सी हंसी खेल जाएगी। और वह हमेशा ओरिजिनल होगी। लता या रफी जैसा कद पकड़ गए किसी करोड़पति कॉमेडियन की भद्दी नकल नहीं, जिसके बारे में दुबारा सोचकर भी तकलीफ होती हो।

न्यूरोसाइंस और साइकोलॉजी की साझा जमीन पर काम करने वाले दुनिया के सबसे नामी मनोवैज्ञानिक विलायनुर सुब्रमण्यन रामचंद्रन की हंसी पर थीसिस मैंने कोई दो साल पहले पढ़ी थी। उनका कहना है कि हंसी संसार के सबसे ज्यादा विकसित स्नायुतंत्र वाले जानवर- मनुष्य- का 'ओके सिगनल' है। यानी खतरा लगा, मगर था नहीं- ऐसी अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति। इस नतीजे पर वे एक विचित्र बीमारी 'पेन असिंबोलिया' पर काम करते हुए पहुंचे थे। यह बीमारी दिमागी चोट की हालत में पैदा होती है और इसमें इन्सान पिन चुभोने पर हंसता है।

पेन असिंबोलिया के एक मरीज पर काम करते हुए रामचंद्रन ने पाया कि उसके दिमाग का दर्द की अनुभूति करने वाला हिस्सा इंसुलर कोर्टेक्स बिल्कुल ठीक से काम कर रहा है। यानी उसे दर्द महसूस हो रहा है। लेकिन इसके साथ जुड़े आम इन्सानी दिमाग के दो और हिस्से- दर्द की जगह तक हाथ पहुंचाने और चीखने-चिल्लाने के लिए जिम्मेदार लिंबिक सिस्टम तथा भावनात्मक प्रतिक्रिया जताने की शुरुआत करने वाला ऐंटीरियर सिंगुलेट- बिल्कुल निष्क्रिय पड़े हैं। (मैग्नेटिक रिजोनेंस की तकनीक से अब दिमाग के अलग-अलग हिस्सों की सक्रियता का बिल्कुल सटीक पता लगाया जा सकता है।)

यानी क्लिनिकल डायग्नोसिस की जुबान में कहें तो मरीज के वे स्नायु क्षतिग्रस्त हो चुके हैं, जिनसे किसी पीड़ा की अनुभूति का रिश्ता इसकी बाह्य अभिव्यक्ति से जुड़ता है। दिमाग इस विचित्र स्थिति की समग्र व्याख्या किसी ऐसी परेशानी के रूप में कर रहा है, जो या तो है ही नहीं, या बिल्कुल महत्वहीन है। और इसका नतीजा पिन चुभोने पर इन्सान की हंसी के रूप में देखने को मिल रहा है।

बाद में अपनी इस खोज से निकाले गए निष्कर्षों का इस्तेमाल रामचंद्रन ने व्यंग्य जैसे हास्य के महीन रूपों की व्याख्या में भी किया, और बताया कि व्यंग्य से लेकर चुटकुले तक पंच का मतलब कैसे एक-सा होता है। हंसी तभी आती है, जब आप कुछ अप्रत्याशित बनाते हैं और इसका निशाना ऐसे ताकतवर लोगों या स्थितियों को बनाते हैं, जो सुनने वाले के लिए वाकई खतरनाक हों।

हर शनीचर की रात बोका बक्से के सामने बैठकर लाफ्टर शो और कॉमेडी शो के साथ मगजमारी मैं इतनी जटिल अकादमिक खोज को ध्यान में रखते हुए तो नहीं करता। लेकिन हंसी की अंतर्गति से थोड़ा-बहुत वाकिफ हूं, लिहाजा बाद में कभी-कभी अपनी पैथोलॉजी के बारे में जरूर सोचता हूं।

अभी इसी इतवार को इस लत को लेकर प्रमोद भाई की टेलीफोनिक डांट सुनी है। इसके बाद से इसके बारे में कुछ ज्यादा ही गंभीरता से सोचने लगा हूं। कहीं पढ़ रखा है कि किसी चीज के बारे में गंभीरता का चरम यही है कि आप उसपर खुलकर हंसने लगें। जिस दिन मैं टीवी पर खुली हंसी की इन दुकानों पर हंसना सीख जाऊंगा, वही इनसे जुड़ाव का आखिरी दिन होगा।

3 comments:

अनिल रघुराज said...

हंसी के समाजशास्त्र से लेकर हंसी के मनोविज्ञान तक की अच्छी तलाश है। कुछ सोचने के बिंदु मिल जाते हैं।

tanivi said...

क्या ख़ूब लिखा है.हंसी का मनोविज्ञान, समाजशास्त्र भी अजीब है .भारतीय समाज में पहले लड़कियों के हंसने पर उन्हें फटकार पड़ती थी इसी कारण उनकी हंसी दबी हुई निकलती थी, जो खिलखिलाहट
के रूप में सुनायी देती है .मर्द खुल कर ठहाके लगते है .आप कभी किसी पुराने समय की महिला की हंसी को याद कीजिये .हँसते समय वे किस तरह साड़ी के पल्लू से अपना मुँह छिपा लेती थी .हमारी एक काकी है अपने ज़माने में सुन्दर मानी जाती थी पर उनके दांत बाहर की तरफ निकले हुए थे .वो जब भी हंसती थी तो साड़ी के पल्लू या हथेलियों में अपना मुहँ छिपा कर हंसती थी.आज सत्तर साल की उम्र में भी जब पोपली हो चुकी हैं तो भी वैसे ही हंसती है एक बार मैने उन से ऐसे हंसने का कारण पूछा तो पहले तो वह अपने उसी अंदाज में हंसी फिर संजीदा हो कर बोलीं - का बतायें बिटिया दांत बाहर को निकले थे .इसलिये हमारी अम्मा ने सुसराल जाते समय मुझे सिखा कर भेजा था कि दांत बाहर निकाल कर सबके सामने मत हँसना .ज्यादा हंसी आये तो मुँह ढँक कर हँसना .दांत चले गए पर आदत नाही गई .आज जब सिनेमा हाल में औरत को उँची आवाज में खिलखिलाते या ठहाके लगाते सुनती हूँ तो अच्छा लगता है हंसी के बदलते समाज शास्त्र को देखना .

इन्दु said...

आपके पहलू में आकर हंस दिए.......