Friday, September 7, 2007

तृष्णा नहीं जाती

कुछ दिन पहले टीवी में ऊंची हैसियत रखने वाले एक दोस्त के यहां जाकर अपनी अभी वाली नौकरी की मुश्किलें गिनाईं और कहा कि नई जगह में बहुत सारे नए लोग रखे जाने होंगे, मेरे कामकाज के बारे में आप जानते ही हैं, संयोगवश अभी यहां आप कुछ करने की हालत में हैं....और अगर अपने यहां कोई काम न दे पाएं तो कहीं और ही कुछ सिलसिला चलाइए।

उन्होंने थोड़ी देर कुछ इधर-उधर की बातें कीं, फिर मुझे राजनीतिक होलटाइमरी वाला मेरा अतीत याद दिलाने की सी तर्ज में बोले कि उनकी चिंता किसी चैनल के चलने या न चलने पर उतनी ज्यादा नहीं, जितनी इस बात पर केंद्रित है कि इस देश में चल रहे जमीनी आंदोलनों का क्या होगा, उनकी कामयाबी या नाकामी पर कहीं कोई गंभीर बातचीत अब होगी भी या नहीं। बात बिल्कुल सही थी लेकिन अपनी तुच्छ चिंताओं में घिरे मेरे जैसे व्यक्ति के लिए मौका ऐसा था कि मैं ग्लानि से भर उठा।

उनके यहां से वापस लौटते वक्त दुनिया भर की अवाट-बवाट बातें सोचते हुए पता नहीं कैसे मेरे जेहन में अपनी मां का सुनाया अपने एक पूर्वज का किस्सा कौंध गया।

मेरे परदादा तीन भाइयों में सबसे बड़े थे। छोटे वाले दोनों भाइयों ने ऊंची पढ़ाई-लिखाई की लेकिन वे खुद खेती-बाड़ी करते, गाय चराते मात्र साक्षर होकर घर में ही रह गए। कम बोलना उनकी पहचान थी। लोगों की बातें सुनते रहते और कुछ बोलने लायक होता तो बोलते वरना चुप लगा जाते। पता नहीं कैसे उनके इस गुण को धीरे-धीरे मूढ़ता या बावलेपन से जोड़ा जाने लगा।

नीचे वाले दोनों भाई जब इलाके में भारी विद्वान के रूप में ख्यातिप्राप्त हो गए और शादी-ब्याह करके बड़ा आदमी होने की राह पर बढ़ चले तब उनके बीच जमीन-जायदाद के बंटवारे की बात उठी। मेरे परदादा बंटवारे के पक्ष में नहीं थे, न ही अमीन-पतरौल, केस मुकदमे के बारे में उन्हें कोई जानकारी या दिलचस्पी थी। नतीजा यह हुआ कि दोनों छोटे भाइयों ने पूरी पैतृक संपत्ति को आपस में बराबर-बराबर बांट लेने का फैसला किया और अपने इस फैसले को इस दलील की बुनियाद पर दीवानी अदालत की मोहर भी लगवा दी कि सिर्फ गुजारे के अलावा पैतृक संपत्ति में बावले भाई का कोई हक नहीं होता।

मेरे परदादा के चार संतानें थीं। तीन मेरे दादा और एक उनकी बहन। बंटवारे में उनके हिस्से सिर्फ एक बैल बांधने की मंड़ई आई थी और फसल कटाई के समय पेट जिलाने भर को अनाज। इस अजीब बंटवारे पर कोई एतराज करना भी उन्हें व्यर्थ लगा। लेकिन मेरी परदादी उतनी सीधी नहीं थीं और मायके का थोड़ा जोर भी उनके पीछे था लिहाजा लड़-झगड़कर किसी तरह घर की एक कोठरी पर अपना कब्जा उन्होंने तबतक नहीं छोड़ा जबतक किसी बीमारी में उनकी मृत्यु नहीं हो गई।

इसके कुछ समय बाद चेचक की बीमारी में मेरे परदादा भी मृत्युशैया पर थे और वहीं किसी से कहकर उन्होंने अपने दोनों भाइयों को बुलवाया। इतना सब हो जाने के बाद भी अपना आखिरी भरोसा उन्हीं में जताते हुए उन्होंने कहा- मेरे बच्चों का ख्याल रखना। मेरे दोनों छोटे परदादाओं ने अपने व्यस्त समय में पूरे धीरज और गंभीरता के साथ उनका यह निवेदन सुना। फिर ज्योतिष के विद्वान समझे जाने वाले मेरे मझले परदादा ने व्याकरण में ऊंची गति रखने वाले मेरे छोटे परदादा से कहा- 'देखो, इस जीवन की भी कैसी विडंबना है। मर रहे हैं भैया, फिर भी तृष्णा नहीं जा रही है!'

यह किस्सा कई दूसरे संदर्भों में मैं पहले भी याद करता रहा हूं लेकिन इस मौके पर स्कूटर चलाते हुए इसे याद करके मुझे बड़ी राहत मिली। मुझे लगा, मित्र की बातें सोच-सोचकर ग्लानिबोध में फंसने की कोई आवश्यकता नहीं है। समर्थ जन मजबूरी में फंसे निचले स्तर के लोगों के नैतिक पतन को देखकर यदि ऐसी दार्शनिक टिप्पणियां कर बैठते हैं, तो इसका बुरा नहीं मानना चाहिए, क्योंकि उनके लिए इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं होता।

3 comments:

ALOK PURANIK said...

एक सलाह दूं बिना मांगे। और एडवांस में माफी भी मांगता हूं, इस अनधिकार चेष्टा के लिए,आपको सलाह पसंद आये या नहीं।
भूल कर कभी भी,नौकरी के लिए मदद मांगने अपने दोस्त या रिश्तेदार के पास ना जायें।
जो थोड़ी बहुत दोस्तियां हैं, या रिश्तों के भरम हैं, वो बिखरकर टूट जायेंगे। इन भ्रमों के बगैर जिंदगी और ज्यादा परेशान करेगी।
सौरी अगेन।

बोधिसत्व said...

चंदू भाई
यह कोई बड़ी बात नहीं है। दिल पर मत लें।
सौ फीसदी मेरी बात माने आप के पुराने साथी आपके साथ काम नहीं कर सकते। वो डरे हैं आपसे। उन्हे और न डराएं। जाने दें।

अनिल रघुराज said...

समय बदल जाता है लेकिन दर-हरामी लोग वैसे ही बने रहते हैं। ऐसे 'दार्शनिकों' को दस को एक मानकर कम से कम दस जूते मारा जाना चाहिए।