Saturday, March 8, 2014

तीसरी बार खोना

रेगिस्तान में एक और दिन बीतने को है
रेत के ढूहों के बीच कुछ सुलगने जैसी गंध लिए
पारदर्शी रुई के ढेर सी बिल्कुल ठहरी हुई हवा
दम साधे किसी बुरी खबर का इंतजार कर रही है

सतह के नीचे सरसराते फुरसा सांप को
अपने अंडों की तरफ बढ़ते देख विशाल चिड़िया
कर्कश आवाज में कुछ बोलती है
एक पल भी देर किए बिना हम
निकल पड़ने का फैसला करते हैं

हमारे पीछे कोई गांव है
कहीं से लाकर रख दिया गया धूल भरा मटमैला गांव
पूक-पल्थी या सातो-नरैनी जैसा जोड़े वाला जिसका नाम
यहां हम किसी की शादी में आए थे
किसकी? कुछ याद नहीं पड़ता

तीसरे पहर स्कॉर्पियो से रवाना होना
ढलती शाम एक बाजार में पानी पीने उतरना
और सिर्फ पांच मिनट की अफरा-तफरी में 
वहीं पर सदा-सदा के लिए खो जाना

मेरे साथ में दो लोग और हैं
दिलदार दोस्त, जो फिर कभी नहीं मिलते
पता नहीं देर तक मुझे खोजकर वापस घर गए
या वे भी मेरी ही तरह खोए हुए हैं इसी बाजार में

मौसम का हाल यहां कुछ अलग है
दिन ढलने के साथ तपिश बढ़ रही है
गर्मी से बेहाल मैं तन पर चढ़े गर्म कपड़े उतारता हूं
और पाता हूं कि इस बीच मेरा मोबाइल कहीं गिर गया है

बौखलाया सा लोगों से अपना फोन खोजने को कहता हूं
जैसे मेरी सारी मुश्किलें इसी से हल हो जाएंगी

यह एक छोटा सा बाजार है
संझवाती के लिए यहां सिर्फ लैंप और लालटेनें हैं
टुटपुंजिए दुकानदार रात उतरने के साथ अपनी दुकानें बढ़ा रहे हैं
उनमें से कुछेक भले लोग अपने मोबाइल मेरी तरफ बढ़ाते हैं
कि परेशानी की कोई बात नहीं, आप इससे फोन कर लीजिए

इस बीच कई सारे फोन मैंने सड़क पर खोज डाले हैं
छोटे-बड़े अलग-अलग रंगों वाले चमकीले फोन
एक भी लेकिन इनमें मेरा नहीं है
नहीं है तो क्या- ये फोन मैं किसी को देने वाला नहीं
हालांकि दुकानदारों की पेशकश बेहिचक स्वीकार कर लेता हूं

मुश्किल सिर्फ एक है कि मेरे पास कोई नंबर नहीं है
लाख कोशिशों के बाद भी गिनतियों का ऐसा कोई क्रम याद नहीं आता
जिसपर कॉल करके किसी को अपना पता बता सकूं

लोग पूछते हैं आप कहां से आए हैं
जाना कहां है, इधर गए ही कहां थे आखिर
मेरे पास एक भी सवाल का कोई पक्का जवाब नहीं है

घर के नाम पर कुछ धुंधले ठिकाने याद आते हैं
इत्मीनान से बता सकूं, ऐसा कुछ भी नहीं

लोगों में संदेह जगाने के लिए इतना काफी है
उनके तितर-बितर होने के साथ ही समझ जाता हूं
कि यह मेरा तीसरी बार खोना है

क्या पहले दो मौकों की तरह इस बार भी मुझे खोज लिया जाएगा?
लेकिन अब तो मैं बच्चा भी नहीं हूं
कौन इस वीराने में मुझे खोजने की जहमत उठाएगा

अछोर रेगिस्तान में खुलती हुई रात
आंखों में चुभते चमकते हुए तारे
रेत में खोते धुंधले रास्तों से भरी
कुछ जलने की सी गंध लिए
एक अनपहचानी दुनिया है मेरे सामने

यहां जाना कहां है मुझे नहीं पता
और बताने वाला कोई नहीं है

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रश्न वही होते हैं, पर हर बार उत्तर गहराते हैं।

Khushdeep Sehgal said...

मैं हूं कौन...

मेरा 'मैं' मिला मुझसे,
वो 'मैं' जो अब मैं नहीं,
मैंने हाथ बढ़ाया,
वो बस मुस्कुराया,
मैं सकपकाया,
हाथ वापस लौट आया,
मैंने कहा, मिलोगे नहीं,
उसने कहा, किससे ?
मुझसे और किससे ?
तुम अब वो हो कहां,
वो जो गैरों को भी
गले मिलता तपाक से,
अब तुम औरों से क्या,
अपने से भी नहीं मिलते,
अपने जो बीता कल हैं,
तुम्हारे सपने ही अब सब कुछ हैं,
सपने जो आने वाला कल है,
इनमें मैं कहां फिट हूंगा,
मैं जो तुम्हारा अतीत हूं,
वो अतीत जो इनसान था,
किसी के भी दर्द में पिघलता था,
अब तुम पत्थर हो,
आलीशान इमारत के पत्थर,
खूबसूरत लेकिन बेजान,
गरूर ऐसा जैसे,
मुर्दे अकड़ते हैं,
मुर्दों से 'मैं' हाथ नहीं मिलाता,
बस हाथ जोड़ता हूं,
फिर मेरा सपना टूट गया,
वो हमेशा के लिए चला गया,
अब मैं सोच रहा हूं,

मैं हूं कौन...मैं हूं कौन...

http://www.deshnama.com/2011/08/blog-post_13.html