Thursday, May 10, 2007

जांते पर सीता : अंतर्यात्रा

८ मई को मैंने अवधी-भोजपुरी इलाकों में जांता चलाते (हाथ से चक्की चलाते हुए गेहूं की पिसाई करते) वक्त औरतों द्वारा गाए जाने वाले एक गीत की पोस्ट चढ़ाई थी। भाई बोधिसत्व ने इसकी कुछ अधूरी पंक्तियों को पूरा करने और गीत का प्रामाणिक पाठ पोस्ट करने का वादा किया था, जो अभी तक वादा ही है। खैर, यह काम बाद में पूरा होता रहेगा, लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ (जितना मैं समझता हूं) यहां प्रस्तुत है। सभी मित्रों से आग्रह है कि अर्थ से पहले इस संदर्भ में मेरा एक छोटा सा भाषण सुनने का कष्ट करें।
नर्मदा घाटी की गुफाओं में मिले प्रागैतिहासिक रेखांकनों के वानस्पतिक रंगों की कार्बन डेटिंग से पता चला है कि ये एक लाख साल से ज्यादा पुराने हैं। भौगोलिक रूप इसके ठीक उत्तर में और इससे लगभग सटे हुए उत्तर प्रदेश के विंध्य क्षेत्र में पड़ने वाली चुनार की गुफाओं के चित्र भी दस से पचीस हजार साल तक पुराने बताए जाते हैं। पाषाण काल और उससे भी पहले की ये मानव जातियां सिंधु घाटी की सभ्यता से कहीं ज्यादा पुरानी थीं लेकिन एक अलग सभ्यता के रूप में इनकी शिनाख्त सिर्फ इसलिए नहीं की जा सकी क्योंकि सभ्यता की बुनियाद समझे जाने वाले 'स्थापत्य' में इनकी कोई गति नहीं थी। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश में पड़ने वाले एक बहुत बड़े दायरे में फैले अवधी-भोजपुरी क्षेत्र की भौगोलिक अवस्थिति इस प्रागैतिहासिक सभ्यता (किंवा असभ्यता) के काफी करीब है। एक सामान्य तर्क से हम इस निष्कर्ष तक पहुंच सकते हैं कि आग के आविष्कार से पहले, यानी सभ्यता-पूर्व स्थिति में मनुष्य के लिए अपेक्षाकृत कम घने जंगलों वाले पठारी या बंजर रेगिस्तानी इलाकों में रहना कहीं ज्यादा मुफीद और सुरक्षित रहा होगा। अभी का उपजाऊ भोजपुरी-अवधी इलाका तब घने जंगलों और हिंसक जंतुओं से भरा हुआ होगा। अफ्रीका के जिन इलाकों में चिंपांजी से मनुष्य का उद्विकास चिह्नित किया जाता रहा है, वे भी कम उपजाऊ, बंजर और अर्ध रेगिस्तानी इलाके ही हैं।
नर्मदा घाटी और विंध्य क्षेत्र के कम उर्वर और विरल वनों वाले इलाकों से घने जंगलों वाली गंगा घाटी में मनुष्य की क्रमिक यात्रा अपने साथ पत्थर के बेहतर औजार, आग जलाने और उसका साज-संभार करने की बेहतर तकनीकें और साथ में मानव-जाति का पहला श्रम विभाजन स्त्री-पुरुष विभेद लिए हुए रही है। शायद यही वजह है कि इस क्षेत्र से मानव जाति के एक सबसे बड़े अनैतिहासिक काव्य-नायक का उदय हुआ, जिससे हम लगाव रखें या घृणा करें लेकिन घूम-फिर कर बातें उस तक पहुंचती ही हैं। मैं यहां राम की बात कर रहा हूं, जिनकी कथा इंडोनेशिया और थाईलैंड से लेकर श्रीलंका तक और हिंदू मिथक काव्य ग्रंथों के अलावा जैन और बौद्ध मिथकशास्त्र में ही नहीं, बहुत ज्यादा बदले हुए रूपों में लोकगीतों और लोककथाओं में भी उपलब्ध है। इन सारी कथाओं में राम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी सीता की कथा भी आती है। हर जगह राम और सीता एक युग्म के रूप में आते हैं, हालांकि हर जगह उनके बीच का रिश्ता पति और पत्नी का नहीं है। इससे ऐसा लगता है कि इस कथा का उदय किसी ऐसे समाज में हुआ है, जिसमें स्त्री और पुरुष के रिश्ते रूढ़ नहीं हुए हैं और उन्हें पति-पत्नी, भाई-बहन, देवर-भाभी आदि का नाम देने की प्रक्रिया अभी जारी ही है। जिस तरह किसी भी नई चीज के साथ कोई अर्थ जोड़ने की शुरुआत में कुछ ज्यादा ही जोर देने की लत देखी जाती है, उसी तरह हम नई-नई मर्यादाओं के इस दौर में एक मर्यादा पुरुषोत्तम भी उदित होते देखते हैं, लेकिन जिस स्त्री की देह और आत्मा पर मर्यादा की ये सुनहरी लकीरें खींची जा रही हैं, वह इनकी हकीकत से भी वाकिफ है। संभवतः प्रागैतिहास और इतिहास की इसी संधि-वेला में पत्थर और आग से जुड़े दो औजार जांता और चूल्हा ईजाद किए गए और कभी खुद से अपना शिकार जुटाने वाली औरत को इनका जिम्मा सौंप कर उसे मर्यादा की चहारदीवारी में बांध दिया गया। मर्यादा का रिश्ता चूल्हे और जांते के साथ कितना गहरा है, इसका पता हमें इस गीत से चलता है, जिसके केंद्र में सीता के हृदय की जगह धुक-धुक जलता हुआ एक चूल्हा है और जिसे मेरी मां और चाची मेरे बचपन में जांता पीसते हुए गाते-गाते सीता के साथ एकाकार हो जाया करती थीं। लेकिन मेरी समझ में यह बात आज तक नहीं आई कि इस गीत के सीता और राम का उस रामकथा के साथ क्या साझा है, जिसे हम वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास तक के रामायणों में सुनते आ रहे हैं? बहरहाल, गीत का भोजपुरी से खड़ी बोली हिंदी में रूपांतर कुछ इस प्रकार है-
१- राम के साथ मैं अपने ओसारे में सोई हुई थी। पता नहीं कब राम उठे और निकल भागे, मुझे कुछ पता भी नहीं लगने दिया।
२- बारह बरस पर राम घर आए और आंगन में आकर खड़े हो गए। (सीता उन्हें देख कर अनदेखा करती हुई रसोई में चली गईं।- गीत के मूल शब्द स्मृति में नहीं हैं।)
३- मचिया पर बैठी कौशल्या रानी मन ही मन बिसूर रही हैं- आखिर कौन मेरी सीता को मनाएगा और राम को वापस बुलाकर लाएगा।
४- बाहर से लक्ष्मण देवर आते हैं और माता से अर्ज करते हैं- मां मैं तुम्हारी सीता को मनाऊंगा और राम को बुलाकर लाऊंगा।
५- उठो-उठो भाभी सिंगार करो। दुख के दिन बीत गए। भाभी अब भी तुम इतनी उदास क्यों हो कि आंखों से आंसू गिरते ही चले जा रहे हैं।
६- बारह बबूल की लकड़ियां (क्या यह उपमा अलगाव के बारह वर्षों के लिए है?) धुकुर-धुकुर जल रही हैं। ए बाबू, उनके धुएं से आंखें पिरा रही हैं और आंखों से आंसू निकल रहे हैं।
७- (एक पद स्मृति में नहीं)
८- आंगन में कांटे और कुश उग गए हैं और एक पलाश का पेड़ तक खड़ा हो गया है। ए बाबू, सीढ़ियों पर काई लग गई है, चढ़ने में बड़ी तकलीफ होगी। (मन से शरीर तक इस चित्र की कितनी व्याख्याएं हैं?)
९- आंगन के कांटे और कुश सब कटवा दूंगा और पलाश का पेड़ भी। भाभी, सीढ़ियों पर मैं चंदन छिड़कवा दूंगा और उनपर चढ़ने में तुम्हें सुख होगा।
१०- एक पैर चौखट पर रखा और दूसरा पलंग पर। तभी कुबरी की सुध आ गई और राम दुबारा वन चले गए।
आखिरी पद में कुबरी और सुध, दोनों समझ से बाहर के शब्द हैं। यदि कुबरी मंथरा के रूप में गृहकलह का प्रतिनिधित्व करती हुई आई है तो भी उसकी सुध आने का मतलब नहीं समझ में आता क्योंकि सुध का इस्तेमाल गहरे लगाव वाली स्मृति के लिए होता है, किसी कड़वी याद के लिए इसका इस्तेमाल होता मैंने अबतक नहीं सुना। तो क्या यह कुबरी कृष्ण की कुब्जा के करीब पहुंचती है, जिसकी रूढ़ छवि ब्रज के काव्यों में 'दूसरी स्त्री ' वाली है। लेकिन सिर्फ १० पदों में कही गई चिर वियोग की इस महागाथा का उस राम कहानी से क्या सबंध्, जिसे हम अबतक् संस्कृत औऱ अवधी रामकाव्यों में सुनते आए हैं?

No comments: