लगता है गलत चुना
पर चुनने को कुछ था नहीं
होता तो प्यार चुनता
नफरत क्यों चुनता
जो कोलतार की तरह
सदा चिपटी ही रह जाती है
कोई चांस नहीं था
जहां तक दिखा नफरत ही देखी
उसी का कुनबा उसी का गांव
उसी का देश और उसी की दुनिया
जहां वह कम दिखती थी
लोग उसे प्यार कहते थे
फिर खाली जगह को भर देते थे
उसी से जल्द अज जल्द
एक दिन पता चला
यह तो बड़े काम की चीज है
चुटकी भर मैंसिल और पोटाश
कागज पर बराबर से मिलाया
फिर बट्टे से ठोंका
तो लगा, छत सर पर आ जाएगी
इस तरह नफरत को नई धार मिली
और धीरे-धीरे खून में घुली
यह सपनीली समझ कि
एक दिन इससे सब बदल जाएगा
लेकिन एक मुश्किल थी
अपनी नींदों में जब हम अकेले होते थे
नफरत के लिए कोई निशाना नहीं होता था
तब वह हमीं पर चोट करती थी
स्वप्नहीन रतजगों में उठकर
खाली घड़े खखोरते हुए कई-कई बार
खुद से पूछते थे-
दुनिया जब तक नहीं बदलती
तब तक इस होने का हम क्या करें
क्या ग्रेनेड और बंदूक की तरह
नफरत को भी टांगने के लिए
दीवार में कोई खूंटी गाड़ दें
दरअसल, हमें पता नहीं था
खूंटियां तो गड़ चुकी थीं हमारे इर्दगिर्द
जिन-जिन चीजों को हम चाहते थे
जो लोग भी हमारे अजीज थे
उन्हीं पर ओवरकोट की तरह
हमारी नफरत टंगने लगी थी
लेकिन हर चीज का वक्त होता है
रूई में रखा ग्रेनेड भी सील जाता है
रोज साफ होने वाली बंदूक का घोड़ा भी
गोली पर टक करके रह जाता है एक रोज
तुम जान भी नहीं पाते
और नफरत तुम्हारी एक सुबह
बदहवासी में बदल गई होती है
परेड पर निकले फौजी के जूते में
चुभी लंबी साबुत धारदार कील
एक निश्चित ताल के साथ तुम
गुस्से से फनफना रहे होते हो
और लोग तुम्हें देख कर हंस रहे होते हैं
तुम उनसे छिपने की तरकीबें खोजते हो
कोई कैमॉफ्लॉग कि उन जैसे ही कूल दिखो
कुछ गालों पे डिंपल कुछ बालों में ब्रिलक्रीम
अडंड अंग्रेजी में अढ़ाई सेर ज्ञान
और कोई हिंट कि जेब में कुछ पैसे भी हैं
बट...ओ डियर, यू डोंट बिलांग हियर
बाकी सब मान भी लें तो
खुद को कैसे मनाओगे कि
इतना सब हो जाने के बाद भी
नफरत तुम्हारा नाश्ता नहीं कर पाई है
9 comments:
बहुत सुंदर।
दमदार कविता!
नफ़रत नाश्ता नहीं कर पाई है । साक्ष्य पढ़ा ।सप्रेम,
shekhar kumawat
एक दिन पता चला
यह तो बड़े काम की चीज है
चुटकी भर मैंसिल और पोटाश
कागज पर बराबर से मिलाया
फिर बट्टे से ठोंका
तो लगा, छत सर पर आ जाएगी
http://kavyawani.blogspot.com/
"जहां वह कम दिखती थी
लोग उसे प्यार कहते थे"
बेतरीन... बस इतना काफी है...
मुकम्मल कहानी है एक जिन्दगी की
होता तो प्यार चुनता
नफरत क्यों चुनता
sachmuch!
...जिन-जिन चीजों को हम चाहते थे
जो लोग भी हमारे अजीज थे
उन्हीं पर ओवरकोट की तरह
हमारी नफरत टंगने लगी थी...
बहुत अच्छी कविता हुई है भाई. बधाई!
बहुत दिनों बाद कोई दमदार कविता पढ़ने को मिली। वरना पता नहीं क्यों कविता पढ़ने में अब पहले सा आनंद नहीं आता। बहुत बढ़िया रचना।
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