यह एक पुराना जतसार का गीत है। याददाश्त के आधार पर लिख रहा हूँ- अभय की रामायण पर दी गई टीप और बोधिसत्व की कविता शांता से प्रेरणा लेकर। प्रमोद भाई और अनिल भाई समेत सभी अवधी-भोजपुरी पृष्ठभूमि के लोगों से आग्रह है कि यदि उन्हें कहीँ से पता चले तो इस गीत की छूट रही पंक्तियों को पूरा करें और जो गलत हों उन्हें सुधार दें। खुद में यह एक अलग रामकथा ही है लेकिन खडी बोली में कविता का अर्थ और इसपर बातें बाद में -
सूतल रहली मो राम संग अपनी ओसरिया नु हे
जीव कब उठि राम परइलें त हमें ना जनवलें नु हे
बरह बरिस पे राम अइलें अंगनवा ठाढ़ भइलें नु हे
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मचिया ई बैठेली कोसिल्ला रानी मने-मने झंखेली हो
जीव के हो मोरी सीता के मनइहे त राम ले बोलइहे नु हे
दुअरा से आवें लछिमन देवरू त माता से अरज करें हो
माता हम तुहरी सीता के मनइबे त राम ले बोलइबे नु हे
उठा-उठा भउजी सिंगार करा दुःख के दिन बीतल हो
भउजी अब काहे बाडू उदासल नयनवा अंसुआ ढूरल हो
बरहो बबूर के लकडिया त धुकुर-धुकुर बरे नु हो
ए बबुआ धुअवन अँखिया पिरइलीं नयनवां अंसुआ ढूरे नु हे
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अंगना मे जामि गइलें कांट- कूस अउरी परास रूख हो
ए बबुआ सीढ़ीअन लागि गईलिन कईया चढ़त दुःख होई नु हे
अंगना कटईबो मो कांट-कूस अउरी परास रूख हो
ए भउजी सीढ़ीअन चनना छिटईबो चढ़त सुख होई नु हे
एक गोड़ धईली चउकठवा त दुसरा पलंग धईलीं हो
जीव आई गइलीं कुबरी क सुधिया त फेरु राम बन गइलेन हो
2 comments:
चंदू भाई
इस गीत का सच्चा और पूरा पाठ मेरे पास है. मैं कल ही यह काम करता हूँ।
अनुवाद भी डालना था, सुभीता हो जाता।
अस नू सुनर बा...जिय हो जीला. बोधिसत्व जी जल्दी से पोस्ट करिए पूरा गीत. जाँते की कमी खलेगी लेकिन चलेगा....
साधुवाद
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