सत्रह-अठारह साल की उम्र में गांव छोड़ने के बाद अलग-अलग शहरों में लगभग बराबर वक्त गुजरा- तीन साल आजमगढ़, चार साल इलाहाबाद, दो साल पटना, एक साल दिल्ली, ढाई साल आरा, फिर छह साल दिल्ली और उसके बाद से अबतक गाजियाबाद के एक बनते हुए इलाके में, जो अलग शहर जैसा स्वयं-संपूर्ण चरित्र शायद ही कभी ग्रहण करे। इन सारी जगहों में कुछ-कुछ दोस्त बने, जिनसे मिलने पर आज भी एक अलग दुनिया बनती हुई सी लगती है। क्या इन सारे शहरों में किसी एक का दर्जा मेरे लिए नोडल प्वाइंट जैसा, एक ऐसे बिंदु जैसा है, जहां से होकर जिंदगी के ज्यादातर सूत्र गुजरते हों?
होलटाइमरी के दिनों में इलाहाबाद का दर्जा मेरी नजर में इतना ऊंचा कभी नहीं रहा- न वहां रहते हुए, न उसके बाद। वजह साफ थी। सोच और विचारधारा के मामले में प्रखरता इलाहाबाद की अपनी पहचान है, लेकिन प्रखरता का शाब्दिक अर्थ ही शायद धारदारपने जैसा कुछ होता है। सहज, सरल, संतुलित और कार्यशील किस्म के रिश्ते प्रखरता के परिवेश में जरा कम ही बन पाते हैं। इससे भी बड़ी समस्या होती है लोगों के एक तयशुदा तर्कशील दायरे में महदूद हो जाने की। निरंतर एक-दूसरे की कटाई-छंटाई वाली इस छोटी सी दुनिया से निकलने पर इससे बाहर के लोग हल्के, ओछे और भोथरे मालूम पड़ते हैं और आदमी भागकर अपने उसी दायरे में वापस लौट आता है। किसी कार्यकर्ता के लिए इससे बुरी बात और कोई हो नहीं सकती, लेकिन इसका पता जबतक चलता है तबतक बहुत देर हो चुकी होती है।
जीवन को संपूर्णता में देख पाने में तर्कों से ज्यादा जरूरत संवेदना की पड़ती है- इसका एहसास सबसे ज्यादा आरा में लोगों के बीच काम करते हुए हुआ। एक गुंडे की चाकरी कर रहे आदमी से आप विचारधारा की बहस करके उसे कोई और काम करने को कह सकते हैं लेकिन उसके घर में शाम को खाने के लिए आटा है या नहीं, उसके बच्चे स्कूल जा पा रहे हैं या नहीं, और एक छोटे कस्बे में गुंडे की चाकरी के अलावा करने के लिए काम ही कितने हैं, यह सब समझने में वैचारिक प्रखरता के अलावा कुछ और चीजों की जरूरत पड़ती है। दारू की दुकान पर नौकरी करने वाले एक व्यक्ति को पार्टी की सिटी कमेटी की मीटिंग में बैठा देखकर आश्चर्य होता है लेकिन यह आश्चर्य तब और बढ़ जाता है, जब आपको पता चलता है कि इस व्यक्ति ने जिंदगी में कभी दारू सींक से छूकर भी जीभ पर नहीं रखी। ऐसी ही न जाने कितनी उलटबांसियों का नाम जिंदगी है, इसका अंदाजा इलाहाबाद के सांगठनिक दायरे में रहकर तो नहीं हो सकता था।
पता नहीं कैसे धीरे-धीरे मेरे मन में इलाहाबाद के प्रति एक वितृष्णा घर करती चली गई- यह सिर्फ बहसबाजों का शहर है, लोगों के पास एक-दूसरे की जड़ खोदने के अलावा और कोई काम ही नहीं होता, रचनात्मकता इस शहर की आबोहवा में पहुंचते ही मुरझा जाती है, अंग्रेजों के लंबे आधिपत्य वाले इस शहर को अंग्रेजियत की उतरनें पहनने से कभी फुरसत नहीं मिलेगी, स्नॉबरी इस शहर का स्वभाव है और यहां के क्रांतिकारी भी स्नॉब क्रांतिकारी होते हैं, वगैरह-वगैरह। आज भी पक्के तौर पर कह नहीं सकता कि ऐसे दुराग्रहों के पीछे सच्चाई कितनी है और कितना हाथ अपनी कमजोरियों का है, लेकिन यह तो है कि समय बीतने के साथ ये दुराग्रह कम होते जा रहे हैं और अपनी बुनावट के बहुतेरे तार इलाहाबाद से जुड़ते नजर आ रहे हैं। लग रहा है कि अच्छे-बुरे जैसे भी हम बने, सबसे ज्यादा इस शहर ने ही हमें बनाया।
एक दिन मैं और इरफान बात कर रहे थे कि आइडिया आया- क्यों न इलाहाबाद में सारे पुराने साथियों का एक गेट टुगेदर किया जाए। यह शहर हम सभी के जीवन की तमाम घोषित-अघोषित, ज्ञात-अज्ञात प्रतिज्ञाओं से जुड़ा है, भले ही हम उन्हें निभा पाए हों या न निभा पाए हों। पंद्रह-बीस साल से हमारे रास्ते अलग-अलग हैं। इस बीच हमने दुनिया देखी है। बिल्कुल अलग-अलग जिंदगियां जी हैं। संगठन के वैचारिक मानदंडों पर हममें से कुछ को नायकों का, कुछ को खलनायकों का, कुछ को हमदर्दों का तो कुछ को घृणित अवसरवादी तत्वों का दर्जा मिला हुआ है। क्यों न हम लोग इलाहाबाद में ही तीन-चार दिन साथ रहकर अपने अनुभवों को शेयर करें। हो सके तो इस गेट टुगेदर के नोट्स लिए जाएं, बाद में सब लोग अलग-अलग इसे देखें और कुछ अच्छा बन जाए तो इसे छपाया जाए।
बाद में लगा कि इस काम में भीषण अड़चनें हैं लेकिन मुंबई में प्रमोद, अनिल, विमल और अभय की मुलाकात के बारे में (अजदक- जो ब्लॉगर्स मीट नहीं था) पढ़कर लगा कि टेक्नोलॉजी इस काम को संभव बना सकती है। दिल बाग-बाग है, लेकिन मेरी ख्वाहिश इस बारे में कुछ और ही है। मैं तो ऐसी किसी मुलाकात में अपने साथियों से देश और समाज पर बहस करने के बजाय उनकी जिंदगी के किस्से सुनूंगा- ऐसी बेबाकी से, जैसे वे मुझे बिल्कुल जानते ही न हों, सारा कुछ किसी दीवार को सुना रहे हों। ऐसे, जैसे चेखव की उस कहानी के घोड़े ने पूरी रात अपने साईस की दास्तान सुनी थी।
4 comments:
वाह चन्दू भाई वाह आपने जो कुछ लिखा है उससे तो ये साफ़ है कि अपना प्रियतम शहर इलाहाबाद आज भी हमारे साथ है, देखिये पिछले दिनो जब हम लोग यहां मिले थे अरे मिलते तो रहते ही हैं नयी तकनीकि के जुड़ जाने की वजह से ये मुलाकात भी विशेष लग रही है, मैं भी यही सोंच रहा हूं कि क्या ये सम्भव है कि हम सभी साथी फिर से एक बार मिलें और बीते बीस सालो के अनुभव आपस में बांट सकें.दिली तौर पर मेरी तो ये ख्वाहिश है.जल्दी ही बातचीत आगे बढाई जाय और मिला जाय.साथी एक बात जानते हैं मैं जब भी अनिल, प्रमोद, अभय,इरफ़ान.चन्द्र्भूषन सारे नाम जब भी देखता हूं, इलाहाबाद मेरे बहुत करीब आ जाता है.
आपने जिस इलाहाबाद के बारे में लिखा है, वह इलाहाबाद का सिर्फ एक पक्ष है- तथाकथित बुद्धिजीवियों वाला. वहाँ कुंठा के अलावा दूसरी चीजें मुश्किल से ही दिखती हैं. एक इलाहाबाद इसके अलावा भी है. यह बुद्धिजीवियों वाले ही इलाहाबाद से गुत्थमगुत्था है और फिर भी उससे अलग है. उसके साथ, लेकिन उसके समानांतर पसरा हुआ और साथ ही किसी हद तक उसके भीतर धंसा हुआ भी. वैसे इण्टरनेट पर एलुमिनाई मीट का जो सुझाव आपने रखा है, वह बढिया है.
भाई साहब ये इलाहाबाद के बारे में नहीं बल्कि सब शहरों के बारे में लागू होने वाली बात है ।
पुराने दोस्तों से उनकी जिदगी की कहानियां सुनने की मेरी भी ऐसी इच्छा एक बार हुई थी। लेकिन उनकी व्यस्तताएं देखकर कभी कहने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया। फिर ये भी लगा कि हम आपस में जितने स्वीकार्य पहले थे, क्या अब भी वैसे ही रह पाए हैं?
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