Friday, May 11, 2007

माया और मायाजाल

लगातार शीर्षकों की दरिद्रता से जूझ रहे अखबारों और टीवी चैनलों को मायावती से संदर्भित किसी भी राजनीतिक हलचल का शीर्षक देने में ज्यादा समय नहीं लगता। वे उनके नाम का आधा हिस्सा पकड़ लेते हैं और उससे कोई न कोई शीर्षक निकाल लेते हैं। दुकान-दौरी चलाने के जुगाड़ के रूप में इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन इससे एक हकीकत पर पर्दा पड़ जाता है, जो शायद कोई और शीर्षक लगाए जाने की हालत में कुछ कम पड़ता। हकीकत यह है कि देश में फिलहाल अगर कोई मायाजाल (अंग्रेजी फिल्म 'मैट्रिक्स' के नाम का हिंदी तर्जुमा या फिर इंद्रजाल कॉमिक्स के नजदीक पड़ने वाली किसी जादुई चीज का नाम) काम कर रहा है तो वह खुद मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है। यहां मुद्रास्फीति घटाने के लिए उठाए गए मनमोहन सिंह सरकार के एक-दो कमजोर और दिखावटी कदमों के जवाब में अग्रणी अंग्रेजी अखबारों में ग्रीक ट्रेजेडी नुमा आर्थिक विश्लेषण छपते हैं- 'अफसोस, यहां सब के सब राजनेता हैं, सुधारक कोई नहीं है।'
उत्तर प्रदेश में मायावती की धक्कामार जीत में किसी किस्म का मायाजाल देखने वाले केवल अपनी भाषागत मूर्खता का परिचय नहीं दे रहे हैं। हकीकत में वे उस असली मायाजाल को धुंधला करने और उसकी शिनाख्त न होने देने की धूर्तता भी कर रहे हैं जो अपनी भागती हुई छवियों और चुस्त फिकरेबाजियों के जरिए देश की जमीन पर घटित होनेवाली सामीजिक परिघटनाओं से देश के लोगों को वाकिफ ही नहीं होने दे रहा है।
कांशीराम ने जब मायावती को उत्तर प्रदेश का जिम्मा देकर इस राज्य को अपनी मुख्य प्रयोग स्थली के रूप में विकसित करने का फैसला किया था तो इसके पीछे मुख्य वजह इस राज्य की घनघोर ब्राह्मण-ठाकुर वर्चस्व वाली राजनीति ही थी। यह मामला सिर्फ मुख्यमंत्री बनाने में जारी म्यूजिकल चेयर के खेल तक ही सीमित नहीं था। जमीन पर इसकी कितनी घनघोर प्रतिक्रिया थी, इसका अंदाजा मुझे पहली बार १९८७ में इलाहाबाद के सबसे पिछड़े ब्लॉक कोरांव में लगा, जहां कुछ समय के लिए मैं किसी रैली की तैयारी के सिलसिले में गया था। यही वह पहला मौका था जब मैंने बहुजन समाज पार्टी के भाईचारा बनाओ अभियान के बारे में सुना। ठाकुर वर्चस्व, दलित-आदिवासी बहुलता और कुर्मी बिरादरी की मजबूत उपस्थिति वाले उस ब्लॉक में जमीनी स्तर पर एक क्रांति सी घटित हुई थी, जिसकी चर्चा हमारे क्षीण से दलित जनाधार में जोरों पर थी। एक दबंग कुर्मी परिवार ने एक स्थानीय दलित बसपा कार्यकर्ता को अपने घर की रसोई में खाना खिलाया था। बदले में इलाके के दलितों ने उस कुर्मी परिवार के मुखिया को बहुजन समाज के नेता के रूप में स्वीकार कर लिया था।
कांशीराम के प्रयोग में लंबे समय तक दलितों के बाद शीर्ष सहयोगी का स्थान कुर्मियों को मिला रहा लेकिन कुर्मी महत्वाकांक्षा इस गठबंधन के आड़े आ गई और ९० दशक के मध्य में यह गठबंधन टूट गया। हर राज्य में सदा से उपेक्षित अति पिछड़ी जातियां बसपा की सहयोगी नहीं, उसकी भीतरी ताकत बनती आई हैं। लेकिन बसपा जैसी पार्टी कभी ब्राह्मणों को अपना मुख्य सहयोगी बना लेगी, इस बारे में देश की दोनों ब्राहमण वर्चस्व वाली पार्टियों कांग्रेस और भाजपा ने कभी सोचा भी नहीं था।
देश के स्वनामधन्य राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषक कमेरी जातियों को न समझ पाएं, यह बात समझ में आती है लेकिन वे अपनी ही बिरादरी के जमीनी रुझानों को न समझ पाएं तो उन्हें अपने लिए कोई और धंधा सोच लेना चाहिए। मायाजाल यही है जो लोगों के दिमाग को मॉल-मल्टीप्लेक्स से आगे की दुनिया की झलक ही नहीं मिलने देता। हकीकत यह है कि शहरों में जाकर ऊंची नौकरियां न पकड़ पाए ऊंची जाति के लोगों की हताशा भी फिलहाल दलितों की हताशा की ही जोड़ीदार हो गई है। बड़ी पूंजी के टपोरियों की भूमिका निभा रही कथित राष्ट्रीय पार्टियों को जमीनी होने के नाम पर इनको रिजर्वेशन दे देने, उनको कोई और झुनझुना पकड़ा देने जैसे टोटके ही दिखाई देते हैं। इनका कान उमेठकर कोई इनसे कुछ भी करा सकता है। इस बार यूपी के चनाव नतीजों से इनका इत्मानान थोड़ा टूटेगा। राहुल गांधी दिल्ली से जाकर झरोखा दर्शन देकर लोगों का वोट बटोर लेने की उमीद पाल लेते हैं और मीडिया मायावती का कई गुना कवरेज उनके मूर्खतापूर्ण भाषणों को देता है।
तमाम तरह के विभ्रमों और वंचनाओं की शिकार यूपी की जनता को अब इतनी तमीज तो आ ही गई है कि वह अब सिर्फ शक्ल देखर और हवाई नारों की रौ में बहकर किसी को वोट नहीं देती। वह नौ नकद न तेरह उधार में यकीन रखने लगी है। आप उसे राज दे देंगे, इससे ज्यादा उसकी मांग अभी और यहीं कुछ दे देने की हो गई है। यह बात छद्म समाजवाद, छद्म हिंदुत्व और छद्म धर्मनिरपेक्षता के नारों की हवा निकल जाने के बाद मायावती को भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए। अन्यथा उल्टे शंकु की आकार वाले जिस आसन पर बैठकर वे पांच साल राज करने की उम्मीद बांधे हुए हैं, उसे पलटकर सूली बनते शायद देर न लगे।

2 comments:

azdak said...

फर्स्‍ट किलास लिखे हो! अपने पेशे की लाज रख ली!.. कोई बसपा का कार्यकर्ता इसका ज़ेरोक्‍स निकालकर बहन जी के टेबल पे टांक आए!

अभय तिवारी said...

थोड़ा देर से पढ़ा.. जनता के मानस को बढि़या पकड़ा आपने..
चिट्ठे की सज्जा भी अच्छी हुई है.. लगे रहिये..