दूर देस में बहुत दूर
वह सुंदर घर था
पैसा था, पैसे से आई चीजें थीं
थे जीवन के सारे उजियारे सरंजाम
फिर वहीं कहीं कुछ कौंधा
अजब बिजूखा सा
खाली घर में
कोई खुद से
खुद-बुद खुद-बुद बोल रहा था
आईने में पीठ एक थरथरा रही थी
फिर जैसे युगों-युगों तक
ख़ला में गूंजती हुई
खुद तक लौटी हो खुद की आवाज
तनहाई के घटाटोप में
मैंने उसको
सचमुच बातें करते देखा
कुछ इंचों के चैटरूम में
लिखावट की सतरों बीच
उभर रहा था
बेचेहरा बेनाम
कोई चारासाज़..कोई ग़मगुसार..
सुख सागर में संचित दुख
कहीं कोई था जो पढ़ रहा था
चुप-चुप रो रही थी मीरा
दुःख उसका मेरे सिर चढ़ रहा था
ठीक इसी वक्त मेरे चौगिर्द
बननी शुरू हुई एक और दुनिया
..और सुबह..और शाम
..और पेड़..और पत्ते
..और पंछी..और ही उनकी चहक
देखा मैंने चौंककर
वही घर वही दफ्तर
वही चेहरे वही रिश्ते
वही दर्पन वही मन
बीत गया पल में कैसे
वही-वही पन?
होली का दिन था
चढ़ा था सुबह से ही
जाबड़ नशा भांग का
मगन थे लोग
त्योहार के रंग में
..सबके बीच अकेला
मगर मैं रो रहा था
जाने कितने मोड़ मुड़कर
खत्म हुई कहानी
बीत गई जाने कब
परदेसी फिल्म
फंसा रहा मगर मैं उसी दुनिया में
दूर-दूर जिसका
कहीं पता भी नहीं था
8 comments:
बहुत भावप्रद लिखा है चन्द्रभूषण जी
Koi aur bhi to kuchh bolo, chahe gaali hi do! Bhale logon thak gaya, pak gaya tumhari raah dekhte..
बहुत अच्छा लिखा है। लिखते रहिए।
देखना चैट रूम में बाढ ना आ जाए; नाव है ना?
कल्पनाओं की उड़ान भरती आप की कविता बहुत सुन्दर बन पड़ी है।
खुद तक लौटी हो खुद की आवाज
तनहाई के घटाटोप में
मैंने उसको
सचमुच बातें करते देखा
राह देखते देखते थक मत जाइये चन्दू भाई.. जा जा कर घेर घेर कर लाइये लोगों को.. यही तरीका बताया है ब्लॉग जगत के विद्वजनों ने.. टिप्पणी करने से टिप्पणी मिलती है..
आप बड़े कवि हैं चन्दू भाई..पर हिन्दी की दुनिया जान पहचानी आधारों पर चलती है.. और अब ब्लॉग भी वैसे ही चलना चाहता है.. क्या करें.. ?
कहने का ढंग बहुत असरकारक है ।
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना है आप की. पहली बार आप के ब्लाग पर आया हूँ लिखते रहिये हम पुन: पुन: आयेँगे आप की रचनाओँ का रसास्वादन करने के लिये
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