Monday, August 6, 2007

अबे, कैसे-कैसे डे

कल शाम दिलीप मंडल और अनुराधा ने फोन पर हैप्पी फ्रेंडशिप बोला तो मैं बिल्कुल चौंक-सा गया। अकबकाहट में मुंह से निकला- यह क्या हो गया है आपको, पूरा अंग्रेजी छाप हुए जा रहे हैं। दिलीप ने कहा, इसमें बुराई क्या है? क्या दोस्ती, प्यार या मां-बाप के प्रति लगाव जताना- भले यह सब किसी डे के बहाने ही किया जाए- कोई गलत बात है?


कैसी-कैसी तो बातें मन में उमड़ आईं यह सुनकर। थोड़ी देर दिलीप से मां के बारे में बतियाता रहा कि आज तक कभी उसे आप कहकर नहीं बुलाया, झगड़ा करने का कोई मौका कभी नहीं चूका और कैसे एक बार जब तीन साल बाद घर लौटा और पता चला कि वह कितनी अजलस्त हालत में थी तो अपनी समझ से उसका देसी इलाज शुरू किया और उसने छूटते ही कहा कि मैं दरअसल उसकी जान लेने की कोशिश कर रहा हूं। बाद में इसी इलाज से वह बिल्कुल चंगी हो गई, यह और बात है, लेकिन रिश्ते का उजड्डपन तो इससे जाहिर होता ही है। क्या मदर्स डे पर उसे एक गुलाब का फूल दे दूं और 'हैप्पी मदर्स डे, माई ' बोल दूं तो रिश्ता बेहतर हो जाएगा?


कमोबेश यही हाल पिता से रिश्ते का रहा। सात-आठ साल की उम्र तक उनके कंधे पर चढ़कर जहां-तहां घूमता रहा। उनका बस चलता तो स्कूल कतई न भेजते। लेकिन थोड़ा बड़ा होते ही उन्होंने न सिर्फ कंधे पर बिठाना बल्कि समझाना और सिखाना भी बिल्कुल छोड़ दिया। पीट-पीटकर दिमाग में ज्ञान और तमीज घुसाने की जिम्मेदारी बड़े भाई साहब ने अपने ऊपर ले ली। पिता जी ने आखिरी चीज मुझे सिखाई खाना बनाना- इस नीतिवाक्य के साथ कि यह काम तुम्हें आता रहे तो भूखों मरने की नौबत कभी नहीं आएगी। पहली चीज शायद उन्होंने कसरत करना सिखाई थी- इस सूत्रवाक्य के साथ कि शरीर ठीक रहे तो हर कपड़ा जंचता है।


बहरहाल, पिताजी से भी कभी बहुत प्यार से बोलने की आदत नहीं रही। जब मैं चार साल का था तभी वे नौकरी छोड़ चुके थे और उनके पास इतने पैसे फिर कभी नहीं हुए कि अपनी पत्नी और बच्चों की जरूरतें पूरी कर सकें, बदले में उनका भरपूर प्यार पा सकें। हमारे बीच रिश्तों की रुखड़ाहट मजबूरियों से उपजी थी और प्यार यहां जितना भी बचा था वह इतना मजबूत कभी नहीं हो सका कि इस रुखड़ी सतह को पार कर पाता। आज अगर वे जिंदा होते तो फादर्स डे पर मैं उनके लिए क्या करता जो हमारे बीच अचानक हरहराता हुआ प्यार का दरिया बह निकलता?


दोस्त ज्यादा नहीं बने। बचपन के जो दोस्त थे वे बीच में मुझसे अच्छी हैसियत में पहुंच गए थे लेकिन बाद में जमाने के चलन के मुताबिक गांव और छोटे शहरों में रहते हुए वे मजबूर से मजबूरतर होते गए। जवानी में जो बने वे कॉमरेड बने। दोस्त से कॉमरेड एक मायने में बेहतर होता है कि वह आपके लिए बड़ी कुर्बानियां कर सकता है लेकिन एक मायने में बदतर भी होता है कि उसके साथ दोस्ती को लेकर कुछ शर्ते जुड़ी होती हैं- मसलन क्रांतिकारी विचारधारा की शर्त। दोस्ती मेरे लेखे एक ऐसी ही चीज है जिसमें कोई शर्त न हो, जिसमें मेरे पतितपन के लिए भी कुछ गुंजाइश मौजूद हो। चाहे किसी कॉमरेड की तरफ से आए चाहे गैर-कॉमरेड की तरफ से, इसके लिए मैं बांहें फैलाए खड़ा हूं। लेकिन अभी तो सवाल यह है कि क्या इसके लिए मुझे 5 अगस्त को फूल देकर उन्हें हैपी फ्रेंडशिप डे बोलना जरूरी होगा?

10 comments:

Sanjeet Tripathi said...

बहुत सही!!

आइए पढ़ें दोस्ती पर छत्तीसगढ़ की एक परंपरा
दोस्ती: प्रीत वही पर रीत पराई
http://sanjeettripathi.blogspot.com/2007/08/blog-post.html

Priyankar said...

बहुत सच्चा और मन को छूने वाला लिखते हैं आप . आइये! शर्तरहित मित्रता की डगर पर आगे बढ़ते हैं .

मित्रता का दिनों से कोई सम्बंध नहीं है . मुझे तो यह व्यस्त और अस्त-व्यस्त समाजों का चोंचला लगता है . पर कभी-कभी यह भी ज़रूरी लगता है कि मित्र दो लाइन लिख कर अपने होने का -- वहीं होने का सुबूत दें .

azdak said...

ऐसे मौक़ों पर कभी-कभी मन अकुलाता है कि कोई चिरकुट डे होता तो घूम-घूमकर लोगों को विश करने में फिर आनन्‍द रहता.

अनिल रघुराज said...

मैं भी प्रमोद के विचार से शत-प्रतिशत सहमत हूं

गरिमा said...

सहमत हूँ... मित्रता शर्त रहित हो तो ही सही मायने मे उसमे मजा भी आता है... वरना तो ढकोसला भर रह जाता है... अब ऐसे मित्रता को बरकरार रखने के लिये साल मे 10 दिन भी मित्रता दिवस क्यो ना मना लिया जाये.. अर्थ तो कुछ नही निकलेगा।

VIMAL VERMA said...

सही है चन्दूभाई,कितनी सरलता से गूढ़ बाते आप कह जाते है और ये भी सच है कि दोस्त को बार बार दोस्त कहने से संदेह का बढना स्वभाविक है.बाज़ारियो ने एक त्योहार और ढूंढ लिया.

Udan Tashtari said...

शर्तों पर मित्रता नहीं, मात्र एक अनुबंधित छलावा होता है. मित्रता का निहित ही शर्तहीन होने में है. बहुत अच्छा लिखा है आपने.

Pratyaksha said...

फ्रेंडशिप डे बोलें न बोलें लेकिन गाहे बगाहे दोस्त को दोस्ती ज़रूर जताते रहें । बहर हाल लिखा बहुत बढिया है ।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

भाई चंदू जी!
प्रमोद जी के सुझाव पर अमल करने लायक है. आइए हमीं लोग शुरुआत करते हैं.

आर. अनुराधा said...

चंदू भाई, जाने कहां से घूमते-फिरते इस पोस्ट पर पहुंच गई। मेरे और दिलीप के हैप्प फ्रेंडशिप डे कहने का इतना असर हुआ कि आप अपने माता-पिता-साथियों को इस शिद्दत से याद कर गए। क्या ऐसा आम होता है कि आप उनको इतना याद करते हैं? नहीं न? तो फिर यह सोचने में शर्म कैसी कि इसी किसी विदेशी डे पर कैसा-कैसा महसूस कराने के बावजूद वह 'औपचारिक' बधाई अपना काम कर गई। बधाई।