अंधेरा अब कहीं नजर नहीं आता
जैसे धरती के हर कोने से
सचमुच उसे मिटा ही दिया गया हो।
और तो और, क्रूर सिंह जब कहता है
यक्कू...अंधेरा कायम रहे
तो यह बात वह भरपूर उजाले में कहता है।
लोग भी इस पर थर्राते नहीं
सिर्फ एक चवन्नीछाप विलेन की
थेथरई जानकर हंस देते हैं।
हमारे रूपक आज भी
अंधेरे और उजाले के इर्दगिर्द घूमते हैं
लेकिन अंधेरा अब कहीं दिखता भी है?
हर तरफ सिर्फ उजाले हैं
पीले और गंदुमी
मद्धिम और पोशीदा
चटकीले और रंगीन
तरह-तरह के उजाले।
हालांकि कुछ भी साफ दिखाते नहीं
तो उजाले भी ये किस बात के हैं?
अंधेरे में अज्ञान बसता था और भय
और चकमक पत्थर जैसी आस्थाएं
और अतीत में गर्क हुए लोग
जिनकी गूंजें सुनकर सभी सिहर जाते थे।
ये सारी चीजें क्या अब खत्म हो गई हैं,
या अपने स्थापित संदर्भ खोकर
बन बैठी हैं और भी विकराल?
और अब एक कन्फेशन-
अंधेरे तो कहीं हैं नहीं
और हों भी अगर छूटे-फटके
तो पसंद करने लायक उनमें कुछ नहीं है,
लेकिन इसका क्या करूं कि
अंधेरों में भटकना ही मेरी जिंदगी है।
कभी हौले से कोई जुगनू पकड़ लेना
हथेली पर उसे चलते हुए देखना
कभी बैठ जाना किनारे चुप मारकर
अंधेरों-उजालों के लाखों शेड्स तराशते हुए।
हर रोज अपने लिए कोई रात चुनता हूं
और कोई अंधेरा, जिसमें खुद को छुपा सकूं।
मैं रात का राही हूं...पहले की तरह आज भी
हालांकि राहें अब पहले की तरह
कहीं आती-जाती नहीं दिखतीं।
उजालों से मुझे कोई नफरत नहीं है
सिर्फ इनके झूठ मुझे जीने नहीं देते।
सबकी तरह मैं भी इनकी चाकरी बजाता हूं
जरूरी हुआ तो प्रशस्ति भी गाता हूं
लेकिन जीने के लिए कहीं और चला जाता हूं।
7 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
लिंक आपका है यहीं, मगर आपको खोजना पड़ेगा!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
लेकिन जीने के लिए कहीं और चला जाता हूं - Beautiful line
बहुत गहराई से सच को शब्द दिए हैं |सार्थक रचना
संवेदनशील मन की बात! अच्छा लगा इसे पढ़ना।
कभी हौले से कोई जुगनू पकड़ लेना
हथेली पर उसे चलते हुए देखना
कभी बैठ जाना किनारे चुप मारकर
अंधेरों-उजालों के लाखों शेड्स तराशते हुए।
मन को छूती कल्पना.........
मैं अनूप सुकुल पंडिजी की लाईन चुराकर, यहां आपके मन की दीवार पर चिपकाकर, जीने, फिर किसी अंधेरे में चला जा रहा हूं..
बहुत सादगी से आहिस्ता आहिस्ता हो रहे हैं गुम
तुम्हारे वादे तुम्हारी कसमे तुम्हारे रास्ते और तुम...
Post a Comment