Saturday, April 13, 2013

सपने में चिरकुटगंज

अभी तक अनदेखे किसी बड़े शहर की ओर रवानगी है
एक बक्सा एक बिस्तरबंद एक पानी की बोतल
एक घड़ी जिसे गाड़ी के इंतजार में बार-बार देख रहा हूं

किसी छोटे स्टेशन पर हम तीन जन और गुलाबी सा अंधेरा हमें घेरे हुए है
स्टेशन की बाकी शक्लों के अलावा साथ की दोनों शक्लें भी अंधेरे में घुली सी हैं
कौन? ठीक से पता नहीं, पर निकट इतने कि पत्नी और बेटा भी हो सकते हैं

मिर्जापुर के आसपास पठारी सी किसी जगह पर यह स्टेशन
जिसकी अकेली याद बिजली के हाई टेंशन तारों की है

गाड़ी आती है...दो-चार डिब्बों की छोटी सी गाड़ी
या डिब्बे शायद और भी हों लेकिन अंधेरे में नजर नहीं आते

कलकत्ते की तरफ जा रही गाड़ी बीच में हिचकोला खाती है
तब ध्यान आता है कि डिब्बे में मैं बिल्कुल अकेला हूं

अंधेरा अब भी उतना ही गुलाबी, अगल-बगल आहटें सरसराहटें
अकेले इन्सान के शरीर पर पड़ता अनदेखी दृष्टियों का वजन
कहां उतरूं कैसे लौटूं कि न जाने किस हाल में होंगे मेरे लोग

और अब मैं लौट रहा हूं
पता नहीं वही गाड़ी पीछे जा रही है या कोई और

दोपहर की धूप में नीलाहट लिए झक्क उजली जमीन पर
ऊंची क्रॉसिंग के पास खड़ा किसी से रास्ता पूछ रहा हूं

चिरकुटपुर से चिरकुटाही, समझे? चिरकुटपुर से चिरकुटाही फिर वहां से चिरकुटगंज
इस ब्यौरे पर जैसी हंसी अब आती है, वैसी तब बिल्कुल नहीं आई

पूरी गंभीरता से चिरकुटगंज की तरफ बढ़ते हुए
चटख रोशनी में अपनी ही पीठ धीरे-धीरे फेड होती हुई देखता हूं
कोसता हूं निरंतर रतजगे में जन्मी इस घटिया नींद को
जिसमें सपने भी साले ढंग के नहीं आते

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

जो वास्तविकता देख कर सोचते हैं, सपनों में चिरकुटगंज ही आना है।

Unknown said...

गुलाबी अन्धेरा :-)