सावन का मतलब मोटे तौर पर हमारे लिए था कजरी, कबड्डी और पंचईं, यानी नागपंचमी। इसके आगे-पीछे कुछ चीजें और थीं, जैसे गुड़ुई पीटना और झलुआ झूलना। लेकिन इनका संबंध लड़कों से कहीं ज्यादा लड़कियों से था। नागपंचमी के दिन गुड़ुई सेरवाने के लिए लड़कियां सुबह से ही गुड़िया बनाने में जुट जातीं। रुमाल जितनी बड़ी पीली चूनर पहने सिंदूर से टीकी गई छोटी-छोटी अनगढ़ गुड़ियां, जिन्हें पत्तल में, फिर थाली में रखकर लड़कियां गाती हुई पोखरे तक ले जातीं और वहां कुछ और खटकरम करके पत्तल समेत पानी में बहा देतीं। इसके साथ ही छोटे-छोटे दोनों में आटे के दिए जलाकर पानी में प्रवाहित किए जाते।
ढाक-पलाश की झाड़ियां इस दिन बहुत महत्वपूर्ण हो जातीं। इनके पत्तों से ही पत्तलें और दोने बनते और गोजा कहलाने वाले इनके सीधे-सीधे डंडों को छीलकर लड़के इनपर कलाकारी करते। ये डंडे बाद में पोखरे पर किशोरावस्था का शुरुआती पराक्रम लड़कियों के सामने प्रदर्शित करने के काम आते। गुड़ुई सेरवाने वाली लड़कियां लगभग सारी की सारी रिश्ते में बहन ही होतीं लेकिन ऐसे मौकों पर उनमें कोई ज्यादा तो कोई कम और कोई बहुत-बहुत ही कम बहन लगने लगती।
लड़कियों के गुड़ुई सेरवाने के बाद लड़के अपना-अपना छिला, रंगा, तेल लगाया डंडा लेकर झमाझम पोखरे में कूदते और पीट-पीटकर इन गुड़ियों की धज्जियां उड़ा देते। इस मौके पर अगर बूंदें पड़ रही होतीं तो लड़कों का मजा और बढ़ जाता। वैसे यह बात मेरी समझ में आज तक नहीं आई कि ये गुड़ियां किस चीज के प्रतीक के रूप में पानी में प्रवाहित की जाती थीं और लड़के इन्हें इतनी बेरहम बहादुरी से पीटते क्यों थे।
घरों में मांएं इस दिन दाल भरी पूड़ियां और बखीर बनाती थीं। बखीर यानी थोड़ा सा दूध डालकर या बिना दूध के ही बनी गुड़ की लगभग भात जैसी गाढ़ी खीर। सुबह से ही घर से लेकर बाहर तक जबर्दस्त गहमागहमी। लड़कियां, लड़के, महिलाएं और पुरुष, सभी अपने-अपने ढंग से व्यस्त। दोपहर होते-होते सभी लड़के, अधेड़ और बुजुर्ग गांव के सिवान में पहुंच जाते जहां दो-तीन घंटे जमकर कबड्डी होती। जिनके हाथ-पैर कबड्डी में चलने लायक नहीं होते उनकी जुबान चलती। किनारे खड़े होकर वे या तो धर-धर मार-मार करते या फिर अपने जवानी के दिनों की डींगें हांकते।
कबड्डी का खेल काफी जोखिम भरा होता था क्योंकि खेल के अलावा इसमें पुश्तैनी कसान भी निकाली जाती थी। जैसे मेरे दादा ने एक बार कबड्डी खेलते हुए आपके दादा का कंधा या हंसुली की हड्डी तोड़ दी थी और ठीक यही काम आपके पिताजी जीवन भर की कोशिशों के बाद भी मेरे पिताजी के साथ नहीं कर पाए तो आपकी पूरी कोशिश होगी कि इस बार की पंचईं में कबड्डी के दौरान मेरा कंधा या हंसुली की हड्डी नहीं तो दाहिना पंजा ही हुमचकर तोड़ दें। दोपहर होते-होते किसी न किसी को स्पिरिट मलने या उठाकर डॉक्टर के यहां ले जाने की नौबत आ ही जाती। जिस साल ऐसा नहीं होता उस साल लोगों को पंचईं का रोमांच पूरा नहीं पड़ता।
कबड्डी के बाद शरीर में मोटी-मोटी मिट्टी चिपकाए लोग उड्ढी कूदने और अखाड़ेबाजी करने पहुंचते। ऊंची उड्ढी बनाकर उसपर से लंबी कूद कूदने की प्रैक्टिस हफ्तों से चल रही होती लेकिन कूद का कंपटीशन जब वाकई शुरू होता तो उसका आकर्षण अच्छा कूदने वालों से ज्यादा नमूने किस्म के कुदाक होते। कभी देबी भइया तो कभी बबऊ बाबा अपनी विशाल तोंद हिलाते दूर से दौड़ते हुए कूदने आते और अपने पांव के धक्के से उड्ढी ही धसका देते। फिर लड़कों को भुनभुनाते हुए दुबारा उड्ढी बनानी पड़ती। उसपर दूर से ला-लाकर दूब के चकत्ते रखने होते कि कहीं कोई पराक्रमी उड्ढी को दुबारा न धसका दे।
ऐसे मौकों पर मेरे दादाजी का किस्सा कोई न कोई जरूर उभार देता, जिनका लंबी कूद का रिकॉर्ड गांव में उनकी मौत के कई दशक बाद तक कायम था। कोई इसे बारह तो कोई चौदह हाथ बताता, जो नाप में अट्ठारह से इक्कीस फुट के लगभग दूरी के समतुल्य है। कॉलेज स्तर के कंपटीशनों के लिए यह सामान्य दूरी समझी जाती है लेकिन गांव में एक मरे हुए आदमी का मिथकीकरण इतनी ही दूरी को हमेशा के लिए असाधारण बना चुका था।
कुश्ती के लड़वैये मेरा समय आने तक गांव में ज्यादा नहीं बचे थे। ऊंची जातियों के बीच खानदानी कसान बहुत ज्यादा बढ़ गई थी लिहाजा उनके बीच से लड़ने के लिए कोई अखाड़े में नहीं उतरता था। बाकी जातियों के लोग आदेश और उकसावे पर लड़ने के लिए आते थे और उनके बीच भी चित करने या होने की नौबत शायद ही कभी आती थी। ज्यादातर मामलों में कमजोर पड़ने वाला जवान पेट को मिट्टी से चिपकाकर पड़ जाता था और आखिरकार कुश्ती बराबर छूट जाती थी।
इस समय तक दोपहर हो गई होती थी और सबकी भूख तड़क गई रहती थी। भागकर हम घर आते और खूब दबाकर पूड़ी-बखीर खाते। दो-तीन बजे तक झलुआ पड़ने का नंबर आता। अगर बारिश नहीं हो रही होती तो इस समय तक धुंआई डकार लेते हुए हम झलुए तक पहुंच जाते। गुनीजनों ने मेरे समय तक साइकिल के टायरों का झलुआ डालना सीख लिया था, लेकिन आम तौर पर उबहन के मोटे-मोटे रस्से इस काम में लाए जाते। कोई चौड़ा पटरा या हेंगा किसी बरगद की मोटी डाल पर टांगा जाता। इसपर लड़कियां बैठतीं और कजरी गातीं। लड़कों की ड्यूटी पेंग मारने की होती।
पेंग मारने के लिए एक खास कौशल की जरूरत थी जो मुझमें कभी ज्यादा विकसित नहीं हो पाया। मैं झूले को जमीन से डाल की लगभग तीन चौथाई ऊंचाई तक ही उठा पाता था जबकि सिद्ध लोग इसे बिल्कुल खड़ा कर देते थे। इस कौशल का चरम यह माना जाता था कि झूले पर बैठी लड़कियां बारी-बारी से चीखती और खिलखिलाती हुई आपके हाथ-पैर जोड़ने लगें- 'रोक दा, ए भइया रोक दा, गिर जाइब, घुमटा आवत ह'।
इस चक्कर में कुछ ज्यादा ही कौशलयुक्त लोग इतनी जबर्दस्त पेंग मार देते थे कि झलुआ ही पलट जाता था। ऐसे में दो-चार के हाथ-पैर टूट जाते थे, जिसकी खबर आग की तरह पूरे इलाके में फैल जाती थी। रात में झलुए पर लड़कियों से ज्यादा गांव की नई बहुएं होतीं और इस वक्त पेंग मारने का हक कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को ही प्राप्त होता। यह हक उन्हें कैसे और क्यों मिलता, इसका पता मैं कभी नहीं लगा पाया, अलबत्ता हर पंचईं की अगली सुबह उनके बारे में रसीले किस्से सुनकर उनकी पांत में शामिल होने के बारे में बराबर सोचता था।
सावन में तीज और नागपंचमी के मौके पर गाई जाने वाली कजरियां अब ध्यान में नहीं आतीं। 'झलुआ परै कदम की डरिया झूलैं कृष्ण मुरारी ना' को तुक बिठाने की गरज से 'झूलै कृष्ण मुररिया ना' करके गौनहारियों की गालियां सुनने की बात याद आती है। इसके अलावा जिन कजरियों का सुर पड़ता है वे शायद रेडियो पर सुने गए सरकारी टाइप गाने हैं और उनमें कोई खास दम नहीं है।
सिर्फ एक कजरी ऐसी है जिसे शायद गांव में मेरी पीढ़ी के लोग कभी न भूलें। रामपत चाचा लखनऊ गए और वहां से तबला-हारमोनियम सीखकर लौटे। एक बार होली के दिन लोग चौताल गाने बैठे तो रामपत चाचा को चढ़ाया गया कि इस देहात में आप ही हैं जिन्होंने संगीत की शिक्षा ली है, कुछ तो सुनाएं कि हमारा भी जनम सफल हो। उन्होंने तबले पर कुछ टीमटाम किया और गाया- 'हरे रामा कृष्ण बने हैं मनिहारी, पहिर लिए सारी रे हरी'। फगुआ के मौके पर कजरी की यह तान सुनकर लोग हो-हो करके हंस पड़े और रामपत चाचा ने गांव में गाने की हिम्मत इसके बाद कभी नहीं की।
8 comments:
क्या गोता लगवाया है भाई आपने. हमें तो अपना बचपना याद आ गया. एक बार गांव में दंगल लगा था. तब दंगल कुछ ऐसा फंस गया कि सवर्ण वर्सेस दलित हो गया. अंतिम फैसला था. बदन में पसीने की चमक थी तो एक ओर काला पहाड़ सा बदन था तो दूसरी ओर उससे छोटा हट्टा कट्टा शरीर. दांव पर दांव चल रहे थे. करीब १५ मिनट बाद तक निर्णय नहीं हुआ तभी अचानक एक का लंगोट एक हल्की सी आवाज के साथ फट गया. फिर क्या था अगले ही पल वह चित्त था लेकिन निर्णायक ने फैसला बराबरी का सुनाया. आपकी बदरी में कजरी पढ़ कर यह दृश्य आंखों के सामने घूम सा गया.
बहुत बढ़िया लिखा.
बहुत अच्छा. सावन में किसी ने तो कजरी का नाम लिया. गांव इन्हीं आयोजनों से जीवंत हैं. ईश्वर उनकी जीवंतता बचाए रखे.
वाह भाई अपने भी बीते दिन याद दिला दिये, स्वप्नों में लेजाने के लिए धन्यवाद
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पंचमी, गुडई पीटना, बाग के झूले...सब याद दिया आपने। लेकिन शायद ये सब अब हमारी यादों में ही बसा है। पिछली साल गांव गया था कि तो कहीं झूले नहीं डले थे, कहीं कजरी नहीं गाई जा रही थी। अजीब सा मातमी माहौल था गांव में सावन के महीने में...
चंदु भाई
कहाँ कहाँ ले गये भाई!!
दाल भरी पूड़ियां और बखीर -क्या स्वाद दिलाया.
फिर स्कूल के दिनों में नागपंचमी पर कुश्ती.
आनन्द आ गया!! आभार.
अब तो ये सब नियामत है।
पर आपके लेख से एक बार फिर सावन का असली मजा आ गया ।
चंदू भाई ! आपने तो नोस्टालजिक कर दिया. मुझे तो यह सब भूल ही गया था.
आप ने क्या-क्या याद दिला दिया। कजरी, सावन, इन पर मेरी दो कविताएं हैं पहले संग्रह में । लेकिन अभी गाँव थोड़ा बहुत बदल गये है।
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