तांत्रिकों और कथावाचकों का मंत्री बनना, सड़क घेर कर मंदिर और ग्रीन बेल्ट छेंक कर गुरद्वारे खड़े हो जाना, हर रात ही सिर खाते माता के जगराते, नए-नवेले भगवानों और धर्मगुरुओं का बढ़ता दायरा, हर जुमे को सड़कों पर आना-जाना दूभर बनाती नमाजी जमातें, और खुद को जेन-एक्स, वाई या जेड बताने वाले नौजवानों में भी गंडे-ताबीज बांधने का ट्रेंड। क्या इक्कीसवीं सदी के समाज में धार्मिकता बढ़ रही है?
समय बीतने के साथ लोग उदार और धर्मनिरपेक्ष होते जाएंगे, ऐसी एक राय बीसवीं सदी के सात या आठ दशकों तक मुख्यधारा में थी लेकिन समाजवादी व्यवस्थाओं और उनकी विचारधारा के पतन के साथ ही यह नेपथ्य में चली गई। इसके बाद से धार्मिकता पूरी दुनिया में एक रहस्यमय चीज बनी हुई है। कोई नहीं जानता कि यह घट रही है या बढ़ रही है। सामाजिक विकास के साथ इसका कोई रिश्ता है या नहीं। और किसी समाज में यह आत्मघाती हो चली है तो वहां इसके इलाज की कल्पना भी की जा सकती है या नहीं।
समाज विज्ञानियों के यहां ऐसे सारे सवालों के जवाब अटकलों पर आधारित हैं लेकिन मनोविज्ञान के एक खोजी ने इसका जवाब खोजने में आश्चर्यजनक वैज्ञानिकता आजमाई है। इवोल्यूशनरी साइकॉलजी के पिछले अंक में प्रकाशित ग्रेगरी पॉल के 44पेज लंबे रिसर्च पेपर के निष्कर्षों से भी ज्यादा रोचक है उनकी खोज प्रणाली, उनके पुख्ता मानदंड। आज जब हम चिकित्सा शास्त्र जैसे शुद्ध विज्ञान में भी अधकचरे और बेईमान नतीजों की भरमार देख रहे हैं, तब ग्रेगरी ने समाज विज्ञान के एक उलझे हुए प्रश्न का अकाट्य उत्तर ढूंढ निकाला है।
अपनी खोज में ग्रेगरी पॉल ने यह पता लगाने की कोशिश की है कि किसी समाज के धार्मिक होने और सफल होने के बीच का रिश्ता क्या है। न औद्योगिक, न शक्तिशाली, न विकसित। सिर्फ सफल। कोई समाज कितना सफल है, यह जानने के लिए उन्होंने 25 ऐसे मानक चुने हैं, जिन्हें पक्की संख्याओं के रूप में दर्ज किया जा सकता हो और जिनके प्रामाणिक आंकड़े पहले से मौजूद हों।
इसके लिए उन्होंने ऐसे 17 देशों को लिया है जो विकास के लगभग एक से स्तर पर हैं और जहां ऐसे रेकॉर्ड रखने की पुरानी व्यवस्था मौजूद है। ये हैं- ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, कनाडा, डेनमार्क, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड, आयरलैंड, इटली, जापान, न्यूजीलैंड, नॉर्वे, स्पेन, स्वीडन, स्विट्जरलैंड और अमेरिका। ग्रेगरी के मुताबिक इस दायरे को बढ़ाने का अर्थ होगा तथ्यों से समझौता करना।
किसी समाज की सफलता या असफलता को निर्धारित करने के लिए जो मानक उन्होंने चुने हैं, वे हैं - हत्याएं, जेल में बंद लोगों की तादाद, कम उम्र मौतें, जीवनकाल, कम आयु और सभी आयु वर्गों में स्त्री और पुरुष यौन रोग, किशोर वय में प्रसव और गर्भपात, जवानी में और सभी आयु वर्गों में आत्महत्याएं, प्रजनन क्षमता, विवाह, विवाह की अवधि, तलाक, जीवन से संतुष्टि, शराब की खपत, भ्रष्टाचार, आय, आय में अंतर, दरिद्रता, रोजगार, काम के घंटे और संसाधनों के दोहन का आधार, विदेश में जन्मे लोगों का प्रतिशत और सांस्कृतिक विभेद।
इनमें हर एक मानक के पीछे ग्रेगरी पॉल के कुछ पुख्ता तर्क हैं। इस सूची में हत्या के अलावा बाकी हिंसक अपराध शामिल नहीं किए गए हैं क्योंकि हत्या दर्ज करने के लिए लाश की मौजूदगी जरूरी है, जबकि बाकी अपराधों में ढीलापोली की काफी गुंजाइश होती है। इसी तरह ड्रग्स के मामलों को भी छोड़ दिया गया है क्योंकि इनके पक्के आंकड़े किसी भी देश में नहीं रखे जाते।
धार्मिकता के आकलन के लिए ग्रेगरी ने जो मानक चुने हैं उन्हें भी संख्याओं में व्यक्त किया जा सकता है और नियमित सरकारी सर्वेक्षणों में इनके आंकड़े उपलब्ध हैं। ये हैं- ईश्वर में पूर्ण विश्वास, मूल धर्मग्रंथ के हर शब्द पर पूरा यकीन, महीने में कई बार धार्मिक आयोजनों में शिरकत, हफ्ते में एकाधिक बार उपासना, मृत्यु के बाद जीवन (आफ्टरलाइफ) में पूर्ण विश्वास, संदेहवादी और नास्तिक, और मनुष्य का विकास पशुओं से होने की प्रस्थापना में विश्वास।
सत्रहों देशों में हर साल जारी होने वाले दोनों किस्म के आंकड़ों को ग्रेगरी पॉल ने बड़ी मशक्कत से जुटाया और इनके आधार पर इन समाजों की सफलता और धार्मिकता के अलग-अलग ग्राफ बनाए। ये ग्राफ एक ही नजर में दोनों के अंतर्संबंध को लेकर कुछ ठोस नतीजों तक पहुंचा देते हैं। सीधी समानुपाती रेखाओं द्वारा प्रदर्शित एक नतीजा तो बिल्कुल साफ है कि जो समाज जितने नाकारा, बेचैन और परेशान हैं वहां धार्मिकता का जोर उतना ही ज्यादा है। इसके बरक्स जो समाज जितने सफल, संतुष्ट और प्रसन्न हैं वहां धर्म के प्रति लोगों का नजरिया उतना ही कैजुअल या लापरवाही भरा है।
तानाशाही माहौल से धीरे-धीरे बाहर आ रहे पुर्तगाल और संसार के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र अमेरिका में कुछ भी साझा नहीं है लेकिन अपराधों का प्रतिशत और चर्च से जुड़ी कट्टरता दोनों जगह एक जैसी है। उधर इनके पड़ोसी देश फ्रांस और कनाडा शांति और संतुष्टि में ही नहीं, धार्मिकता के मामले में भी एक जैसे हैं। फ्रांस में तो खुद को संदेहवादी या नास्तिक बताने वालों का हिस्सा कुल आबादी का एक तिहाई हो चला है।
इन तथ्यों के आधार पर ग्रेगरी पॉल इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मनुष्य का धार्मिक होना कोई स्वत:सिद्ध बात नहीं है। धार्मिकता सुदूर अतीत में आदिम इंसानों के जोखिम भरे जीवन से उपजी डिफाल्ट मोड जैसी मनःस्थिति है, जहां खुद को असुरक्षित और लाचार पाते ही वे अपने आप लौट आते हैं। इस खोज को कुछ महीन दलीलों के जरिए चुनौती देने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन यह बुनियादी सवाल से टकराने के बजाय बीच का रास्ता निकालने जैसा ही होगा।
इस तरह की खोज में काम आ सकने वाले भरोसेमंद आंकड़े भारत में मौजूद नहीं हैं, लेकिन यहां जोर मारती धार्मिकता को समाज की बढ़ती नाकामियों से जोड़ कर देखने के लिए शायद इतने गहरे शोध की जरूरत भी नहीं है।
6 comments:
आपसे सहमत हूँ बहुत अच्छी जानकारी है शुभकामनायें
ये इतना सरल मामला नही है। बहुत ही सरलीकरण है खासकर हिन्दुस्तानी समाज की जड़ो मे धर्म को समझने के लिए। मैं कितने बेहद पढ़े-लिखे, जिनमे प्रोफेस्सोर्स, इंजीनियर्स और डोक्टोर्स भी शामिल है और छोटी मोटी कम्पनियों के सीईओ भी, को देखती हूँ, यंहा आर्थिक और पारिवारिक दिक्कते नही है, और जिसे चरम सफलता का मानक माना जा सकता है, इस क्लास के पास सब कुछ है। पर साथ मे बेहद अजीब किस्म की धार्मिकता भी, कुछ जगह पर बाकायदा, पंडितों, योगियों और धार्मिक गुरु के साथ टेली कांफेरेंस होती है, और कही CD/tape चला कर अनुष्ठान। ३-४ घंटे भी आसानी से चलते रहते है। कुछ हद तक ले देकर भारतीय लोगो मे कमुनिटी का ले देकर बस यही एक रूप बचा है। यहाँ लगातार जन्मपत्री से लोग अपने आने वाले दिनों की तस्वीर देखते है, जबकि कोई संकट सर पर खडा नही है। कई बार लोग डिनर का निमंत्रण देते है, और वहाँ जाकर इस तरह की नौटंकी देखने को मिल जाती है.
"लेकिन यहां जोर मारती धार्मिकता को समाज की बढ़ती नाकामियों से जोड़ कर देखने के लिए शायद इतने गहरे शोध की जरूरत भी नहीं है।"
BILKUL SAHI.
आपसे सहमत हूँ.
सही दिशा की ओर बड़ता निष्कर्ष . भारत में तो अपराधियों का अपराध बोध या अभाव ग्रस्त लोगों की कामनायें ही धार्मिक उत्सव धर्मिता को बढा रही हैं पर उसका पुराने धर्म से कुछ लेना देना नहीं है वह तो पुरने रैपर में नया माल है
दिलचस्प पोस्ट! हमेशा की तरह एक्सक्लूसिव!!
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