1.
राह चलते, बस में, मेट्रो में, दफ्तर में
हर जगह तुम्हें पहचानने की कोशिश करता हूं।
हर चेहरे को इतना घूरकर देखता हूं कि
लोग मुझे खतरनाक समझने लगते हैं।
क्या करूं, हर चेहरे में कोई न कोई बात
तुम्हारे ही जैसी लगती है।
और यह भी छोड़ो,
मेरे घर के सामने वाले पेड़ में छिपकर
चिक-चिक करती अजीब सी छोटी चिड़िया में भी
जब-तब मुझे तुम्हारे जैसी ही ऐंठ सुनाई देती है।
तुम शायद यह सुनकर हंसो
लेकिन शादी के मंडपों और चुनावी जलसों में
बिखरे गेंदे और गुलदाउदी के फूल देखकर
मेरा कलेजा धक से रह जाता है-
हरामजादों ने कहीं तुम्हीं को तो नहीं नोच डाला।
सपनों में कभी तुम्हें डंप पर चिथड़े बीनते
कभी सिनेमाहाल पर
मुंह ढककर भीख मांगते देखता हूं
अच्छी तरह यह जानते हुए कि
जैसे ही तुम्हारी तरफ बढ़ूंगा,
तुम हवा हो जाओगे।
मुझे माफ करो, मुझपर रहम करो
तुम्हें खोजने के चक्कर में
कहीं मेरा दिमाग न चल जाए।
2.
जाड़ों की तरह तुम्हें जाते हुए देख सकता हूं।
महुए के चुरमुर पत्ते तुम्हारे पांवों तले दबकर
तुम्हारे जाने की तकलीफ बढ़ा रहे हैं।
लगता नहीं कि तुम कभी इधर लौटोगे,
हालांकि जाड़े बार-बार लौटेंगे
और हर बार मुझे पहले से कमजोर पाएंगे।
सुन सको तो वहां दूर से सुनना
चलो, अपने न सही मेरे ही कानों से सुनना
कि कोयलें कूक रही हैं।
आज चैत का पहला दिन है
न जाने कब कट चुके महुए के बागों में
आंखें बंद किए मैं
तुम्हारे पीछे-पीछे आ रहा हूं।
मेरी आंखें, मेरी नाक
मेरे कान, मेरी जीभ, मेरी त्वचा
मेरा सब कुछ तुम्हारा है।
तुम्हारे लिए खुद को आज
मैंने पूरा का पूरा खोल दिया है।
मुझसे होकर इस दुनिया के
जितने भी करीब आ सकते हो,
चले आओ।
7 comments:
bahut sundar kavitayen..
.सुन्दर रचना लाली मेरे लाल की जित देखू उत लाल जैसी .....
अन्जानों में अपनापन और अपनों में अन्जानापन देखने को मिलता है।
behad khoobsoorat...
वाह ...बहुत ही बढिया।
komalta se bhari hui......
Beautiful poem
Post a Comment