पांच तो क्या एक भी गांव मुझे नहीं चाहिए।
सुई के नोक बराबर भी जमीन
तुम मुझे नहीं देना चाहते
मत दो, मुझे उसका क्या करना है।
मुझे तुमसे कोई युद्ध नहीं लड़ना
न जर, न जमीन, न जोरू के लिए
न बतौर कवि
एक जरा सी हैसियत के लिए।
मेरी महाभारत तो खुद मुझसे है
जिसे मैं जितना भी बस चलता है,
लड़ता रहता हूं।
किसी कुत्ते-कबूतर गोजर-गिरगिट की तरह
मेरे भी हाथ एक जिंदगी आई है
इसको तुमसे, इससे या उससे नापकर
मुझे क्या मिल जाएगा।
इस दुनिया में हर कोई अपने ही जैसा
क्यों नहीं रह सकता
इस पर इतना टंटा क्यों है
बस, इतनी सी बात के लिए
लड़ता रहता हूं।
मेरी कविता की उड़ान भी
इससे ज्यादा नहीं है
मेरी फिक्र में क्यों घुलते हो
मुझे तुमसे कोई युद्ध नहीं लड़ना।
7 comments:
जब स्वयं से जूझ रहे हों तो और से कैसे लड़ेगा कोई..
सुन्दर अभिव्यक्ति......
"किसी कुत्ते-कबूतर गोजर-गिरगिट की तरह
मेरे भी हाथ एक जिंदगी आई है
इसको तुमसे, इससे या उससे नापकर
मुझे क्या मिल जाएगा।
इस दुनिया में हर कोई अपने ही जैसा
क्यों नहीं रह सकता"
bahut talkh aur abhut khoob...
बड़ी सच्ची कवितायें मिलतीं हैं यहां …
भाई चंद्रभूषण
बहुत दिनों बाद देखा पहलू, कविता निसंदेह अपने जैसी है, ‘इस दुनिया में हर कोई अपने ही जैसा क्यों नहीं रह सकता।’ बधाई और मिलने की जुगत करें तो कैसा रहे? मेरा भी एक अनियमित ब्लाग है सुमरनी sumarnee, कभी मौका मिले तो देखना।
नरेंद्र मौर्य
भाई चंद्रभूषण
बहुत दिनों बाद देखा पहलू, कविता निसंदेह अपने जैसी है, ‘इस दुनिया में हर कोई अपने ही जैसा क्यों नहीं रह सकता।’ बधाई और मिलने की जुगत करें तो कैसा रहे? मेरा भी एक अनियमित ब्लाग है सुमरनी sumarnee, कभी मौका मिले तो देखना।
नरेंद्र मौर्य
बेहद गहन और सच्ची कविता
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