Thursday, August 30, 2007

गुङ्ङा का लोकतंत्र

मां-बाप ने नाम तो उनका कुछ भला सा ही रखा था लेकिन देह के साथ दिमाग विकसित नहीं हुआ और जुबान से शब्द भी निकलने में आनाकानी करने लगे तो धीरे-धीरे करके गुङ्ङा ही चल गया। शरीर और मस्तिष्क की विसंगति वाले ऐसे लोग आम तौर पर पीड़ित और उत्पीड़ित प्राणी होते हैं। लेकिन गुङ्ङा इस मायने में अपनी बिरादरी से बहुत अलग थे। जिस उमर में ऐसे बच्चों में उपेक्षा और अलगाव का बोध जागता है- आम तौर पर इसमें केंद्रीय भूमिका स्कूलों की हुआ करती है- उसी उमर में वे घर से निकलकर सड़क पर आ गए। जैसे-तैसे गिलास धोकर या सामान ढोकर अपना खाना-खर्चा निकालने लगे और हां, साथ में उसी तत्परता से सड़क की सारी अच्छी और बुरी आदतें भी सीखते गए, जैसे बच्चे कोई भी नया काम सीखते हैं।

आरा शहर में मेरी मुलाकात जब गुङ्ङा से हुई तो मुझे लगा कि कोई बच्चा है। कंजी आखों और किसी दुबले, गोरे लंगूर जैसी नाक-नक्श वाला लाल मारकीन का कुर्ता-पैजामा पहने टपाटप पार्टी-ऑफिस के काम करता बारह-चौदह साल का एक बच्चा। मैंने पूछा क्या नाम है, तो बिल्कुल चुप। एक साथी ने कहा, नाम-वाम नहीं, पूछिए तुम्हारा चुनाव निशान क्या है। मैंने सवाल दोहराया तो किसी नारे जैसे उत्साह से जवाब आया- ईंही।

इसका मतलब समझाने की जरूरत नहीं पड़ी- वह कुर्ते पर आगे और पीछे छपा था। पार्टी को सीढ़ी का चुनाव निशान मिला था और फिलहाल वही गुङ्ङा का कपड़ा-लत्ता, ओढ़न-डासन था। साथी से मैंने गुङ्ङा की उम्र पूछी और जवाब सुनकर दहल गया। यह मुझसे करीब पांच साल ज्यादा थी।

पार्टी के कामकाज में एक से एक अद्भुत लोगों से मुलाकात होती रहती थी, जिनकी प्रतिबद्धता कई बार पागल कर देने वाली लगती थी। लेकिन इस अनोखे गुण के बावजूद उनकी रंगत अक्सर इतनी एकरस हुआ करती थी कि उनपर अटकना और ज्यादा समय टिके रहना मुश्किल होता था। मेरे साथ गुङ्ङा का संदर्भ भी शायद ऐसा ही बनता, लेकिन किसी वजह से नहीं बना। वे किसी चिड़िया की तरह दिन भर आरा शहर में उड़ते-फिरते और जहां भी मौका मिलता, छोटी-मोटी हम्माली कर लेते। मजूरी में कोई खाना खिला देता या दस-पांच रूपये दे देता तो ऐसी किलकारी मारते जैसे राज मिल गया हो। एक दिन रेलवे स्टेशन पर पेट भर जाने के बाद गुङ्ङा गांजे की चिलम से इतनी ऊंची लपट निकालते दिखे कि पास खड़े सारे गंजेड़ी वाह-वाह कर उठे।

पूरे आरा शहर में चुनाव भर वे पार्टी के झंडे का कपड़ा पहने इसलिए नहीं घूमते रहे कि इसके साथ उनकी कोई राजनीतिक प्रतिबद्धता थी- उनका दिमाग जितना विकसित हो पाया था उसमें राजनीति की समझ किसी हल्ले-गुल्ले से ज्यादा बन ही नहीं सकती थी। इसकी दो बड़ी साफ और बुनियादी वजहें थीं। एक तो इससे चुनाव भर यानी करीब दो महीने उन्हें बिना मजूरी किए भोजन-पानी मिलता रहने वाला था। कोई भी पार्टी चौबीसो घंटे अपनी शक्ल से ही चुनाव प्रचार करते रहने वाले एक आदमी को चालीस-पचास रुपये दिहाड़ी देने के लिए खुशी-खुशी तैयार हो जाती। लेकिन गुङ्ङा इसी बार नहीं, सारे चुनावों में इसी पार्टी के साथ रहते थे तो इसकी वजह दूसरी थी- यहां जब-तब की चुहलबाजी के बावजूद उन्हें एक पूरे इन्सान जितनी इज्जत मिलती थी।

यही गुङ्ङा चुनाव के कुछ दिन बाद एक भारी मुसीबत में फंस गए और कम से कम दो दिन के लिए उनका नाम आरा शहर से निकलकर पूरे बिहार में चर्चित हो गया। हुआ यह कि मतदान के बाद पूरे जिले से ट्रकों पर लद-लदकर बैलट पेटियां आईं और महाराजा कॉलेज के कमरों में भरी जाने लगीं। गुङ्ङा रात बारह-एक बजे तक पेटियां ढोते-ढोते इतने थक गए कि स्ट्रांग रूम में ही कहीं कलटी मार कर सो गए। ऐसा दुर्योग कि ठीक इसी दिन श्रीपेरुंबुदूर में राजीव गांधी की हत्या हो गई और अगले चरण के मतदान समेत चुनाव संबंधी सारी गतिविधियां करीब एक महीने के लिए स्थगित हो गईं।

स्ट्रांगरूम में गुङ्ङा रात में पता नहीं कब उठे, कब से उन्होंने चिल्लाना और दरवाजे, पेटियां भड़भड़ाना शुरू किया, कोई नहीं जानता। करीब तीन-चार दिन बाद संयोग से कॉलेज का कोई चपरासी उधर से गुजरा और उसे लगा कि भीतर कोई है। दरवाजे पर कान लगाकर सुनने की कोशिश की तो घांव-घांव जैसा कुछ सुनाई पड़ा और वह बुरी तरह डर गया। बात प्रिंसिपल तक और वहां से डीएम तक पहुंची लेकिन सवाल यह था कि मतगणना शुरू होने के पचीस दिन पहले स्ट्रांगरूम का ताला भला कैसे खोला जा सकता है।

तबतक यह भी पता चल गया कि वोट पड़ने वाले दिन गुङ्ङा बक्से ढो रहा था और वह उसी दिन से गायब है। स्ट्रांगरूम से आ रही आवाजें गुङ्ङा की ही हैं, शाम तक यह भी तय हो गया। ताला फिर भी नहीं खुला। अगले दिन अखबारों में खबर छप गई, साथ में कुछ पार्टियों के बयान भी कि गुङ्ङा एक पार्टी का कार्यकर्ता है और स्ट्रांगरूम में उसे इरादतन भेजा गया है। किसी तरह राज्य चुनाव आयोग को पटा-पुटू कर अगले दिन शाम तक दरवाजा खुला। तबतक गुङ्ङा बाबू खड़े होने की हालत में भी नहीं रह गए थे।

सिर्फ खाना मिल जाने पर बच्चों की तरह किलक उठने वाले और एक भी पैसा जोड़ने की इच्छा या उम्मीद के बिना बचपन से अधेड़ उम्र तक, या कौन जाने शायद आखिरी सांस तक मजूरी करते रहने वाले गुङ्ङा के साथ लोकतंत्र के 'पावन पर्व' पर हुई यह हरकत इतनी प्रतीकात्मक थी कि इसपर कोई ठीक-ठाक कहानी लिखी जा सकती थी। लेकिन मुलाकात के सोलह साल बाद भी मेरे लिए गुङ्ङा का होना इतना ठोस है कि किसी प्रतीकात्मकता में उसे बांधना ओछा काम लगता है।

5 comments:

अभय तिवारी said...

भयानक.. दिल दहला देने वाली घटना.. जो गुङ्ङा के साथ हुई..

अनिल रघुराज said...

हमारे चुनावी लोकतंत्र के विद्रूप को उद्घाटित करता गुड्डा से अच्छा प्रतीक मिलना मुश्किल है।

Udan Tashtari said...

सोलह साल बाद भी मेरे लिए गुङ्ङा का होना इतना ठोस है कि किसी प्रतीकात्मकता में उसे बांधना ओछा काम लगता है।

-बिल्कुल सत्य..!!!

Pratyaksha said...

ठोस है इसीलिये लिखें ।

अनूप शुक्ल said...

क्या विडंबना है!