Monday, July 30, 2007

धरती में क्या खास?

धरती सृष्टि का केंद्र नहीं है। एक अंतरिक्षीय पिंड के रूप में इसमें ऐसे कोई सुरखाब के पर भी नहीं लगे हैं कि इसे खास-उल-खास का दर्जा दिया जा सके। जिस तारे के इर्द-गिर्द यह घूमती है वह आकाशगंगा नाम की एक नीहारिका का एक आम सितारा है। इसके जैसे कई अरब सितारे इसी नीहारिका में हैं और इस नीहारिका जैसी कई अरब नीहारिकाएं ब्रह्मांड में मौजूद होने की बात फिलहाल मौजूद- और निरंतर बढ़ते हुए- आंकड़ों के आधार पर पक्के तौर पर कही जा सकती है। एक आकाशीय पिंड के रूप में धरती की अकेली पहचान इसका प्रेक्षकीय गुण है, जो इसपर जीवन और चेतना की मौजूदगी का नतीजा है। वैज्ञानिकों और प्राकृतिक दार्शनिकों के लिए सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर धरती को छोड़कर औऱ कहीं भी जीवन का कोई चिह्न वे क्यों नहीं खोज पा रहे हैं।

अब से कोई हजार साल पहले कॉपरनिकस ने जब धरती के सूरज के चारो तरफ घूमने की बात सारी दलीलों और सबूतों के साथ कह दी तो इन्सानों की दुनिया से यह सुकून जाता रहा कि धरती ही संपूर्ण सृष्टि का केंद्र है। इसे स्वीकार करना आसान नहीं था। यूरोप के विद्वज्जनों को इसे मानने में करीब दो-तीन सौ साल लग गए। इस वक्फे में ब्रूनो ज्योर्दानो को यही बात दोहराने के लिए जिंदा जल मरने की सजा मिली तो गैलीलियो को माफी मांगकर ऐसी ही सजा से अपनी जान छुड़ानी पड़ी। लेकिन इस छोटी सी कायरता की कीमत पर गैलीलियो ने प्राकृतिक दर्शन पर काबिज चर्च और दूसरे धर्मध्वजधारियों को लात मारकर इस सुनहरी कुर्सी पर से हमेशा-हमेशा के लिए धकेल दिया। उनके बनाए टेलीस्कोपों से लोगों ने धरती जैसी (मंगल व शुक्र) और इससे कहीं ज्यादा बड़ी (बृहस्पति व शनि) दुनियाओं की झलक अपने आंखों से देख ली।

पूरी बीसवीं सदी इसी जद्दोजहद में बीत गई कि धरती किस मायने में एक सामान्य आकाशीय पिंड है और किस मायने में यह बिल्कुल अनोखा है। इसे एक आम आकाशीय पिंड मानने वालों में सबसे बड़ी तादाद अंतरिक्षविज्ञानियों की एक ऐसी बिरादरी की है जो धरती से इतर अन्य बुद्धिमान ग्रहों में विश्वास रखते हैं और उनसे आने वाले संकेतों को पकड़ने में जुटे हैं। इनमें कार्ल सागान जैसे प्रखर वैज्ञानिक शामिल रहे तो विभिन्न साइंटोलॉजिस्ट पंथों वाले लोग भी इसका हिस्सा हैं जो उड़नतश्तरियों और धूमकेतुओं के पीछे-पीछे ईसा मसीह की धरती पर सशरीर वापसी में यकीन रखते हैं- और इस झोंक में कभी-कभी सामूहिक आत्महत्या जैसा कदम उठाने से भी गुरेज नहीं करते। इस पूरी बिरादरी की एक सामूहिक पहचान सेटी (सर्च फॉर एक्स्ट्रा-टेरेस्ट्रियल इंटेलीजेंस) है, जिसके बजट में अमेरिकी सरकार हाल के वर्षों में लगातार कटौती करती गई है।

सेटी वालों के पास वैज्ञानिक दलील के रूप में ड्रेक फार्मूला है जिसे सरलीकृत रूप में कहें तो एक हजार तारों में से एक के पास ग्रहमंडल, एक हजार ग्रहमंडलों में से एक में जीवन के लिए उपयुक्त परिस्थितियां, एक हजार जीवनक्षम ग्रहों में से एक में उच्च स्तरीय चेतना का विकास और एक हजार उच्च चेतन पिंडों में से एक में धरती की तुलना में उच्चतर चेतना का स्तर। कुल मिलाकर इस फार्मूले के मुताबिक हमारी अपनी नीहारिका यानी आकाशगंगा में कई सौ ऐसी सभ्यताएं मौजूद होनी चाहिए जिनका वैज्ञानिक स्तर पृथ्वी से कहीं ज्यादा ऊंचा हो- और निश्चय ही वे धरती से संपर्क करने का प्रयास कर रही होंगी!

कार्ल सागान ड्रेक फार्मूले में अंतर्निहित बुनियादी तर्क की सत्यता को लेकर जीवन भर कुछ ज्यादा ही आश्वस्त रहे। उनका कहना था कि अफ्रीकी आदिवासियों के ऊपर से टीवी और रेडियो के तमाम सिग्नल गुजर रहे होते हैं, जिनके बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं होती। ठीक उसी तरह उच्चतर सभ्यता वाले ग्रहों के बीच जारी संवाद को हम पृथ्वीवासी इसलिए नहीं जान पाते क्योंकि उन्हें पकड़ सकने वाली टेक्नोलॉजी हमारे पास नहीं है।

धरती को एक आम ग्रह मानते हुए इसके जैसे तमाम पिंडों पर जीवन के विकास का जैविक-रासायनिक तर्क अमल में आते देखने वाली इस धारा के समानांतर वैज्ञानिकों का एक दूसरा खेमा हाल के वर्षों में लगातार मजबूत होता गया है। यह खेमा धरती को एक खास-उल-खास पिंड के रूप में देखता है लेकिन ऐसा वह किसी धार्मिक मान्यता के तहत नहीं, बिल्कुल अद्यतन वैज्ञानिक दलीलों के आधार पर करता है।

इस खेमे का मानना है कि पृथ्वी के साथ कई सारे ऐसे संयोग जुड़े हैं जो इसे एक अत्यंत असामान्य अंतरिक्षीय पिंड बनाते हैं। नीहारिकाओं से शुरू करें तो ब्रह्मांड में मौजूद ज्यादातर नीहारिकाएं चपटी तश्तरी नुमा (डिस्क शेप्ड) हैं। ऐसी नीहारिकाओं में तारों की सघनता ज्यादा होती है और अंतरतारकीय विकिरण इतना तीखा होता है कि इनमें जीवनक्षम ग्रहों की कल्पना नहीं की जा सकती। इनकी तुलना में आकाशगंगा जैसी चक्रीय (स्पाइरल) नीहारिकाएं काफी कम हैं।

हमारा सूरज भले ही आकाशगंगा की ओरिअन भुजा के बाहरी छोर पर कम सघन इलाके में अवस्थित हो, लेकिन इस अवस्थिति के जबर्दस्त फायदे हैं। यहां विकिरण काफी कम है। आकाशगंगा के भीतरी इलाकों में विकिरण काफी सघन है, तारों के बीच की दूरी कम है और उनकी रफ्तार बहुत ज्यादा है। कुल मिलाकर हमारी आकाशगंगा में जीवन के लिए ज्यादा उपयुक्त इलाके इसकी भुजाओं के बाहरी छोरों पर ही हैं, जिनमें से एक में हमारा सूरज अवस्थित है।

एक और खास बात हमारे सूरज के साथ जुड़ी है। यह एक द्वितीयक (सेकंडरी) तारा है, यानी यह किसी ज्यादा पुराने तारे के मलबे से बना है, जिसके चलते इसमें धात्विक तत्व ज्यादा हैं। इसके बगैर पृथ्वी, शुक्र और मंगल जैसे अधिक घनत्व वाले ग्रहों की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। ज्यादा चमकीले और आकर्षक नजर आने वाले तारों की उम्र कम होती है- हमारे सूरज का बमुश्किल दसवां या सौवां हिस्सा ही जीकर वे या तो फट पड़ते हैं या सिकुड़कर ब्लैक होल बनने की तरफ बढ़ जाते हैं। वे मूलतः हाइड्रोजन और हीलियम जैसे हल्के अधात्विक तत्वों से बने होते हैं। उनके इर्द-गिर्द ग्रहमंडल यदि बनें भी तो उनमें बृहस्पति जैसे गैसीय ग्रह ही मौजूद होंगे, जिनपर जीवन की मौजूदगी के बारे में सोचा नहीं जा सकता।

द्वितीयक तारों में भी सूरज एक मामले में अनूठा है। लगभग सारे ही द्वितीयक तारे फैलते-सिकुड़ते रहते हैं। ऐसा अगर हमारा सूरज करता तो पृथ्वी का तापमान एक निश्चित अंतराल में कम से कम एक सौ डिग्री सेल्सियस ऊपर-नीचे होता रहता और यहां पहली कोशिका अगर किसी तरह बन भी गई होती तो उससे जीवन का सिलसिला आगे बढ़ने का सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि इतनी दहक ने जीवन के इस बीज को भूनकर रख दिया होता।

इससे आगे बढ़ें तो हमारे सौरमंडल में पृथ्वी और शुक्र दोनों लगभग जुड़वां ग्रह हैं और दोनों का प्रारंभिक रसायनशास्त्र भी लगभग एक-सा रहा है। लेकिन दो ग्रीनहाउस गैसों कार्बन डाई ऑक्साइड और सल्फर डाई ऑक्साइड से बने सघन वायुमंडल की मौजूदगी ने शुक्र को चार सौ डिग्री सेल्सियस पर तपता रहने वाला और गंधक के तेजाब की बारिशों वाला नर्क बनाकर छोड़ दिया है। दूसरी तरफ धरती के लगभग एक चौथाई वजन वाला मंगल पानी को खुद से बांधे रखने में अक्षम होने की वजह से जीवन के बीज धारण नहीं कर सका- यह बात और है कि यहां जीवन के प्रारंभिक रूप या उनके जीवाश्म पा लेने की उम्मीद अंतरिक्ष विज्ञानियों ने अभी तक छोड़ी नहीं है।

विज्ञान की एक अपेक्षाकृत नई शाखा सूचना-सिद्धांत (इन्फॉर्मेशन थ्योरी) का मानना है कि ब्रह्मांड की सभी भौतिक संरचनाएं ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम का अनुसरण करते हुए निरंतर अधिक सूचनावान से कम सूचनावान होने की तरफ बढ़ती हैं। इसका अपवाद केवल कोशिकीय संरचनाएं हैं जो पृथ्वी नाम के इस ग्रह पर पिछले साढ़े तीन अरब वर्षों से लगातार कम सूचनावान से अधिक सूचनावान होने की तरफ बढ़ी हैं।

इस आश्चर्य को इस तथ्य के जरिए ज्यादा बेहतर तरीके से आत्मसात किया जा सकता है कि एक इंसानी कोशिका में किसी जेट विमान, किसी स्पेस शटल, यहां तक कि किसी तारे की तुलना में कहीं ज्यादा सूचनाएं मौजूद हुआ करती हैं। भौतिकशास्त्र की शब्दावली में ऐसी संरचनाओं को डिसिपेटिव स्ट्रक्चर्स का नाम दिया गया है, जिसका कोई ठीकठाक हिंदी अनुवाद मैं अभी तक नहीं सोच पाया हूं।

इस सिद्धांत को मानने वाले लोग जीवन की बुनियादी प्रक्रिया को भौतिकी के दो बुनियादी, सार्वभौम सिद्धांतों के जोड़ के रूप में देखते हैं। भौतिकी की नित नूतन दुनिया में पत्थर की लकीर समझे जाने वाले ये दोनों सिद्धांत हैं ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम और अनिश्चितता का सिद्धांत। उनका कहना है कि कोशिका जैसे डिसिपेटिव स्ट्रक्चर्स ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम में मौजूद अनिश्चितता को प्रतिबिंबित करते हैं। हम जानते हैं कि अनिश्चितता अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर प्रेक्षित होने वाली चीज है- यानी इस सिद्धांत का अनुसरण करें तो आकाशगंगा जैसी एक नीहारिका में एक से ज्यादा जीवनक्षम ग्रह की प्रायिकता (प्रोबेबिलिटी) नहीं बनती।

तो वैज्ञानिक इतिहास के इस मोड़ पर हम क्या करें- धरती को एक आम ग्रह मानकर सेटी बिरादरी में शामिल हो जाएं और किसी बाहरी उन्नत सभ्यता से आने वाले संकेतों का इंतजार करें, या सूचना सिद्धांत वाली बिरादरी में शामिल होकर खुद को बनाने वाली डिसिपेटिव स्ट्रक्चर्स की अद्वितीयता पर इतराएं? अगर आप एक धार्मिक व्यक्ति हैं और ईश्वरीय तत्व को हर बार विज्ञान से आगे ही रखना चाहते हैं तो आपके लिए इन दोनों ही वैचारिक खेमों में पर्याप्त गुंजाइश मौजूद है। लेकिन जहां तक द्रव्य और चेतना के बीच का उलझाव सुलझाने में जुटे इन दोनों वैज्ञानिक खेमों का प्रश्न है, इनका काम किसी ईश्वर के बगैर भी बखूबी चल रहा है।

4 comments:

mamta said...

बहुत अच्छी और ज्ञानवर्धक जानकारी देने का शुक्रिया।

अनिल रघुराज said...

मुझे लगता है कि ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम और अनिश्चितता के सिद्धांत पर अलग से लिखा जाना चाहिए, इस अंदाज में कि सभी खास-ओ-आम इन्हें समझ सकें। अच्छा लिखा है, खूब सारी जानकारियों से भरा लेख...

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी जानकारी दी है।

अनामदास said...

दुनिया गोल
इसीलिए नाम भूगोल
न पढ़े जो खगोल
हमेशा रहे बकलोल

शनि,शुक्र और मंगल
धरती, पहाड़ और जंगल

सब एक किताब में समाए
जो न पढ़े फौरन भाग जाए.

भूगोल के भंगेड़ी मास्टर रामानंद प्रसाद सिंह ने हमारी आठवीं क्लास में ब्लैकबोर्ड पर कुछ ऐसा ही लिखा था. उन्होंने कहा था इसे याद कर लो तो सब समझ में आ जाएगा, उसके बाद उन्होंने बोल-बोलकर किताब पढ़ने का निर्देश दिया और खुद झपकी लेने में मगन हो गए. बात में दम था, अब बुझाया.