Thursday, March 19, 2020

यह हरामी मुकाम

दुनिया हरेक पल एक हरामी जगह से
दर हरामी जगह में बदलती जा रही है
कोई संतोष है इस बीच तो सिर्फ इतना
कि इसके महिमामंडित किरानियों के बीच
जब-तब कुछेक ऐसे बंदे भी दिख जाते हैं
जो आकांक्षा का फंदा गले से निकालकर
अकेले में उससे साबुन के बुलबुले फुलाते हैं
शक्ति और श्रद्धा के सभी केंद्रों के साथ ही
ईश्वर-अल्ला के नाम पर भी पिच्च से थूकते हुए
कोई सड़ी सी गाली मुंह ही मुंह बुदबुदाते हैं-
जो कुछ तुम्हें देना था दे दिया, लेना था ले लिया
एक जान बची है, ले लोगे तो क्या हो जाएगा?
देखना ही रह गया है, जो देखना होगा, देखेंगे
सुनने वाला कौन है? जो कहना होगा, कहेंगे
यह कोरोना-कोरोना का चालीसा मत बांचो
बांचने को इतना कुछ है, कहां कोई बांचता है
तुम्हारे आकाओं के ही करम से जा रही है
उनके बचाए एक दिन भी नहीं बचने वाली
इस दुनिया को कुछ दिन और चलना ही हुआ
तो सिर्फ बहिराए हुए बंदों के कंधों पर चलेगी

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