Friday, July 6, 2007

कविता जैसा गणित का मजा

दो ब्रिटिश गणितज्ञों हॉल और एक कोई अन्य सज्जन द्वारा पचास-साठ के दशक में लिखी एक किताब है मैथमेटिकल रिक्रिएशंस। पिछले साल उसे लाया था। दिलचस्पी के दो-एक अध्याय पढ़े, मसलन मैजिकल स्क्वेयर्स के बारे में। बीच में एकाध बार और पलटकर देखा। पैटर्न समझकर दो-चार सवाल किए। फिर किताब आलमारी में बंद हुई तो बंद ही रह गई। प्रमोद भाई अपने ब्लॉग पर सदाबंद किताबों की इस बीमारी के बारे में काफी रो-गा चुके हैं लिहाजा बात दोहराने का कोई फायदा नहीं।

कल फिर उसे पलट रहा था तो असाधारण गणितीय प्रतिभाओं- मैथमेटिकल प्रोडिजीज- पर केंद्रित किताब के एक अध्याय पर नजर पड़ गई। इनमें पहला ही नाम सत्रहवीं सदी में डर्बीशायर (इंग्लैंड) के एक खेत मजदूर का था, जिसे सामान्य गणित के बड़े-बड़े सवाल अद्भुत तरीके से हल करने में महारत हासिल थी। मसलन, एक मील लंबे-चौड़े-ऊंचे बक्से में कितने बाल समाएंगे- किस्म के। इस प्रतिभा का अपने जीवन में उसे कोई लाभ नहीं मिला, सिवाय चमत्कार दिखाने के एवज में अमीर लोगों द्वारा फेंके गए दो-चार सिक्कों के।

आम लोगों को छोड़ दें तो गणित के खास अपने दायरे में भी इन असाधारण मेधाओं को ज्यादा इज्जत नहीं दी जाती, क्योंकि गणितज्ञ अपने शास्त्र को बड़ी-बड़ी गणनाओं से काफी ऊपर की चीज मानते हैं। अभी की दुनिया के सबसे बड़े गणितज्ञों में शुमार होने वाले रोजर पेनरोज ने एक किताब लिखी है- एंपरर्स न्यू माइंड। करीब बीस साल पहले (1989 में) आई इस किताब में उन्होंने गणितीय प्रस्थापनाओं के जरिए ही यह साबित किया है कि कंप्यूटर चाहे कितने भी अच्छे क्यों न हो जाएं, इंसानी दिमाग का मुकाबला वे कर ही नहीं सकते। वह इसलिए कि किसी न किसी प्रमेय- अलगोरिथम- पर चलना ही कंप्यूटर की बाध्यता है, और ऐसा कोई प्रमेय संभव ही नहीं है, जिसका अपवाद या जिसकी वैकल्पिक प्रस्थापना न खोजी जा सके।

गणित दरअसल गणनाओं का खेल नहीं, अपरिभाषित समस्याओं को ठोस सवालों के दायरे में ढालने और इस तरह पैदा हुए कठिनतम सवालों के सरलतम हल खोजने के शास्त्र का नाम है। इसकी अपनी हजारों शाखाएं-उपशाखाएं हैं और मजे की बात यह है कि इनमें से कोई भी न तो ठहरी हुई है, न पुराने दायरों में कदमताल कर रही है। यहां तक कि दो दूना चार जैसी जो बुनियादी अंकगणितीय बातें हम बाबा आदम के जमाने से पढ़ते चले आ रहे हैं, उनका शास्त्र भी लगातार विकसित हो रहा है और इसमें अद्भुत दार्शनिक प्रस्थापनाएं सामने आ रही हैं। इनमें से कुछ के बारे में भविष्य में चर्चा करना अच्छा लगेगा, बशर्ते किसी की रुचि इस दायरे में हो।

गणित में मेरा अपना दखल मौज-मजे भर का है, क्योंकि यह इतना समर्पण मांगता है कि एक बार इसमें घुसने के बाद फिर बाहर निकलना मुश्किल से ही हो पाता है। 1984 में जब इलाहाबाद शहर में मेरे चरण पड़े थे तो मेरी घरघुस्सू पढ़ाई दो ही विषयों में केंद्रित थी- एक तो गणित और दूसरी अधिभौतिकी (मेटाफिजिक्स- दर्शनशास्त्र की एक शाखा)। जाहिर है, इसका उद्देश्य ज्ञानार्जन नहीं, आईएएस का इम्तहान पास करना था। अजीब हालत थी। ये दोनों मेरी रुचि के विषय थे लेकिन जिस मकसद से मैं इन्हें पढ़ रहा था वह, यानी अफसरी मेरे लिए एक नितांत कन्फ्यूज्ड किस्म की चीज थी। इस देश में अफसर बनना कौन नहीं चाहता। लेकिन उसके लिए आपके पास एक माहौल होना चाहिए, पैसे होने चाहिए, उस तरह की किलर इंस्टिंक्ट- यानी जो भी राह में रोड़ा बने, उसका किस्सा खत्म कर देने वाली जेहनियत- होनी चाहिए। इसमें से कुछ भी तो मेरे पास नहीं था।

इसी घुन्नी दुविधा में मेरी मुलाकात अरुण पांडेय से हुई, जो वाम छात्र संगठन पीएसओ के ऊंचे लेवल के कार्यकर्ता थे और दर्शनशास्त्र से एमए कर रहे थे। उन्होंने चुग्गे के रूप में मुझसे थोड़ी-बहुत पढ़ाई-लिखाई की बात की तो मैंने उन्हें गणित के चरमानंद के बारे में कनविंस करने का प्रयास किया। लेकिन अरुण ने मुझे अपनी एक दलील से धराशायी कर दिया कि इससे मिलता-जुलता चरमानंद लोगों को दारू पीकर या ड्रग्स लेकर भी हासिल हो जाता है, और अगर आपने अपना जीवन बिना कोई सामाजिक भूमिका निभाए, सिर्फ गणित पढ़ते गुजार दिया तो आपमें और किसी ड्रग एडिक्ट में क्या अंतर है?

अरुण की दलील का खोखलापन तब भी मेरे सामने स्पष्ट था, आज और भी ज्यादा स्पष्ट है। लेकिन चुनाव यदि व्यक्तिगत आनंद और सामाजिक भूमिका में से एक का करने की मजबूरी ही हो जाए तो मेरा वोट दूसरे वाले विकल्प को जाएगा। 1984 में ऐसा ही हुआ और मैं बन गया होलटाइमर। यह बात और है कि गणित से मेरी जो लौ लगी थी, वह होलटाइमरी के दौरान भी लगी रही।

कहीं कोई बच्चा बैठकर गणित पढ़ रहा हो तो मैं टांग फंसाने से नहीं चूकता था। यह काम मैं अपने मजे के लिए करता था लेकिन बच्चों को भी इसमें मजा आता था। कभी-कभी इस दौरान उनकी थोड़ी मदद भी हो जाती थी। बाद में घर-गिरस्ती शुरू हुई और होलटाइमरी धीरे-धीरे करके बंद हो गई तो मैंने सोचा अब सलीके से गणित का कुछ किया जाए। नहीं हो पाता, पता नहीं कभी हो भी पाएगा या नहीं। लेकिन पत्रकारिता के पिछले दस-एक वर्षों में गणित में हो रहे नवीनतम कामकाज पर कोई एक सौ लेख तो मैंने लिखे ही होंगे। हिंदी में गणित के लिए पॉपुलर दायरे में थोड़ी सी जगह बनाने के अपने इस प्रयास से इस मामले में मेरा अपराधबोध थोड़ा कम होता है।

अपनी फितरत में गणित और कविता, दोनों मुझे एक सी लगती हैं, हालांकि मेरे मित्रों को इसमें दूर की कौड़ी नजर आती है। अमूर्तन दोनों की ही बुनियाद है और तकनीक के स्तर पर दोनों ही कठिन समस्याओं से निपटने के सरल उपाय खोजती हैं। लेकिन जहां तक मामला दिल के नजदीक इन्हें महसूस करने का है, तो इसका कोई तर्क खोजना मुश्किल है। ये या तो आपके करीब आती हैं, या नहीं आतीं- आप कितना भी जतन कर लें, कितने भी पुरस्कार जुटा लें, महाकवि या राजगणितज्ञ होने का बाकायदा मोहर लगा सर्टीफिकेट निकलवा लाएं, लेकिन नहीं आतीं तो नहीं आतीं।

बकौल यूक्लिड- जहांपनाह, ज्यामिति की कोई राजसी राह नहीं होती (सायर, देयर इज नो रॉयल पाथ टु ज्योमेट्री)। सिर्फ एक तरंग होती है और उसपर निकल पड़ने की जिद, फिर वह सही हो, गलत हो, अच्छी हो, बुरी हो, कुछ भी हो। उसपर चलते जाना होता है, भले ही इस राह में आपका कोई साथी हो, न हो। अफसोस, यही अपने से नहीं हो पाया- न गणित में, न कविता में, न ही किसी और चीज में।

4 comments:

Sagar Chand Nahar said...

सच कहते हैं आप, कभी मुझे भी गणित का ऐसा ही नशा लगा था। मैं कई बार अपने दोस्तों को मजाक में कहता हूँ किसी से दुश्मनी निकालनी हो तो उसे गणित का चस्का लगा दो।
आप जिस गणितज्ञ की बात कर रहे हैं वो शायद
इनमेंसे कोई एक हो।

Vikram Pratap Singh said...

janab ganit se bacpan se hi darta raha hoon ......par aapki ganit ke
guna bhaag ka aandaj nirala hai...........

ALOK PURANIK said...

गणित वाले आपके लेख कहां हैं जी। गणित खंड बनाकर ब्लाग पर डालिये या बताइए कि कहां हैं। अब के बच्चों को गणित के आतंक से मुक्त कराने के लिए अगर कुछ हो पाये, तो यह बहुत महत्वपूर्ण समाज सेवा है। इधर मलेशिया का एक गणित सिस्टम अलोहा- एडवांस्ट लर्निंग आफ अर्थमेटिक खासा पापुलर हो रहा है। इसमें बिना कैलकुलेटर, कागज के सिर्फ और सिर्फ दिमाग और उंगलियों के जरिये ही बड़े-बड़े गुणाभाग करना सिखाया जाता है। कुछ इसकी उपियोगिता पर प्रकाश डालें, अगर संभव हो तो।
पहलू के इस पहलू के बारे में जानकर अच्छा लगा।

चंद्रभूषण said...

नाहर जी आपने सही फरमाया, मेरे लेख में खेत मजदूर पृष्ठभूमि के जिस गणितीय अजूबे का जिक्र आया है, वे जेडेडिया बक्स्टर थे। और आज मैंने मैथमेटिकल रिक्रिएशंस की प्रकाशन तिथि देखी तो दंग रह गया। यह किताब हॉल की नहीं, हाउसबॉल की लिखी हुई है और यह पहली बार सन् 1802 में प्रकाशित हुई थी। कवर पर दूसरा नाम 1956 में इसका पुनर्संपादन और नवीकरण करने वाले गणितज्ञ का था, जिन्हें ब्लॉग लिखने की झोंक मैंने गलती से किताब का सह-लेखक बता दिया था।
आलोक जी, गणित और विज्ञान पर अपने लेखों को तरतीब देने के बारे में सोच रहा हूं क्योंकि इन्हें जुटाना आगे लगातार मुश्किल होता जाएगा। लेकिन क्या करूं, हमेशा क्या-क्या करना है, सोचकर ही हांफ जाता हूं। क्या इन्हें किताब की शक्ल में छापने के लिए कोई प्रकाशक सेट किया जा सकता है? कुछ इन्सेंटिव हो तो शायद काम कुछ आसान हो जाए...वैसे नहीं हुआ तो भी कभी न कभी तो यह करना ही है।
प्यारे भाई विक्रम जी, गणित वाकई एक मजेदार विषय है, लेकिन छुटपन में इसका मजा जरा मुश्किल से ही आ पाता है। आपसे एक गुजारिश है। अगर आपकी गति अबतक गणित में बिल्कुल नहीं रही, लेकिन किसी बच्चे में इसके प्रति रुचि जगाने की ख्वाहिश रखते हैं तो भले ही आप उसको दो में दो जोड़ना सिखा रहे हों, लेकिन ऐसा करने से पहले अच्छे से उसकी किताब जरूर पढ़ें। आजकल बच्चों के कोर्स में भी गणित की बहुत अच्छी किताबें आने लगी हैं, जो पहले बिल्कुल नहीं था।