Wednesday, August 28, 2013

कंचन

1.

तलाक? इतनी जल्दी? अभी कितने दिन हुए जब ढोल-दमामे वाली उस महंगी शादी में शरीक हुए थे हम। मन ही मन कहता हूं, थोड़ा और देख लेतीं। कि बुरे से बुरे दिन भी निकल जाते हैं। कि बदनामी का खौफ कभी हट जाएगा। कि लोग पति के साथ तुम्हें जोड़कर देखना बंद कर देंगे। कि तुम्हारी गिरस्थी भी सुधर जाएगी कंचन। इतना बड़ा मुंह खोलने की हिम्मत नहीं होती। मिलने पर कहता हूं- देवेंद्र से बात हुई क्या?

इतनी मशक्कत से बाप ने घर-वर खोजा। इतनी कम उम्र में लड़का बैंक मैनेजर। इतनी ऊंची मांग। लड़के वालों का कोई कल्चर नहीं था। लेकिन वह तो वैसे भी नहीं होता। ब्याही गई कंचन धूमधाम से। बिना किसी उज्र के कूड़े में गईं उसकी डिग्रियां। कि राजे के संग राज करेगी, डिग्रियों का क्या करना है। लेकिन तीसरे ही साल राजा पकड़ा गया होम लोन घोटाले में। गया तिहाड़ जेल और लगा कि कुछ दिन वहीं से राज करेगा।

यह तब की बात है, जब बड़े लोगों के तिहाड़ जाने का सिलसिला शुरू नहीं हुआ था। अभी तो कोई न कोई राजा वहां हमेशा बैठा ही रहता है। मेरा मन हुआ कि कंचन को समझाऊं- पति के घोटाले में पकड़े जाने पर भी कहीं कोई तलाक हुआ है? और क्या पता यह मामला करप्शन का नहीं, किसी साजिश का हो। लेकिन इससे हजार गुना ताकतवर दलीलें पार करके ही कंचन यहां तक आई थी, और यहां से कोई वापसी नहीं थी।

2.

भारत में तीस साल की एक लड़की का तलाकशुदा होना पूरे जमाने का कर्जदार होने जैसा है.. और इस कर्ज की किस्तें तलाक होने के काफी पहले से शुरू हो जाती हैं। शरीर, मन और आत्मा से वसूली जाने वाली ये किस्तें उसे कितनी बुरी तरह निचोड़ती हैं, इसकी मिसाल हमने कंचन में देखी। कोई कहता, कंचन नकचढ़ी है। कोई बताता, खुद को सजा दे रही है। बगैर यह सोचे कि जब कोई गलती नहीं तो सजा किस बात की।

फिर एक दिन कंचन की बीमारी की खबर आई और बहुत जल्द एक बीतती हुई रात में उसकी मौत की। तीन बजे की अलौकिक नींद में फोन की घंटी एक-दो बार बजकर बंद हो गई। बिना संदेश के पता चल गया- कंचन गई। उसे नहीं जाना चाहिए था। इतनी जल्दी तो हरगिज नहीं। मुझे डर है कि इससे लोगों की यह सोच और मजबूत होगी कि भ्रष्टाचार से लड़ाई राजनैतिक होकर या अनैतिक होकर ही लड़ी जा सकती है।

मेरे समाजविज्ञानी मित्र इस पेचीदगी को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं। भ्रष्टाचार को वे किसी गुत्थी की तरह नहीं, आगे बढ़ने के औजार की तरह देखते हैं- तुम करो तो शिष्टाचार, हम करें तो भ्रष्टाचार? जब मैं उन्हें याद दिलाता हूं कि अपने इर्दगिर्द हर रोज दो-चार जिंदगियां हम इसके चलते तबाह होते देख रहे हैं, तो वे मुझे दयादृष्टि से देखते हैं, जैसे यह कोई वास्तविक समस्या नहीं, मुझे घेर रही कोई मानसिक व्याधि हो।

 3.

करप्शन को लेकर इतना जद-बद हम क्यों बोलते हैं? हमें तो इसकी पूजा करनी चाहिए। कौन जाने कुछ लोग करते भी हों। वरना इस अखाड़े के आला सूरमा इतनी धमक से चुनाव न जीतते। कंचन बताती थी कि कैसे देवेंद्र का बाप देर रात तक उसे बिठाकर कागजों में हेराफेरी के गुर सिखाता था, जो खुद उसने एक सरकारी अस्पताल का गोदाम क्लर्क रहते हुए सीखे थे। तब उसकी बात पर यकीन नहीं हुआ था, अब होने लगा है।

जब-तब आंख के सामने पड़ी चीज भी हम नहीं देख पाते। जिंदगी भर मेरी मां मेरे छुटपन की याद करके कलपती रही, जब मेरे पिता के कुर्ते की दोनों जेबें भरी रहा करती थीं। नहर विभाग के अमीन की नौकरी सन सरसठ-अड़सठ में इतने सारे नोट जेबों में कहां से झड़ाती रही होगी? तभी न जाने किस झनक में आकर पिता ने वह नौकरी छोड़ दी और अपने जीवन के बाकी तीस सालों में पैसे-पैसे के मोहताज बने रहे।

मेरा अंदाजा है कि ऐसी ही कुछ कहानियां उन लोगों के अतीत से भी जुड़ी होंगी, जो आज भ्रष्टाचार मुक्त भारत की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस लड़ाई में मैं उनके साथ हूं लेकिन भरोसा मुझे उनपर रत्ती भर नहीं है। कारण? कभी उन्हें ऐसा कोई सवाल उठाते मैंने नहीं देखा, जो उनके नजदीकी लोगों के लिए, या खुद उनके लिए असुविधाजनक हो। अगर यह नैतिक लड़ाई है तो इसे निष्कवच होकर ही लड़ा जा सकता है।

4.

देवेंद्र से मैं जीवन में कुल तीन बार मिला। एक बार तब, जब वह मंडप में दूल्हा बना बैठा था और उसके परिजन- खासकर उसकी मां- दहेज में कोई चीज कम पड़ जाने पर सिंदूरदान की रस्म किसी भी हालत में न होने देने की धमकी कन्यापक्ष को दे रहे थे। दूसरी बार फोन पर, परिचय का साझा करने को उतावले एक लोन एजेंट के बहुत जोर मारने के बाद। गुर्राती हुई चबाती सी आवाज में तब उसने मुलाकात न करने का शिकवा किया।

अपनी मामूलियत से उपजी एक विनम्र झल्लाहट के साथ मैंने कहा- मिल ही लेता तो क्या हो जाता। 'क्या हो जाता? आप कहते हैं क्या हो जाता? अरे, ब्याज कम करा देता, बिल्डर को दबाकर आपके घर का सौदा सस्ता करवा देता।' पल भर को मन में हुआ कि यह सब हो जाता तो कितना अच्छा रहता। फिर सोचा, यहां परदेस में रहने के लिए सिर पर एक छत ही काफी है। इतने भर के लिए किसी के एहसान तले क्या रहना।

और तीसरी बार तब, जब कई महीने की जेल काटकर वह बाहर निकला था। तलाक का कानूनी सिलसिला शुरू होने के ऐन अधबीच में। यही वह वक्त था, जब मैंने उसे ठीक से देखा। बेरोजगार, बेइज्जत, बदसूरत, बदहवास। तेजी से उड़ते बालों वाला, विषदंत उखाड़े नाग सा अधेड़ इंसान। कुछ ऐसी धज में कि शरतचंद्र की शक्तिशालिनी नायिका उसे एक और मौका देने को तैयार हो जाती। मुझे लगा, मैं अपने पिता को देख रहा हूं।

5.

दुनिया का कोई जीव घिनौना नहीं होता। नाली का कीड़ा भी खुद अपनी और अपने नजदीकियों की नजर में किसी ग्रीक नायक जितना ही सुंदर हुआ करता है। घिनौनापन प्रकृति की ओर से सिर्फ इंसान को बख्शी गई चीज है, जो उसके हिस्से दो बार आती है। एक बार तब, जब वह अपनी नजर में गिरता है, और दूसरी बार तब, जब वह भूल ही जाता है कि इस दुनिया में अपनी नजर जैसी कोई चीज भी होती है।

जो लोग इनमें पहली ही सौगात तक पहुंच कर थम जाते हैं, उन्हें कृतज्ञ होना चाहिए उनका, जिन्होंने वक्त रहते उन्हें उनके घिनौनेपन का एहसास करा दिया। लेकिन ज्यादातर लोग इससे आगे जाते हैं और फिर किसी के भी प्रति कृतज्ञ होने की जरूरत उन्हें नहीं पड़ती। बड़े आराम से वे एक ऐसे इलाके में पहुंच जाते हैं, जहां कुछ संख्याओं को छोड़कर सृष्टि का कोई भी जीव या कोई भी चीज उनकी अपनी नहीं रह जाती। 

देवेंद्र हमारे पास बिचवई की उम्मीद में आया था। लेकिन जल्द ही उसे पता चल गया कि उसकी पत्नी से हमारी रिश्तेदारी काफी दूर की है.. और पास की होती तो भी करने को अब कुछ बचा नहीं था। उसने हमें बताया कि अपने घर पर रहना उसने कब का छोड़ दिया है। कि किराये के मकान में रहते हुए जिंदा रहने का कोई छोटा-मोटा जरिया खोज रहा है। कि उसका यह अंतिम संदेश क्या हम कंचन तक पहुंचा सकते हैं?

6.

एक पराजित, दरिद्र समाज में ताकतवर होना ही श्रेष्ठतर होने का प्रमाण है। नैतिक होने का आग्रह यहां व्यापक पराजयबोध का हिस्सा बनकर रह जाता है। पश्चाताप और प्रायश्चित जैसे विकल्प हमारे यहां सफलता के बाद ही सामने आते हैं। डाकू खड़क सिंह एक सुबह बाबा भारती का लूटा हुआ घोड़ा लौटा जाता है, लेकिन नौकरी खोकर घर बैठा नमक का दारोगा कृतज्ञ होकर नमक के ही तस्कर की नौकरी पकड़ लेता है।

क्या यह हालत कभी नहीं बदलेगी? क्या भ्रष्टाचार हमारे लिए नैतिक समस्या कभी नहीं बनेगा? देवेंद्र की तरह टूटना इस देश के किसी भी भ्रष्टाचारी के हिस्से नहीं बदा होता। कानून यहां खेलने की चीज है। सारे कमाऊ पूत इससे खुशी-खुशी खेलते हैं। देवेंद्र यह नहीं कर पाया तो इसलिए नहीं कि उसकी लूट का रोकड़ा कम था। उसका टूटना सिर्फ कंचन के अड़ने का नतीजा था, और यह बात वह अच्छी तरह समझता था।

कंचन को जाना नहीं चाहिए था। इतनी जल्दी तो हरगिज नहीं। तलाक के कुछ साल बाद अगर वह देवेंद्र से मिलने का फैसला करती, तो पास ही कहीं छिपकर मैं दोनों की बातें सुनना पसंद करता। अभी जब मुझे नींद नहीं आती और पीछे छूटे लोग बाइस्कोप की तरह दिखते हैं, तो काफ्का की कहानी 'ग्यारह बेटे' के आत्मालाप की तरह घूम-फिरकर यही बात मन में आती है- काश, कंचन के बच्चे होते...और उनके भी बच्चे होते।



5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कुछ लोग पद को व्यवसाय की तरह देखते हैं, परिवार वाले भी मना नहीं करते, लगता है कि भ्रष्टाचार से ही सही, धन आ रहा है। पर जब स्थितियाँ बिगड़ती हैं तो कुछ भी सम्हाले नहीं सम्हलता, निश्चय ही कंचन ने पूरी पीड़ा सही होगी। बच्चे होते तो वे भी सहते।

राजीव कुमार झा said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति .

azdak said...

खूब सारी अच्‍छी लाइनें लिखा गईं. मगर खूब सारी ये अच्‍छी लाइनें किसी जिये जीवन की संगत की साझेदारी में ही लिखी जाती है सो अच्‍छी बात नहीं. 1,2,3,4 के विभाजन में छोटे-छोटे गद्य-विचार-गतियों में उड़ लेने, आने की यह शैली भी अच्‍छी. जो अच्‍छी व जिंदा नहीं रह सकी उस 'के' का तो मैं जिक्र भी नहीं कर रहा..

अनूप शुक्ल said...

ये पहले भी बांच चुका था। आज फ़िर पढ़ा - अच्छा लगा।

Unknown said...

क्या किसी भ्रष्टाचारी की दी हुई सरकारी, गैरसरकारी नौकरी नियमपूर्वक करना ही सदाचार है. क्या पता आपकी सरकार किसी और देश के संसाधन हड़प कर आपको मोटा वेतन दे रही हो (उपनिवेशों का माल ही तो वात्सल्य भाव से ब्रिटेन अपने नागरिकों को बांटता रहा होगा). ये कानून भ्रष्टाचार को रोकना ही क्यों चाहता है. मुझे लगता है कि आपकी आमदनी में अगर समाज के अन्य जरूरतमंदों का हिस्सा नहीं है तो आप भ्रष्टाचारी हैं भले कितनी ही मेहनत से ईएमआई क्यों न देते हों।