Saturday, November 14, 2009

टिनहा सा टीटी

ठीक है, ठीक है, ले लेंगे लेकिन टेबल कहां है जो टेबल टेनिस खेलोगे। कई दिन से जान खा रहे बेटे को समझाने की एक और कोशिश मैंने की। टेबल नहीं, बेंच पर खेलेंगे, बेंच पर। कष्ट काटने के लिए मैं एक रैकेट खरीदने दुकान की तरफ रवाना हुआ। वहां ढाई सौ रुपये में एक कामचलाऊ रैकेट मिल रहा था लेकिन पास में कुल 160 रुपये में तीन बॉल और दो रैकेट का एक पैक भी रखा था । बेटे ने कहा, यही ले लो। कोई खेलने को नहीं मिलेगा तो तुम्हारे ही साथ खेल लूंगा।

टीटी मैंने थोड़ा सा खेला है। जब जनसत्ता में था तो दोपहर में लोग पिट-पिट करते रहते थे। उन्हीं के पीछे-पीछे मैंने भी कुछ दिन खेला। खेल तो मेरा जैसा-तैसा ही था लेकिन एक मित्र की मेहरबानी से एक बार बायोडाटा बनाने बैठा तो उसमें हॉबी के नाम पर टीटी और बैडमिंटन लिखने में कोई परेशानी नहीं हुई। अगर नौकरी ऐसी हुई जिसमें हॉबी पालने की फुरसत भी मिल जाए तो इसके लिए टीटी ही क्या बुरा है।

बेंच का टीटी एक अजब ही चीज है। लगभग रोज शाम को अखबार से लौटने के बाद बेटे के पीछे-पीछे मैं भी सामने के पार्क में निकल जाता हूं। वहां बमुश्किल डेढ़ फुट ऊंची सीमेंट की बेंचें लगी हैं। बगल में स्ट्रीट लाइट जलती रहती है और बेंच के बीच में दो ईंटें रख कर चार इंच ऊंचा नेट तैयार हो जाता है। टीटी की टेबल की स्टैंडर्ड हाइट शायद तीन फुट होती है और नेट नौ इंच ऊंचा होता है, लेकिन अगर खेलने का शौक हो तो किसी भी स्थिति में किसी भी शर्त पर खेला जा सकता है। सिर्फ डेढ़ फुट चौड़ी, डेढ़ फुट ऊंची और दोनों तरफ ढाई-ढाई फुट की लंबाई वाली टेबल पर हमारा खेल चल निकला।

एक दिन हमारे मित्र खालिद को हमारा टिनहा टीटी देखकर काफी दया आई और वह हमें अपनी छत पर ले गया। वहां प्लाई वाली फोल्डिंग चारपाई डाल कर और उसके नीचे एक-एक ईंटें लगाकर करीब दो फुट ऊंची मेज तैयार हो गई। बीच में एक करीब नौ इंच ही ऊंचा पटरा लगाकर खेल की नई तरतीब बना ली गई। मेज की ऊंचाई में तो ज्यादा फर्क नहीं था लेकिन इससे सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि बेंच पर गेंद महज डेढ़ फुट की चौड़ाई में मारनी पड़ती थी जबकि यहां मारने के लिए तीन फुट चौड़ाई मिलने लगी।

इसके अगले चरण की ईजाद महज दो दिन पहले हुई है। आजकल फोल्डिंग चारपाई छत पर ही बेकार पड़े एक कूलर के प्लास्टिक ढांचे पर रखी जाने लगी है, जो करीब तीन फुट ऊंचा है। खेलने में लगता है जैसे सचमुच की टेबल पर खेल रहे हैं, हालांकि सचमुच की टेबल चौड़ाई में चार फुट से ज्यादा ही होती होगी।

जहां तक सवाल मेरे खेल का है तो यह पहले भी ज्यादा अच्छा नहीं था, हालांकि जब छूटा था तब कुछ शॉट ठीकठाक पड़ने लगे थे। अभी तो शॉट के नाम पर ले देकर थोड़ा स्पिन और बस लॉबिंग, यानी उछाल देना ताकि अगला मारे तो बॉल टेबल पर न पड़ कर बाहर निकल जाए। बेटू का खेल भी अभी कुछ खास नहीं हुआ है लेकिन उसके शॉट बाकायदा पड़ते हैं। शायद ऐसा उसके अच्छे रिफ्लेक्सेज के चलते है। उम्मीद करता हूं एकाध महीने खेल लेने के बाद इतना बैलेंस बना लूंगा कि बेटे से रोज-रोज हारना न पड़े।

5 comments:

अफ़लातून said...

मुझे पिछले साल ३२ साल बाद टेटे खेलने का मौका मिला एक प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र में । उस पार से इस पार गेंद फिर करा पाया तो बहुत खुश हुआ। आपको साथ मिला हुआ है,यह सबसे बड़ी बात है ।

अजित वडनेरकर said...

शतरंज के अलावा किसी खेल में हाथ नहीं आज़माया। आप अच्छा कर रहे हैं। बेटे के साथ कुछ सीख-साख लेंगे।

Unknown said...

हे गुरू झुकना पड़ता होगा न और आपके तोंद भी थी या अब...है। और चमचम का नाम किसने बदला।

चंद्रभूषण said...

लगभग गायब ही समझो अनिल बाबू। नौकरियों का जो हाल है उसमें पेट भरना मुश्किल है, तोंद बेचारी कहां तक बचेगी....

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छा लगा पढ़कर। अपने एक कमरे के घर में भाई के साथ खेला गया क्रिकेट याद आ गया।