Tuesday, September 4, 2007

सड़क पर नया जन्म

लैंप पोस्टों की पीली रोशनी के सामने से कांपती सिहरती हुई सी नीचे गिरती महीन झींसियों के बीच अनजानी भीड़ में आधी रात तक किसी ऐसे चेहरे की तलाश करते खब्तुल हवास घूमना, जिसपर पल भर को भी नजरें टिकाई जा सकें। मोहम्मद रफी की गनगनाती आवाज में भीतर तक धंसते न जाने किस शायर के- शायद हसरत जयपुरी के शब्द- 'अहसान तेरा होगा मुझपर, दिल चाहता है उसे कहने दो/ मुझे तुमसे मोहब्बत हो गई है, मुझे पलकों की छांव में रहने दो...'

यह रूमान और साथ में यह जोगिया अहसास कि ये सिर्फ गूंजते हुए शब्द हैं। कि इस भीड़ में ऐसा कोई भी नहीं मिलने वाला, जिससे मोहब्बत तो क्या जान-पहचान तक की उम्मीद की जा सके। कि ऐसा है तो भी, और न हो तो भी इस भीड़ में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। कृष्ण जन्माष्टमी की रातें न जाने कब से कुछ इसी तरह मेरे मन में जमी हुई हैं।

यह आजमगढ़ शहर की एक रात की याद है- शायद 1982 की जन्माष्टमी वाली रात की। वहां लालडिग्गी बांध के पीछे टौंस नदी के तकरीबन पेट में एक बहुत पुराना गणेश मंदिर था। गांव से निकलकर शहर में पढ़ाई शुरू करने के शुरुआती सात-आठ महीनों में यह मंदिर ही मेरा निवास था। तीस रुपये महीने पर इसी मंदिर में ली गई एक कोठरी में लकड़ी के बुरादे वाली एक अंगीठी, एक पतीली, एक तवा, एक थाली और एक खटिया। रोज शाम को एक लौकी, दो नेनुआ या तीन करेले खरीदकर ले जाना। पकाना, खाना, पढ़ना, सो जाना।

महंथ जी आजमगढ़ में एक कटरे के मालिक थे। उनके यहां से कोई आकर दिन में एक बार गणेश जी की आरती वगैरह कर जाता। सुबह-सुबह सामने मौजूद झटकू पहलवान के अखाड़े पर कई पहलवान कसरत करते, जोड़ लगाते, दिन में एकाध ठलुए साधू जहा-तहां से आकर वहीं पड़े रहते, लेकिन रातें अक्सर ही बिल्कुल अकेली होतीं। आठ बजे कोठरी का दरवाजा बंद करके कुछ पढ़ते हुए या यूं ही पड़े-पड़े शहर में चल रही गाड़ियों और मंदिर के आस-पास घूम रहे गीदड़ों की आवाजें सुनता रहता।

यह जगह वैसे भी कम डरावनी नहीं थी, ऊपर से किसी पत्रिका में कैलाश नारद की एक भुतही कहानी उन्हीं दिनों पढ़ ली थी। एक आदमी श्मशान से लौटते हुए अपने कंधे पर कुछ बोझ सा पाता है। वह एक बच्चा है, एक शिशु। आदमी उसे कंधे पर लिए-लिए बढ़ रहा है और उसे बच्चे का वजन बढ़ता हुआ महसूस हो रहा है। बोझ ज्यादा बढ़ जाने पर बच्चे को सामने लाकर देखता है तो वहां सिर्फ बच्चे का सिर है, जिसके नीचे एक मोटे सांप का शरीर लटक रहा है। इसी कहानी में पहली बार पढ़ा गया फ्रेज 'गैबी ताकत' आज तक दिमाग में जमा हुआ है और कभी-कभी डरावने सपनों में कोई संदर्भ बनकर लौट आता है।

इसी डर, तनहाई और अजनबियत के माहौल में कृष्ण जन्माष्टमी एक राहत की तरह आई थी। उस रात शहर में बड़ी चहल-पहल थी। आठ बजे दरवाजा बंद करके पड़ जाने के बजाय मैंने बंधा पारकर बाहर निकलने का फैसला किया। रात में शहर की सड़कों पर भीड़ थी। लोग इस मंदिर से उस मंदिर जाने में लगे हुए थे। उसी भीड़ में शामिल होकर यहां-वहां भटकने का अपना एक अलौकिक मजा था...

और इस रात के बाद से गणेश मंदिर के इर्द गिर्द मौजूद 'गैबी ताकतों' का डर कहीं इधर-उधर हो गया। कुछ संयोग भी रहा कि इसके दो-तीन महीने बाद उस मंदिर से पिंड छूट गया। मुझे एक रूम पार्टनर मिल गया और नब्बे रुपये महीने पर हम लोगों ने शहर के दूसरे छोर पर एक कमरा किराये पर ले लिया।

जन्माष्टमी के साथ रसिकता का एक माहौल गांव में भी जुड़ा रहता था। रात में मनाया जाने वाला यह अकेला त्योहार था जिसमें लड़कों-लड़कियों के लिए अलग-अलग इलाके नहीं बंटे होते थे। थोड़ी धींगामुश्ती, थोड़ी धकापेल का माहौल रहता था, टोकाटोकी कम होती थी। मन ही मन खुद को कृष्ण और राधा की छवियों से जोड़ते हुए लोग थोड़ा दरस-परस भी कर लेते थे।

लेकिन रूमानियत का बुनियादी रिश्ता लड़के-लड़की के मिलने-बिछुड़ने से कम, इन्सान के अकेलेपन से कहीं ज्यादा है। इसका सही अंदाजा वे ही लोग लगा सकते हैं जो कभी गहरी तनहाई से गुजरे हों। बाद में आए अकेलेपन के कई लंबे वक्फों के बावजूद आजमगढ़ की वह रात ही मुझे इस हकीकत की याद सबसे ज्यादा दिलाती है।

6 comments:

Udan Tashtari said...

बड़ी शिद्दत से याद किया है उस आजमगढ़ी रात को. होते हैं ऐसे लम्हे जो रह रह कर याद आते हैं. आपने बहुत सुन्दरता से उन्हें शब्दों में बाँधा है. बधाई.

azdak said...

ओह, आजमगढ़ की वो तन्‍हा रात!.. ओह, दुनिया भर में फैली जाने कहां-कहां की वो सारी तन्‍हा रातें!

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया शब्दो मे एक याद को बाँधा है।बधाई।

Pratyaksha said...

ऐसी यादें याद रह जाती हैं हमेशा ।

Unknown said...

चंदू भाई कभी उस रात का जिक्र कीजिए जब आप की रात की घुमक्कडी आदत की वजह से मैं आप और इरफान संगम के किनारे बैठ कर आप ’मुक्तिबोध’ की कविता ’अंधेरे में’ सुनाइ थी

अभय तिवारी said...

रूमानियत के सही अर्थ.. और खोलें.. और बतायें विस्तार में..