और चाहे कुछ भी होऊं मैं, लेकिन सिर्फ कुछ महीनों के एक वक्फे को छोड़कर अकेलखोर कभी नहीं रहा। भीड़भाड़ में, आयोजनों में, जलसा-जुलूसों में होना मजेदार लगता है। और तो और, कभी-कभी सड़क किनारे लगाए गए मजमों में खड़ा होकर संपेरों, मदारियों और असाध्य बीमारियों की दवा बेचने वाले मजमेबाजों का तमाशा भी देख लेता हूं। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के आयोजनों में भी एक अर्से तक बड़ी धज से शामिल होता रहा, शौक से भाषण तैयार करता और देता रहा, नारे लगाता रहा, लेकिन पता नहीं क्यों अब यह सब झेला नहीं जाता।
सुबह से लेकर अब तक दो आयोजनों में हिस्सा लेकर लौटा हूं और लग रहा है पूरा दिन बर्बाद हो गया। दफ्तर के आयोजन में शामिल होना तो नौकरी का हिस्सा है। उसमें दिए जाने वाले वक्तव्य और सांस्कृतिक कार्यक्रम साल-दर-साल चलने वाला एक रुटीन हैं और शुरुआत से लेकर आज तक इनमें कभी कम कभी ज्यादा भव्यता को छोड़कर ब्योरों के स्तर पर कोई बदलाव नहीं आया है। इसके बरक्स मोहल्ले का आयोजन लगातार अपना स्वरूप बदल रहा है और इस बार तो एक सज्जन ने बाकायदा इसे हिंदू राष्ट्र अभियान का हिस्सा बनाने की कोशिश की।
साल दर साल 15 अगस्त और 26 जनवरी के आयोजन अपनी नीरसता से यह जाहिर करते हैं कि इस देश में स्वतंत्रता का कोई भीतरी एजेंडा नहीं रह गया है। ऊंघती हुई रटी-रटाई बातों के अलावा थोड़ा-बहुत रसीला जो कुछ भी बोला जाता है उसका सार-संक्षेप यही होता है कि विदेशी ताकतें हमारी आजादी पर नजर लगाए हुए हैं, उनसे हमें सजग रहना है। पिछले पंद्रह एक सालों से इन 'विदेशी ताकतों' की पहचान आईएसआई के रूप में कराई जा रही थी लेकिन इस बार मोहल्ले वाले सज्जन ने तिब्बत से भारत की तरफ बढ़ते चले आ रहे चीन और दक्षिण में रामसेतु के टूटते ही एटमी महत्व वाली थोरियम (वे इसे थोरेनियम कह रहे थे) धातु पर कब्जा जमाने आ रही पश्चिमी ताकतों को भी इसके साथ नत्थी कर दिया।
राष्ट्रीय पर्वों में जाहिर होने वाला यह उबाऊ राष्ट्रवाद देश में ज्यादा टिकाऊ साबित होगा, इसमें मुझे बहुत संदेह है। अमेरिका में यह टिका हुआ है तो इसकी अपनी अलग वजहें हैं। हर सामूहिकता को अप्रासंगिक बना देने वाला वैसा कारगर बिजनेस सेंस किसी पुराने समाज में आने की कल्पना नहीं की जा सकती। यूरोप में कितने सौ साल लड़-मर कर और बीसवीं सदी की दो बड़ी लड़ाइयों में कुछ करोड़ जानें गंवा कर अभी का 'बिजनेस लाइक' राष्ट्रवाद पैदा हुआ है। भारत में इतनी गरीबी, विषमता और पिछड़ेपन के होते राष्ट्रवाद पर हिंदुत्व जैसी जुनूनी धाराओं का दावा हमेशा ही बना रहेगा- कम से कम तबतक, जबतक स्वतंत्रता का कोई भीतरी एजेंडा सतह पर नहीं आता।
इस देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि जो भी धाराएं या व्यक्तित्व इस दिशा में काम करते हैं उनकी अंततः एक तबकाई कार्यसूची भर बनकर रह जाती है। कम्युनिस्ट हों, वीपी सिंह हों या फिर कांशीराम-मायावती की बहुजन समाज पार्टी हो, इस नियति से कोई बच नहीं पाता। पूरी व्यवस्था इन्हें एक तबके के या अपने निजी स्वार्थों के दायरे में सीमित साबित करने में जुटी रहती है। और ठीक तभी, जब लगता है कि इस षडयंत्र को तोड़ने में ये कामयाब हो जाएंगे, वे सचमुच अपने को किसी खास तबके के साथ नत्थी करने के जतन करते दिखाई देने लगते हैं क्योंकि इससे आगे बढ़कर कुछ सोचना और करना उन्हें वक्त की बर्बादी लगने लगता है। लोहिया और अंबेडकर सोच और व्यवहार, दोनों में ही इनसे भिन्न थे लेकिन उनके लिए तो अपनी धारा बचाए रखना भी संभव नहीं हुआ!
आजादी की साठवीं वर्षगांठ पर सारा कुछ अच्छा ही अच्छा नजर आ रहा है। देश तरक्की कर रहा है। भाजपा और शिवसेना जैसी हिंदुत्व आधारित फासिस्ट धाराएं अपनी किस्मत को रो रही हैं। उदारवाद का हर तरफ बोलबाला है। लेकिन पता नहीं क्यों इस शांति में मुझे किसी तूफान की आहट सुनाई पड़ रही है। यह तूफान सन् 2009 में मतपेटियों से निकल आएगा, ऐसा कुछ न मैं कहता हूं न मानता हूं।
समाज में फासले बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं और उससे भी ज्यादा तेजी से बढ़ रही है देश के ताकतवर तबकों की संवेदनहीनता। अभी कल-परसों एक नव-धनाढ्य महिला मुझे बड़े जतन से समझा रही थीं कि देश में इतने सारे मॉल खुलने जा रहे हैं कि किसी के लिए भी काम की कोई कमी नहीं रहने वाली है। जमीन पर आज छिटपुट प्रतिरोध तो है लेकिन ऐसी कोई देशव्यापी ताकत नहीं है जो वंचित तबकों को बड़े पैमाने पर किसी परिवर्तनकामी एजेंडे के इर्द-गिर्द संगठित कर सके।
ऐसे में भाड़े के भविष्यवक्ता चाहे जो भी कहें लेकिन समय में ज्यादा दूर तक देख पाना किसी सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक के लिए संभव नहीं है। मुझे तो अगले दो-तीन साल से आगे का समय ही इतना अंधेरा दिखाई पड़ता है कि उसके बारे में कुछ भी सोचने से मेरा दिमाग इन्कार कर देता है। नीचे तनाव इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि कोई अप्रत्याशित घटना चेन रिएक्शन की तरह किसी भयानक राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत करके सुकून की इन मीनारों को नेस्तनाबूद कर सकती है।
4 comments:
गहन चिन्तन!!
आजादी की साठवीं वर्षगांठ की बधाई.
कोई भी अप्रत्याशित घटना चेन रिएक्शन की तरह किसी भयानक राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत करके सुकून की इन मीनारों को नेस्तनाबूद कर सकती है।...
मुझे भी इसी बात का अंदेशा है।
ए भाई चन्दूजी, बीस पचीस साल पहले लोग कहते थे कि आई एम एफ और वर्ड बैंक का इतना लोन हो जायेगा कि आर्थिक आपातकाल घोषित कर दिया जायेगा, क्या ऐसी स्थिति निकट भविष्य में हम देख पाते हैं.. अब तो सेज़ है मॉल है गरीब अमीर की खाई है फिर भी सब अन्डरकन्ट्रोल है दूर दूर तक किसी बड़े आंदोलन की सम्भावना है तो फिर भी इतने मजबूत नही है की केन्द्र की चूलें हिल जांय,पर सब कुछ पहले जैसा ही है...राजनितिक रूप से भी कोई बड़े परिवर्तन की आशा करना बेकार है..
विमल भाई, आपसे पूरी तरह सहमत हूं, इसीलिए इतना चिंतित हूं। ढंग के परिवर्तन वाली कोई ताकत जमीन पर खड़ी होती है और बड़े बदलाव में वह नाकाम भी रहती है तो कोई बिचौलिया ताकत मौके का फायदा उठाकर बीच का जो कुछ करती है वह भी पहले वाले से थोड़ा अच्छा ही होता है। अभी तो हालत यह है कि एक जोर का सूखा पड़ जाए तो कई इलाकों में हालात बेकाबू हो जाएंगे। अल कायदा वाले दो-चार कारस्तानियां कर दें तो यही मॉलों में जाने वाले और पिज्जा खाने वाले लोग बजरंगदली बनकर लूटपाट मचाने लगेंगे। सजे-संवरे लोगों की असलियत गुजरात में देखी जा चुकी है, बाकी देश में देखी जानी अभी बाकी है...
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