Wednesday, November 18, 2009

दुख क्या इतना बुरा है?

किसी बड़े मकसद के लिए बिना किसी से शिकायत किए चुपचाप तकलीफ सहना। कुछ इस तरह जैसे यह किसी ज्यादा गहरी खुशी की तलाश हो। लोग आज भी ऐसा करते हैं, लेकिन इसका कोई मेल आज के आम मिजाज से नहीं बनता। किसी और के लिए तो छोड़िए, अपने शरीर से जुड़ा इंसान का छोटा से छोटा दुख भी अभी अग्राह्य समझा जाता है। उसके समाधान के लिए संसार की सारी शक्तियां तत्पर दिखाई पड़ती है, बशर्ते उसके पास बदले में देने के लिए पर्याप्त पैसे हों। ऐसे में बिना किसी मजबूरी के कष्ट उठाना समाज के लिए एक ऐसी गुत्थी बन जाता है, जिसे किसी अतार्किक कल्ट का हिस्सा भर माना जा सकता है। मीडिया ऐसे लोगों को या तो झोला वाला वगैरह बता कर गरियाता है, या बात पट गई तो देवता बनाकर बाजार में उतार देता है, जहां किसी चूरनफरोश की तरह वे आध्यात्मिक सुख पाने के नुस्खे बेचने लगते हैं।

हाल में पढ़े गए एक काफी पुराने उपन्यास पर चर्चा करने का मन है। अज्ञेय के उपन्यास शेखर : एक जीवनी में जेल में बंद नायक शेखर की मुलाकात बाबा मदन सिंह से होती है। बाबा 22 सालों से तनहाई की कैद काट रहे हैं, विद्या से पूरी तरह वंचित हैं और अपने जीवन और चिंतन से दिन-रात कुछ सूत्र निकालने में जुटे रहते हैं। मदन सिंह से नायक को कई सूत्र प्राप्त होते हैं, जिनमें एक यह है- अभिमान से भी बड़ा एक दर्द होता है, लेकिन दर्द से बड़ा एक विश्वास होता है। इस अटपटे सूत्र का कोई अर्थ एकबारगी शेखर की समझ में नहीं आता, लेकिन जल्द ही इसके आधे भाग का मतलब वह खुद से सच्चा स्नेह रखने वाली स्वतंत्रचेता मौसेरी बहन शशि के पत्र से समझ जाता है। अपने पत्र में शशि ने विवाह में जरा भी रुचि न होने के बावजूद इसके लिए राजी होने की बात लिखी है, क्योंकि अपनी मान्यताओं का बोझ वह अपनी सद्य: विधवा मां के सिर नहीं डालना चाहती।

बाद में उसी शशि को उसके ससुराल के लोग मार-पीट कर हमेशा के लिए घर से बाहर निकाल देते हैं। इतनी बुरी तरह कि उसका गुर्दा फट चुका है और किसी संयोग से ही वह आगे जीवित रह सकती है। चरित्रहीनता का लांछन उस पर मंढ़ते हुए। इस अपराध में कि वह आत्मघात के लिए निकले अपने मौसेरे भाई शेखर के कमरे में एक बरसाती रात बिता कर आई है। घर से निकाली गई शशि वापस शेखर के ही यहां आती है और अपनी यातना के बारे में कई दिनों तक उसे कुछ नहीं बताती। बाद में डॉक्टर के जरिए जब शेखर को शशि की स्थिति का पता चलता है तो फिर उसके सामने धीरे-धीरे बाबा मदन सिंह के सूत्र के दूसरे हिस्से का अर्थ भी खुलता है- ...लेकिन दर्द से बड़ा एक विश्वास होता है।

सफरिंग- बिना किसी बाध्यता के यातना सहना- ईसाइयत के लिए एक मूलभूत धार्मिक तत्व है। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी रचना आदि ईसाई धर्म के जरिए यह साबित करने का प्रयास किया है कि सफरिंग हकीकत में ईसाइयत का मूल तत्व नहीं, बल्कि चौथी सदी में इसे अपना राजधर्म बनाते वक्त रोमन साम्राज्य द्वारा आरोपित चीज है। उन्होंने बताया है कि शुरू में ईसाइयत जब बढ़इयों और लोहारों का गुप्त धर्म हुआ करती थी, तब इसका मूल तत्व प्रतिशोध का हुआ करता था और रोमन साम्राज्य को पलटने का षड्यंत्र रचना इसकी मूल गतिविधि हुआ करती थी। हकीकत चाहे जो भी हो, लेकिन ईसाई धर्म अगर इंतकाम तक सिमट कर रह जाता, किसी बड़े उद्देश्य के लिए कष्ट सहने की बात इसमें शामिल नहीं होती तो सेंट पॉल और सेंट ऑगस्टिन से लेकर मदर टेरेसा जैसी महान परंपरा उसके पास नहीं होती। तब शायद निर्दयी सत्ताओं के लिए उसे पचा लेना भी बहुत आसान हो जाता।

दुनिया के इतिहास में न कोई ऐसा समय था, न ऐसा समाज था, जिसमें निजी स्वार्थ ने समाज की मुख्य संचालक शक्ति की भूमिका न निभाई हो। लेकिन हर बार लोगों को अपनी खाल से बाहर निकल कर सोचने की प्रेरणा उन्हीं लोगों से मिली, जिन्होंने किसी मजबूरी में नहीं, अपनी इच्छा से किसी बड़े मकसद के लिए कष्ट झेलने का फैसला किया। हिंदू परंपरा में जीते जी अपनी हड्डियां देने वाले महर्षि दधीचि, शरणागत कबूतर को बचाने के लिए खुद को अर्पित करने वाले राजा शिवि और समुद्र मंथन से निकला हलाहल पी जाने वाले भगवान शिव की परिकल्पनाएं सफरिंग को कहीं आगे तक ले जाती हैं, लेकिन हमारे भावजगत में इनके लिए अब कोई जगह नहीं रह गई है। हम सत्य, प्रेम या किसी सामाजिक उद्देश्य के लिए यातना सहने की क्षमता से वंचित हो सकते हैं, लेकिन इसे कल्ट बनाकर इसका निरादर हमें नहीं करना चाहिए।

3 comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

आभार, एक नई जानकारी के लिए।
आप का विश्लेषण अलग ढंग का है, प्रभावित करता है।
@ हर बार लोगों को अपनी खाल से बाहर निकल कर सोचने की प्रेरणा उन्हीं लोगों से मिली, जिन्होंने किसी मजबूरी में नहीं, अपनी इच्छा से किसी बड़े मकसद के लिए कष्ट झेलने का फैसला किया।

'कष्ट झेलना' कम कह रहे हैं, कंजूसी कर गए। उन लोगों ने कष्ट को घनघोर जिया और उसके बाद स्वय़ं मुक्त हो दूसरों को भी राह दिखा गए...

अनामदास said...

दुख आदमी को मांजता है, आदमी बनाता है. दुख और भी बहुत कुछ देता है, सुख सिर्फ़ सुख देता है.

मनीषा पांडे said...

सुखिया सब संसार है खावे अरु सोवै
दुखिया दास कबीर है गावे अरु रोवै

जो सुखी हैं वो इस दुख को कभी नहीं समझ पाएंगे।