Saturday, July 28, 2007

अस्सी के नामवर

बड़े लोगों का साठ, सत्तर या अस्सी पार करना खुद में कोई ऐसी बात तो नहीं है कि उसपर कोई लंबा-चौड़ा पसारा किया जाए लेकिन बात अगर डॉ. नामवर सिंह की हो तो उनके बारे में कुछ कहने का मौका चूकने का दिल नहीं करता। कई बार नामवर जी पर लिखने का मन बनाया है, यह और बात है कि यह पहली ही बार उनके बारे में औपचारिक रूप से कुछ कह रहा हूं।

नामवर जी की परस्पर दो बिल्कुल विरोधी छवियां मेरे मन में हैं। उनकी व्यावहारिक छवि पूरी तरह एक ऐसे व्यक्ति की है, जिसका ताना और बाना दोनों सत्ता के रेशों से बटकर तैयार किए गए हैं। राजकमल प्रकाशन से लेकर मेरे मौजूदा संस्थान तक मैंने उन्हें सत्ता की भाषा बोलते, इसी के लिए अपनी सारी रचनात्मकता और प्रतिबद्धता का इस्तेमाल करते देखा है। निर्णय के सभी मौकों पर उनके भीतर कोई दुविधा नजर नहीं आई। हर बार उन्होंने वही किया जिससे सत्ता के साथ उनके संबंध और प्रगाढ़ हों। इसमें व्यवधान सिर्फ तभी आया जब गलतफहमी में निचले स्तर की सत्ता उन्होंने खुद को मान लिया और किसी पुराने खिलाड़ी से भिड़ गए। ऐसे मौकों पर उन्हें बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी। हालांकि बिल्कुल चारो खाने चित्त हो जाने के बावजूद अपनी पीठ की धूल उन्होंने कुछ इस तरह झाड़ी जैसे यूं ही जरा सा पांव फिसल गया हो।

नामवर सिंह का दूसरा चेहरा मेरे मन में उनकी लिखी किताबों से उभरता है। ऐसी गिनती की कुल दो किताबें मैंने पढ़ी हैं- 'दूसरी परंपरा की खोज' और 'कविता के नए प्रतिमान'। मैं नहीं जानता कि साहित्य महारथियों की राय इन किताबों के बारे में कैसी है, लेकिन मुझे लगता है कि आधुनिक हिंदी साहित्य के कुछ बुनियादी संस्कार अर्जित करने के लिए ये किताबें एक बेहतर रास्ता हैं। इनमें कविता पढ़ने और कविकर्म को सामाजिक संदर्भ में देखने की एक बुनियादी तमीज मौजूद है। हमारी भाषा में यह चीज पता नहीं कैसे बार-बार इस कदर लापता हो जाती है कि हर किसी को उसे नए सिरे से खोजना पड़ता है, या फिर बिना इस तमीज के ही सिर्फ गदर काटते हुए साहित्य का भवसागर पार कर लेना होता है।

'कविता के नए प्रतिमान' पर मेरे बहुत सारे सवाल रहे हैं, जिनके बारे में नामवर जी से बहस करने की मेरी बड़ी इच्छा रही है। मसलन यह कि तमाम अच्छाइयों के बावजूद क्या हिंदी कविता को सार्वजनिक दायरे से निजी दायरे में समेट देने में भी इन प्रतिमानों की कोई भूमिका रही है? मसलन यह कि कविता के परंपरा-अर्जित उपादानों को नया करने की बात अगर भारत में उर्दू और यूरोप में रूसी जैसी कई भाषाओं में आज भी पूरी शक्ति से मौजूद है, यहां तक कि फ्रेंच और अंग्रेजी में भी जब-तब लय-छंद की खोज की लहर चल पड़ती है तो इस दिशा में किए गए रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह के छुटपुट प्रयासों की कमर आज यूं टूट गई सी क्यों लगती है? क्या इसकी जड़ में ऐसे प्रयासों को कालातीत मान लेने की कोई वैचारिक प्रवृत्ति काम कर रही है, जिसके सूत्र साठ के दशक में शीर्ष तक पहुंचकर अचानक ढल गई हिंदी आलोचना में मौजूद हैं?

नामवर सिंह लिखना एक जमाने से छोड़ चुके हैं लिहाजा उनके लिखे से बहस करने की अब कोई गुंजाइश नहीं है लेकिन आक्रोश और प्रतिवाद का वक्त गुजर जाने के बाद मैं सोचता हूं कि वे आज लिखते भी रहते तो क्या कवियों की कमजोरियों का गुस्सा एक आलोचक पर उतारना सही रहता? नामवर सिंह वाल्टर बेंजामिन की तरह चीजों के नए संदर्भ पेश कर देने वाले रचनात्मक आलोचक नहीं हैं लेकिन उन्नीसवीं के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में अगर बॉदिलेयर के नेतृत्व में फ्रांसीसी कविता की एक नई धारा आधुनिक भावभूमि में छंद को नए सिरे से जिंदा करती हुई न आ जाती तो बेंजामिन भी आखिर क्या करते?

ज्यादा क्या कहें अगर हिंदी के कथित युवा कवि अपनी आलोचनाओं को छपाने से पहले ही आलोचकों के पास उन्हें जंचवाने चले जाएंगे तो आलोचक के मन में कविता पर कुछ नया सोचने का स्फुरण कहां से आएगा? इस लिहाज से आलोचना के सामने नए के नाम पर थोड़ी-बहुत चुनौती विनोद कुमार शुक्ल पेश करते हैं, हालांकि मुझे उनके काम का नयापन कहन के दायरे को पार कर कथ्य तक पहुंचता कम ही नजर आता है। बाकी विष्णु खरे से लेकर वीरेन डंगवाल तक और अरुण कमल से लेकर अशोक वाजपेयी तक मौजूदा समय के ज्यादातर बड़े कवियों को या तो आलोचना की जरूरत ही नहीं है या अपनी रचना से ज्यादा उनकी दिलचस्पी अपना आलोचना शास्त्र गढ़ने में नजर आती है।

नामवर सिंह के लिखना छोड़ने से सबसे ज्यादा खलने वाली बात साहित्य की संस्कृति के पराभव के रूप में देखने को मिली है। बड़ी आसानी से इसकी जगह गपाष्टकों और अफवाहबाजियों ने ले ली है, जिसका हल्का रूप लगभग हर हफ्ते जनसत्ता अखबार में और साल में कम से कम एक बार अत्यंत गर्हित रूप में आउटलुक नाम के हिंदी साप्ताहिक में देखने को मिलता है। काश, किसी दिए से निकला कोई जिन्न हिंदी में नए सिरे से साहित्य की उसी संस्कृति को एक बार फिर प्रतिष्ठित कर देता, जो नामवर सिंह की लिखी दो किताबों- 'कविता के नए प्रतिमान' और 'दूसरी परंपरा की खोज'- की शक्ल में इतनी आसानी से हमें खुद में समाहित कर लेती है।

4 comments:

बोधिसत्व said...

चंदू भाई नामवर जी के अस्सी साल पूरे होने पर हम सब की हार्दिक शुभकामनाएँ। वे हिंदी के शीर्ष पुरुष हैं। उनका होना हिंदी के लिए संजीवनी की तरह है ।

अनूप शुक्ल said...

नामवरजी के अस्सी साल के होने पर हमारी शुभकामनायें।

sanjay patel said...

हिन्दी की चाक चौबंद चौकीदारी करने वाले अस्सी साल के नामवर युवक को जन्मदिन की बधाई.

Dr. Bharat said...

चन्द्रभूषण जी और दूसरे साथियों...
आपने नामवर सिंह के अस्सी वर्ष पूरे होने पर लख-लख बधाईयाँ दी..।
इस क्रम में चिठ्टाकरिता के जरीये में भी नामवर जी को बधाई दे देता हूँ। वैसे हम लोग किसी बड़े आलोचक के बारे में बात करे तो हमें यह जरूर ज्ञात होना चाहिए की उनका जन्मदिवस क्या है..? वैसे इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता..।
मेरी जानकारी के अनुसार नामवर जी वास्तविक जन्मदिवस 28 जुलाई 1926 ह और सरकारी कागजों में 1 मई 1926 हैं। इस आधार पर नामवर सिंह अपनी उम्र के 81 वर्ष पूरे कर चुके है तथा अब उनका 82 वॉ जन्मदिवस होना चाहिए..।
खैर इन सब बातों से कोई खास फर्क नहीं पड़ता .., हम भी नामवर जी को उनके 82 वें जन्मदिवस की शुभकामनाएं अवश्य दें। वे हमारे समय के कालपुरूष.., हिंदी साहित्य जगत के पुराधा है..। उनके बारे में लोग भले कुछ भी कहें की 'चारो खाने चित्त हो जाने के बावजूद अपनी पीठ की धूल उन्होंने कुछ इस तरह झाड़ी जैसे यूं ही जरा सा पांव फिसल गया हो।' इन सब बातों से कोई खास फर्क नही पड़ता हैं। नामवर सिंह वो जीवट व्यक्ति है जो 80 पार करने के बाद युवाओं से भी ज्यादा जोश और जज्बें से हिंदी सेवा में सक्रिय है..।
हिंदी के लिए समर्पित उनके जीवन औऱ समर्पण को शत-शत नमन...