Monday, June 18, 2007

मैं तुमसे लड़ना चाहता हूं

प्लास्टिक के सस्ते मुखौटे सा
गिजगिजा चेहरा
आंखों में सीझती थकान
बातें बिखरी तुम्हारी
हर्फों तक टूटे अल्फाज़
तुमसे मिलकर दिन गुजरा मेरा
सदियों सा आज

इस मरी हुई धज में
मेरे सामने तुम आए क्यों
उठो खलनायक, मेरा सामना करो
मैं तुमसे लड़ना चाहता हूं।

इतनी नफरत मैंने तुमसे की है
जितना किया नहीं कभी किसी से प्यार
इस ककड़ाई शक्ल में लौटे
ओ मेरे रक़ीब
तुम्हीं तो हो
मेरे पागलपन के आखिरी गवाह

मिले हो इतने सालों बाद
वह भी इस हाल में
कहो, तुम्हारा क्या करूं।

क्यों
आखिर क्यों मैंने तुमसे इतनी नफरत की
कुछ याद नहीं
जो था इसकी वजह-
एक दिन कहां गया कुछ याद नहीं
आकाशगंगा में खिला वह नीलकमल
रहस्य था, रहस्य ही रहा मेरे लिए

दिखते रहे मुझे तो सिर्फ तुम
सामने खड़ी अभेद्य, अंतहीन दीवार
जिसे लांघना भी मेरे लिए नामुमकिन था।

फिर देखा एक दिन मैंने
तुम्हें दूर जाते हुए
वैसे ही अंतहीन, अभेद्य, कद्दावर-
जाते हुए मुझसे, उससे, सबसे दूर

और फिर देखा खुद को
धीरे-धीरे खोते हुए उस धुंध में
जहां से कभी कोई वापसी नहीं होती।

ऐसे ही चुपचाप चलता है
समय का भीषण चक्रवात
दिलों को सुस्त, कदों को समतल करता हुआ
चेहरों पर चढ़ाता प्लास्टिक के मुखौटे
जेहन पर दागता ऐसे-ऐसे घाव
जो न कभी भरते हैं
न कभी दिखते हैं

धुंध भरे आईनों में अपना चेहरा देख-देखकर
अब मैं थक चुका हूं
इतने साल से संजोकर रखी
एक चमकती हुई नफरत ही थी
खुद को कभी साफ-साफ देख पाने की
मेरी अकेली उम्मीद-
तुम दिखे आज तो वह भी जाती रही।

नहीं, कह दो कि यह कोई और है
तुम ऐसे नहीं दिख सकते-
इतने छोटे और असहाय
उठो, मेरे सपनों के खलनायक
उठो और मेरा सामना करो

मेरे पागल प्यार की आखिरी निशानी-
मौत से पहले एक बार
मैं तुमसे लड़ना चाहता हूं।

5 comments:

Satyendra Prasad Srivastava said...

बहुत ही अच्छी कविता। बिना लड़े तो जिंदगी भी नहीं है। इसलिए अगर एक बार भी लड़ने की ख्वाहिश है तो बड़ी बात है।

Mohinder56 said...

आदमी दुनिया से लड सकता है और जीत भी सकता है मगर जब खुद से लडता है तो उसकी हार ही हार है चाहे वो जीत जाये.

azdak said...

मन के तार बहुत लड़े नहीं.. वह रंग बना नहीं.. ख़ैर, अच्‍छे-अच्‍छे के साथ यह भी होता है..
एक लिटिल-सा कारज करिएगा, हमरे इंडियारोड एट जीमेलडॉटकॉम पर ज़रा अपना सेल नंबर चढ़ा दीजिएगा..

अभय तिवारी said...

चंदू भाई.. आपके दुश्मन को बहुत पह्चान न सका पर फिर भी बाकी संदर्भ बहुत पहचाना अपना सा लगा.. और उन गुत्थियों को आपने शब्द दिये जो आईनों में देखकर आप टाल जाते हैं..अच्छी कविता..

रिपुदमन पचौरी said...

अरे वाह ! बहुत अच्छे !!