सबसे पहले बता दूं कि सिनेमा माध्यम के बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता। मोटे तौर पर कहानी या ड्रामा पढ़ने की तरह ही कोई फिल्म भी देख लेता हूं। सुना है कि यह माध्यम कविता के करीब है, इमेजरी वगैरह की वजह से। लेकिन कविता की स्पांटेनिटी इतने महंगे और आर्टिकुलेट मीडियम में भला कैसे समा सकती है, यह बात मेरी समझ में कभी नहीं आई। इस शनिवार को अभय की फिल्म सरपत देखने का मौका मिला तो उसे भी कहानी की तरह ही देख गया। शुरू में स्लो चलने वाली यह फिल्म बीच में एक जगह बुरी तरह चौंकाती है।
चरम गरीबी के मारे दुखियारे लोग अचानक एक जगह लुटेरे नजर आने लगते हैं। बाद में पता चलता है कि यह सिर्फ नायिका का वहम था। एकबारगी यह बात मेरी समझ में नहीं आई। शायद दूसरी बार देखने पर आ जाए। कहानी के कंटेंट से मैं बिल्कुल सहमत नहीं हूं। किसी वर्ग के बारे में उससे बिल्कुल अलग-थलग रहते हुए बनाया गया जीवन भर का सदाग्रह अगर किसी घटनावश पल भर में दुराग्रह बन जाए तो इससे ड्रामा जरूर क्रिएट होता है लेकिन इसमें कोई गहरी बात कहने या सुनने की गुंजाइश नहीं होती। यहां तो कोई घटना भी नहीं होती, सिर्फ घटना का वहम होता है। सुकून की बात यहां सिर्फ इतनी है कि फिल्मकार का इरादा नेक है। नायक-नायिका भले ही सिर्फ सड़क के मुसाफिर हों लेकिन फिल्मकार अपने समाज को नजदीकी से देखना चाहता है।
एक गरीब आदमी के लिए नैतिकता के ठीक वही मायने नहीं होते जो अमीर आदमी के लिए होते हैं, लिहाजा गरीबी और चोरी-चकारी के बीच के रिश्ते को आमफहम मध्यवर्गीय नजरिए से देखना छोड़े बगैर भारतीय समाज के आम आदमी को देखने की बात सोची भी नहीं जा सकती। अभय की फिल्म ठीक यही काम करने की कोशिश करती है। यह अजेंडा खुद में बहुत प्यारा है और छोटी फिल्मों की विधा में ही अभय अगर इस तरह के कुछ और प्रयोग करते हैं तो उनसे कुछ उम्मीद बांधी जा सकती है। फिल्म की लोकेशन से लेकर फ्रेम और ऐंगल तक- मेरे कुछ भी पल्ले न पड़ने के बावजूद- आम फिल्मों से हट कर हैं, और उनके कुछ अपने अलग मायने हैं। अपना कोई नजदीकी बगल से कार चलाता गुजरे तो लगता है कि इस डब्बे पर कभी अपन भी हाथ साफ कर सकते हैं। अभय की फिल्म देखने के बाद लगा कि इस माध्यम से कभी इस बंदे का भी नजदीक का रिश्ता बन सकता है।
गढ़ी से अभय की फिल्म देखकर निकले तो अनुराग वत्स अपने घर खिजरपुर लेते गए और वहां पहली बार तारकोव्स्की की सोलारिस दिखा डाली। इस फिल्म के बारे में इतना सारा कुछ पहले ही लिखा जा चुका है कि नया क्या लिखूं। स्तानिस्लाव लेम मेरे सबसे प्रिय साइंस फिक्शन लेखक हैं लेकिन तारकोव्स्की से मुझे रिश्ता बनाना पड़ता है। दोस्तोएव्स्की औऱ ताल्स्ताय की बहसों को वे अपने ढंग से फिल्म माध्यम में आगे बढ़ाते हैं लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि वे इन दोनों से कुछ ज्यादा ही आध्यात्मिक हैं। उनका अजेंडा भी मुझे ग्रीक आर्थोडाक्सी को आगे बढ़ाने का ही लगता है।
स्टाकर (रोडसाइड पिकनिक) और सोलारिस दोनों अपने उपन्यास रूप में कारपोरेट साइंस की सर्वज्ञता को बौना बनाने का प्रयास करते हैं लेकिन साइंस की स्पिरिट से उनका कोई विरोध नहीं है। इनके बरक्स तारकोव्स्की के लिए साइंस घूरे पर डालने की चीज लगती है, जैसे यह किसी शैतान की ईजाद हो। साइ-फाइ के बहाने वे इन्सानी रिश्तों, खासकर उसके सूखते मनोजगत पर बात करते हैं- सोलारिस में तो यह खूब ही किया है। लेकिन साइंस और स्पिरिचुअलिटी का यह द्वंद्व मुझे इतना नकली लगता है कि अगली बार देखना हो तो शायद सोलारिस को किसी बेहतरीन तमाशे की तरह ही देख पाऊं।
अंत में कुछ अपनी बात। बहुत कठिन दौर से गुजर रहा हूं। पत्नी इंदु जी दो महीने से बेड पर हैं। इस बीच उनकी स्लिप डिस्क का मामला बिगड़ता ही चला गया। आखिरकार आपरेशन हुआ लेकिन रिकवरी बहुत धीमी है। किसी मेडिक्लेम के बगैर स्पाइन आपरेशन जैसा बड़ा झटका हमारे जैसे मूर्खों के ही भाग्य में लिखा होता है। दोस्तों की दुआएं चाहिए- ढेर सारी।
10 comments:
अक्सर यही बदकिस्मती है कि जिनके इरादे नेक हैं, उनकी उस जीवन से दूरी है और जो उस जीवन में जूझ रहे हैं, उनमें से कम के पास ही फिल्म-विल्म बनाने के मौके हैं। इन दिनों इरादे नेक होना भी मुश्किल ही है।
फिल्मों में कविता की स्पोन्टिनिटी पर तो कुछ और राय आएं, दिलचस्प रहेगा।
डिस्क स्लिप का मसला वाकई मुश्किलों भरा है। इसमें जरा देर लगेगी ही। मैं अधीरेश कैसे कहूं कि धैर्य बनाए रखिए।
दुआयें तो दीं, पेड नर्स की सेवायें चाहियें तो उसके लिए अलग से लिखो. इन्दु को इस तरह रुलाने और बिछौना पड़वाने का जवाब भी. फिर मेरा भी अभी तक मेडिक्लेम नहीं, उसका जिम्मेदार कौन?
तारकॉवस्की पर तुम्हारे चाबुक संभवत: कुछ हड़बड़ और निर्ममता में हैं, लेकिन कहीं उसका एक बेसिक सिरा तुमने, लगता है, बड़ी सहजता से तुमने सही-सही पकड़ लिया है. समाजों और संवेदनाओं में व्यक्ति की खोज कुछ अपने-अपने ढंग से रंग पकड़ती है, जैसे असग़र वजाहत की ईरान-यात्रा वाली किताब 'साथ चलते तो अच्छा था' में दिखता है कि कैसे इस्लाम के भारी दबावकारी माहौल में लोग अपने-अपने 'भगवान' की खोज की ज़द्दोजहद में भी हैं!..
Pramod bhai, nurse to chahiye lekin pay zyada nahi de paunga. koi ho to batayen.
अब ऐसे में आपको लापरवाह भी क्या कहूं . सुनकर दुखी हूं . इंदु जी के लिए दुआ करता हूं . शुभकामनाएं भेजता हूं . आपसे हुई मुलाकात को याद करता हूं . नोएडा से रवीन्द्र भवन की स्कूटर-यात्रा की और आपसे,प्रमोद से और भूपेन से उस छोटी-सी मुलाकात की अच्छी स्मृतियां हैं .
इन्दु जी के स्वास्थ्य के लिए ढेरों शुभकामनाएँ, स्लिप डिस्क वाकई काफी तकलीफदेह मामला है आगे तक के लिए भी बेहद सावधानी की ज़रूरत होगी।उम्मीद है वे जल्दी स्वस्थ होंगी।यूँ आपने दोस्तों की दुआएँ मांगी हैं,और हमे अपना स्टेटस इस मामले मे पता नही था सो लगा कि दुआ देने के लिए इनसान होना भी ठीक ठाक योग्यता है ,क्यों :)
अभय की फिल्म बीच मे जिस तरह का एक झटका देती है वही उसकी जान है,कलात्मक मूल्य है।समाजिक मूल्य क्या है , इस पर फिर कभी लिखना चाहूंगी।आपकी बातों से काफी हद तक इत्तेफाक है।
I do not believe in prayer, but my thoughts and worries are with both of you. Indu is very exceptional and brave women. It will take a lot of time and efforts to recover, but I am sure she has that inner strength.
Take care
चंदूभाई को सलाम,
दुआएं हो गई, असर भी हो रहा होगा।
शुभकामनाएं
सिनेमा एक अच्छी विधा है। बाकि इसके जरिये कई लोगों को बुद्धिवाद झाड़ने का मौका मिल जाता है। रोज़गार तो खैर चलता ही है। टाइम भी पास हो जाता है।
चंदू भाई...भाभी के लिए दुआ कर रहा हूँ देर से ही सही। अभी उनके क्या हाल हैं।
चंदूजी, मेरी संवेदनायें और दुआयें आपके और आपके परिवार के साथ हैं।
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