सहारा और जनसत्ता से पीएफ का पैसा निकाला तो कुल मिलाकर करीब दो लाख रुपया बना। पैसे बैंक में जमा होते ही आफत शुरू हो गई कि इसका क्या करें। कई बुरे-बुरे और कुछ अच्छे विचार मन में आए। आखिरकार पूरे चार महीने की कशमकश के बाद आज घर का कर्जा उस पैसे से चुका दिया। अब कुछ दिन बिना कर्जे की जिंदगी का आनंद लिया जा सकता है, बशर्ते अगले कुछ महीनों में कोई और कर्जा सिर पर सवार न हो जाए। देश ही नहीं, पूरी दुनिया कर्जे के बल पर जी रही है। हाल तक हाल यह था कि किसी से आप उसके कर्जे के बारे में पूछिए और वह कहे कि कर्जा कोई नहीं है या बस दो-चार लाख का है तो लोग उसकी तरफ सहानुभूति की नजर से देखते थे।
गनीमत है कि अब हालात कुछ बदल रहे हैं। इलाहाबाद बैंक की वसुंधरा शाखा के मैनेजर मि. टंडन से आज मैंने बैंक बंद होने से ठीक पहले दरखास्त की कि आपके ही बैंक में मेरा बचत खाता भी है, कर्जा चुकाना चाहता हूं। उन्होंने असाधारण तेजी से सारा कामकाज बमुश्किल पंद्रह मिनट में संपन्न करके घर के कागजात मेरे हाथ में थमा दिए, साथ में यह भी बोले कि अपने अखबार में छाप दीजिएगा कि हमारे यहां काम कितनी तेजी से होता है।
टंडन साहब की बात अपनी जगह बिल्कुल वाजिब है और उनकी इच्छा पूरी करने का प्रयास किया जाएगा। लेकिन जहां तक मुझे याद है, और बैंकों की तुलना में कम, लेकिन इस बैंक में भी दो साल पहले तक कर्जा वापसी से कहीं ज्यादा जोर कर्जा बांटने पर दिया जाता था। शायद बैंक के ढांचे में ज्यादा से ज्यादा कर्जा बांटने से मैनेजरों की साख बढ़ती थी। इसमें खास भूमिका किसी बैंक विशेष के प्रशासन की न होकर एक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समझदारी की थी। बाजार में ज्यादा से ज्यादा पूंजी जाएगी तो धंधा बढ़ेगा। धंधा बढ़ेगा तो और ज्यादा पूंजी की खपत बढ़ेगी। इस तरह बाकी दुनिया के साथ-साथ बैंकिंग का भी भला होता रहेगा। ज्यादातर निजी बैंकों की पूंजी इसी सिद्धांत का अनुसरण करते हुए पिछले पांच सालों में कम से कम दस गुनी हो गई। लेकिन हकीकत में यह ताश के पत्तों का महल बनाने जैसा था।
निजी संबंधों या कागजी साख के आधार पर, बिना किसी कोलैटरल के बांटे गए कर्जों का नतीजा अभी तक बैंकों ने छोटे स्तर पर भुगता है लेकिन अब सत्यम जैसे बड़े-बड़े नामों के डिफाल्टर होने के साथ ही यह काम बड़े स्तर पर शुरू होने जा रहा है। भारत में ज्यादातर बड़े उपद्रव जमीन के नाम पर हुए हैं और यह सिलसिला मुख्य रूप से उत्साही बैंकरों की मेहरबानी से आज भी जारी है।
सत्यम के बी. रामलिंग राजू साफ्टवेयर की दुनिया के कितने बड़े सूरमा थे, इसका तो अंदाजा नहीं है लेकिन कुछ आदमी बिठाकर कोई प्रोसेसिंग प्रोजेक्ट अपेक्षाकृत कम कीमत पर पूरा करवा लेने का जो धंधा अपने यहां के आईटी महारथी करते आए हैं उसमें करीब दस साल उनकी अच्छी गति रही। कंपनी 87 में बनी लेकिन नाम, पैसा और शोहरत इसने 97 से 2007 तक के बीच कमाया। पिछले दो-तीन साल से अंग्रेजी वाले सत्यम की स्पेलिंग पलट कर बनाई गई राजू के ही परोक्ष मालिकाने वाली मेटास नाम की दो कंपनियों ने जब इन्फ्रास्ट्रक्चर और रीयल एस्टेट में अपना खेल करना शुरू हुआ तो किसी न किसी का माथा जरूर ठनकना चाहिए था। नहीं ठनका, इसका मतलब यही है कि या तो पूरे देश का ही माथा फिरा हुआ है, या अनजाने में माथे की जगह मटके जैसा कुछ आ जाने का पता भी देश को नहीं चल पाया है।
मेटास इन्फ्रास्ट्रक्चर को हैदराबाद मेट्रो बिछाने का ठेका मिला तो सलाहकार ई. श्रीधरन ने सरकार को चिट्ठी लिखी कि इसमें घपला है। ठेकेदार मेट्रो का एलाइनमेंट बदल कर मेटास प्रापर्टीज के नाम से खरीदी गई अपनी विशाल जमीनों की तरफ ले जा रहा है ताकि साल भर में उन्हें पांच गुनी कीमत पर बेच सके। इस चिट्ठी का जवाब ठेकेदार के बजाय आंध्र की कांग्रेसी सरकार ने जारी किया कि वह मानहानि के आरोप में श्रीधरन को अदालत में घसीटने जा रही है। केंद्र से प्लानिंग का कमीशन का बयान भी अगले दिन ही आया कि श्रीधरन की शंकाएं निराधार हैं। सवाल है, एक आदमी को आप उसकी अकलमंदी के लिए पद्म विभूषण वगैरह देते हैं तो कोई अक्लमंदी की बात कहते ही उसे बेअक्ल क्यों बताने लगते हैं। आज बी. रामलिंग राजू जेल में हैं तो वाईएस राजशेखर रेड्डी और मोंटेक सिंह अहलूवालिया अपने पदों पर ससम्मान कैसे मौजूद हैं, यह सवाल विपक्ष भी नहीं पूछ रहा क्योंकि सौदे में बराबर की साझेदारी टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू की भी है।
किसी देश की संपदा नीचे से ऊपर की तरफ ही सृजित होती है, यानी खेती, उद्योग और सुपरस्ट्रक्चर। यह एक पारंपरिक नजरिया है और इसे ज्यादा ठस्स ढंग से न लिया जाए इसलिए कहा जा सकता है कि एक मीजान में ऊपरी पूंजी की देसी-विदेशी डोज मिल जाए तो राष्ट्रीय संपदा का यह पौधा ज्यादा अच्छी तरह फल-फूल सकता है। लेकिन एक बड़े देश की विकास दर को उत्पादन संबंधों में कोई बुनियादी बदलाव किए बगैर 5 से प्रतिशत से उठाकर स्थायी रूप से 9 प्रतिशत तक ले जाने की जादुई क्षमता वाली खाद की भूमिका ऐसी पूंजी निभा सकती है या नहीं, इसका सही अंदाजा लगाने का वक्त अब आ रहा है।
काफी संदेह है कि जिन कंपनियों की बैलेंस शीट देख कर इतनी ऊंची विकास दर का हिसाब बैठाया गया है, उनमें से ज्यादातर नहीं तो कम से कम एक चौथाई सत्यम जैसे ही खेल-कूद की उपज हैं। कुछ साख बनाई, राजनीतिक संपर्क जोड़े, बैंकों से कर्ज का जुगाड़ किया और फर्जी बैलेंस शीट के आधार पर शेयर फ्लोट करके बाजार से पैसे बटोरने लगे। पिछले साल शायद 27 या 28 जनवरी को रिलायंस पावर का आईपीओ क्लोज होने के बाद मैंने एक पोस्ट लिखी थी जिसमें इस खेल का अंदाजा लगाने की कोशिश की गई थी। सवाल था कि एक कंपनी, जो धेले भर का भी उत्पादन न कर रही हो, बाजार में अपना आईपीओ फेस वैल्यू की पचास गुनी कीमत पर कैसे उतार सकती है? जवाब सिर्फ रिलायंस नहीं, पूरे हिंदुस्तानी शेयर बाजार की बर्बादी के रूप में दिखाई पड़ा। उस प्रक्रिया का अगला चरण सत्यम है। लेकिन जमीन पर बिल्डरों और डेवलपरों के रूप में छोटे-बड़े हजारों सत्यम विकसित होते दिखाई दे रहे हैं। इनके खेल का अंदाजा मार्च-अप्रैल तक मिलने लगेगा।
आज इलाहाबाद बैंक की कर्ज वापसी के जरिए इस भंवर से अपने कदम बाहर निकाल लेने का संतोष है। लेकिन व्यक्तिगत फैसले की यह किसी भी व्यवस्था में बहुत सीमित मात्रा में ही उपलब्ध होती है। कौन जाने कब कोई और लहर आए और अपने पांव उखाड़ती चली जाए। कोशिश करूंगा कि जब ऐसा हो तब भी अपनी तरफ से चुप्पी न सधी रहे, कुछ बातें उस बारे में भी आपसे जरूर शेयर की जाएं।
निजी दुनिया की एक बड़ी खबर यह है कि मित्र ब्रजेश्वर मदान का बहुप्रतीक्षित कविता संग्रह आलमारी में रख दिया है घर आ गया है और खालिद के मार्फत उसे सूंघने, छूने और देखने का मौका भी मिल गया है। समय मिला तो किसी दिन इस संग्रह की कुछ कविताएं यहां डालूंगा। बीच में पहली बार राजस्थान जाने का मौका मिला। लेकिन ये सब तजुर्बे शेयर तब कर पाता, जब रोज थोड़ा-बहुत लिखने का मौका मिलता। मौके...तुम कहां हो प्यारे मौके....
13 comments:
चलिए अब बिना कर्जमु्क्त होकर बिंदास जिदगी बिताएं, बाकी कभी भी मन में ये सवाल मत दोहराइए कि क्या वाकई कोई इंसान कर्जमुक्त हो सकता है।
आज बी. रामलिंग राजू जेल में हैं तो वाईएस राजशेखर रेड्डी और मोंटेक सिंह अहलूवालिया अपने पदों पर ससम्मान कैसे मौजूद हैं, यह सवाल विपक्ष भी नहीं पूछ रहा क्योंकि सौदे में बराबर की साझेदारी टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू की भी है।
बहुत बेहतरीन समीक्षा की है आपने। सत्यम तो एक नाम है। जिस तरह से कंपनियां बढ़ी हैं और हवा में लाभ दिखाकर छोटे-छोटे लोगों से शेयर बाजार में पैसा खींचा गया है, लोगों को शेयरबाजार ढहाकर कंगाल किया गया है, यह सब पूंजीवाद का खेल ही तो है। अगर ढंग से जांच की जाए तो तमाम कंपनियां धराशायी पाई जाएंगी। इनमें भी शायद पहले नंबर पर रिलायंस होगा और दूसरे पर डीएलएफ।
पुरानी शंकाओं को अपनी कहानी के माध्यम से याद दिलाने के लिए आभार।
चलो आपके माध्यम से यह तो पता चला कि राजू के ही परोक्ष मालिकाने वाली मेटास नाम की दो कंपनियों ने जब इन्फ्रास्ट्रक्चर और रीयल एस्टेट में अपना खेल करना शुरू हुआ तो किसी न किसी का माथा जरूर ठनकना चाहिए था।
क्या खूब रही
मेटास इन्फ्रास्ट्रक्चर को हैदराबाद मेट्रो बिछाने का ठेका मिला तो सलाहकार ई. श्रीधरन ने सरकार को चिट्ठी लिखी कि इसमें घपला है। ठेकेदार मेट्रो का एलाइनमेंट बदल कर मेटास प्रापर्टीज के नाम से खरीदी गई अपनी विशाल जमीनों की तरफ ले जा रहा है ताकि साल भर में उन्हें पांच गुनी कीमत पर बेच सके। इस चिट्ठी का जवाब ठेकेदार के बजाय आंध्र की कांग्रेसी सरकार ने जारी किया कि वह मानहानि के आरोप में श्रीधरन को अदालत में घसीटने जा रही है। केंद्र से प्लानिंग का कमीशन का बयान भी अगले दिन ही आया कि श्रीधरन की शंकाएं निराधार हैं। सवाल है, एक आदमी को आप उसकी अकलमंदी के लिए पद्म विभूषण वगैरह देते हैं तो कोई अक्लमंदी की बात कहते ही उसे बेअक्ल क्यों बताने लगते हैं। आज बी. रामलिंग राजू जेल में हैं तो वाईएस राजशेखर रेड्डी और मोंटेक सिंह अहलूवालिया अपने पदों पर ससम्मान कैसे मौजूद हैं, यह सवाल विपक्ष भी नहीं पूछ रहा क्योंकि सौदे में बराबर की साझेदारी टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू की भी है।
माफ करना आप इतनी भयानक बात आप कैसे कर सकते हैं . . . .
इस साफगोई के लेखन के लिए आपको धन्यवाद
केसर
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आप ने बहुत नेक काम किया है, कर्जा उतार कर। कर्जहीन जीवन जीना बहुत बड़ा सपना है। इसे जीने का आनंद कुछ और है। मैं तीन बरसों से इस सपने को साकार करने के प्रयत्न में हूँ। लेकिन कर्ज है कि कम होने के बजाय़ बढ़ जाता है।
चंद्रभूषण जी
मत्यास इन्फ़्रस्त्रक्चर को हैदराबाद शहर के मेट्रो निर्माण के ठेके के पीछे आई टी जगत के इस नटवर लाल का रसूख और सब का मिला जुला गोरख धंधा ही रहा होगा , अब यह संदेह पुख्ता होता जा रहा है.
आपने श्री ई श्रीधरन द्वारा इस सम्बन्ध में दर्ज अप्पत्ति का उल्लेख कर पुरे प्रकरण को एक सही सन्दर्भ दिया है.शीर्ष पर गठजोड़ बहुत मजबूत है . नटवर लालों की पुरी मंडली भाल जेल कैसे जा सकती है.
इस पुरे प्रकरण का दुर्भाग्य पूर्ण पहलू यह है की भारत के नौजवान आई टी प्रोफ़ेस्सिओनल्स और अन्य सम्मानित कंपनियों की इज्जत में बट्टा लगाने का डर है.
इस गोरखधंधे का हर पहलू उजागर होना बाकी है.
रोचक लेख और जानकारी के लिए बधाई
सादर
कर्जमुक्त सुबह का सूरज कैसा होता है, इस अनुभव को भी तो साझा करें... हमें तो लगता है दशकों लगेंगे। सारे बैंक रायसाहब हो गए हैं और हम हैं कि होरी की तरह बस ब्याज भर भरते हैं।
पर चलिए आपकी मुक्ति से ही राहत महसूस कर लेते हैं... हमारे भी दिन फिरेंगे
दूसरों के पैसे को नाज़ायज और बोझ समझनें वाले ही कर्ज़ मुक्त होंना चाहते हैं। ऎसे ही लोग कर्ज़ मुक्ति को आनंदकर या संतोषप्रद मानते है। लेकिन जिन हाँथों नें दूसरों की पूँजी कब्जियाई हुई है, वह कर्ज़ को कर्ज़ मानते ही कहाँ हैं? मूँदड़ा काँण्ड़ से लेकर सत्यम तक एक अबाध भ्रष्टाचार का नाला नेंताओं,उद्योगपतियों,ब्यूरोक्रेट्स और मीड़िया की मिलीभगत से अब तक बहता चला आरहा है,क्या इसका कोई अन्त है? जनता कब तक छली जाती रहेगी? दक्षिण पंथी राजनैतिक दलों को दूर-पास से मैनें भी देखा है। आमजन के सामनें उनके चेहरे भी अनावॄत्त हैं। नक्सलवाद और उनके जनक संगठनों से आप भली भांति अवगत हैं। मूँदड़ा काँण्ड़ से लेकर बोफोर्स काँण्ड़ तक हमारे साम्यवादी दल इन मुद्दों पर मुखर हो कर बोलते थे। क्या कारण है तेलगी से लेकर सत्यम तक के मामले में वे शांत प्रतिक्रिया दे रहे हैं? क्या उनके लिए यह जनहित के मुद्दे नही रहे या वे भी इस पाप में शामिल हो गये हैं?
बचपन में दादाजी से कर्ज की अनोखी परिभाषा सुनी थी. आज आपके कर्जमुक्त होने पर सहसा याद हो आई.
क- कलेजे के; र- रक्त को; ज- जलाने वाला. अब आपके कलेजे का रक्त नहीं जलेगा. बधाई.
आशुतोष ने मेरे मन कि बात कह दी!
chandu maine sapana dekha raju jasi ek co. apni bhi hai.
good stuff. aptly said...
which application are u using for typing in Hindi...? i was searching for user friendly tool and found 'quillapd'..do u use the same...?
गुरुदेव - (१) मेरा भी कर्जा उतर चुका है (२) आप अकवि क्यों बन रहे हैं - बड़े दिनों से अक्षयपात्र से कुछ मिला नहीं [ :-)]
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