Saturday, July 25, 2015

इलाहाबाद

आधी रात में सिर के बगल से
कोई हांक लगाते गुजरा-
‘इलाहाबाद...इलाहाबाद
आ रहा है... आ गया है
उतरेगा कोई इलाहाबाद?’
नींद खुलने से पहले ही
भीतर कोई बुलबुला सा फूटा-
‘वह तो कब का पीछे छूट गया
न जाने कितने साल
न जाने कितने जनम’
झनझन-थरथर की भुतही गूंज में
जमुना के खामोश पानी पर
हौले-हौले कदम बढ़ाती
दिल्ली-हावड़ा राजधानी
रह-रह कराह रही थी
जैसे बिजली से हंक रहा
हजार टन वजनी यह
लोहा काठ और प्लास्टिक
असल में मेरा लुटा-पिटा दिल हो
अजनबियों की तरह
चोरी-चुप्पे इस अजीज़ शहर के
इतने करीब से गुजरता हुआ



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