Sunday, January 4, 2009

फुकुयामा, हंटिंगटन और इन्सानी नियति

अगर अपनी बात कहने में मुझे एक-दो विदेशियों के नाम लेने पड़ जाएं तो कहीं आप इसे मेरा ज्ञान छांटना तो न मान लेंगे? ऐसे-ऐसे घनचक्करों से पाला पड़ गया है कि सोचना पड़ता है। आपको लगे भी तो प्लीज, थोड़ा धीरज रखिएगा। मेरा ऐसा कोई मकसद नहीं है। कुछ समय तक मुझे जान लेने के बाद आपको अपना नतीजा बदलना पड़ सकता है।

बहरहाल, 1992 में सोवियत संघ का पतन हुआ तो दो अमेरिकी सिद्धांतकार उछल कर नए समय का दर्शन और विचारधारा गढ़ने आए। फ्रांसिस फुकुयामा, जिन्होंने शीतयुद्ध के वैचारिक टकरावों को नोस्टैल्जिया के साथ याद किया और जर्मन फिलास्फर हीगल से नाता जोड़ते हुए मानव सभ्यता की चरम अवस्था फ्री मार्केट कैपिटलिज्म और लिबरल डेमोक्रेसी बताई। फुकुयामा का कहना था कि साम्यवाद के खात्मे के साथ ही दुविधामुक्त हुई दुनिया अब अपेक्षाकृत सीधे रास्तों से अपनी इस पूर्वनिर्धारित नियति की ओर बढ़ेगी। उनके ठीक बाद सैमुअल हंटिंगटन नाम के सज्जन ने दावा किया कि शीतयुद्ध के वैचारिक सरलीकरण ने इतिहास के एक कहीं ज्यादा टकराव को दुनिया की नजरों से ओझल कर दिया था। उनके मुताबिक ये टकराव दरअसल सभ्यता के संघर्ष हैं, जो धुंध खत्म हो जाने के बाद अब इतिहास की मुख्य संचालक शक्ति के रूप में काम करने लगेंगे।

ये दूसरे वाले सज्जन अभी हाल में मर गए तो पहले वाले ने उछलकर उनकी याद में एक जबरजंग श्रद्धांजलि लिखी जिसमें बुढ़ऊ का बड़ा सम्मान करते हुए कहा कि उनका विश्लेषण पैन-इस्लामवादियों और रूसी राष्ट्रवादियों को खूब रास आया, लेकिन इन सभ्यताओं की मुख्यधारा भी चूंकि फ्री मार्केट कैपिटलिज्म और लिबरल डेमोक्रेसी को ही काम्य मानती है लिहाजा बात तो आखिरकार अपनी ही सही साबित होनी है।

दुर्भाग्यवश, यह श्रद्धांजलि लिखने का मौका उन्हें ऐसे समय मिला जब बाकी दुनिया की तो बात ही छोड़ें, खुद अमेरिका में ही फ्री मार्केट कैपिटलिज्म का बाजा बजा हुआ है। चीनी बैंकर अमेरिका के भीषण बेल-आउट पैकेज को सोशलिज्म विद अमेरिकन करैक्टरिस्टिक्स बताते हुए हंस-हंस कर लोटपोट हुए जा रहे हैं। धीर-गंभीर अमेरिकी चिंतक इसे अमेरिकी पूंजीवाद के बजाय जार्ज बुश या एलन ग्रीनस्पैन या किसी और का रचा हुआ संकट बता रहे हैं लेकिन जो चीज ही अभी पूरी तरह सामने नहीं आई है उसका कारगर विश्लेषण कोई क्या खाकर करेगा।

दिल्ली में कुछ साल पहले दिल्ली स्कूल आफ इकनामिक्स में एक कैंड़े के अमेरिकी चिंतक नोम चोम्स्की को सुनने का मौका मिला, जिनकी बाद में एक-दो किताबें मैंने ट्रांसलेट भी कीं। इसके कुछ ही समय बाद ठीक इसी जगह उत्तर आधुनिक फ्रांसीसी चिंतक जाक दरीदा को भी सुना। इन दोनों ने ही हंटिंगटन और फुकुयामा की कस के रगड़ाई की थी। खास कर दरीदा ने अपने पेपर झूठ का इतिहास में फुकुयामा की जम कर खबर ली थी और बताया था कि अकेडमिक्स में आने से पहले की अपनी जिंदगी उन्होंने सीआईए के कर्मचारी के रूप में गुजारी थी।

चोम्स्की और दरीदा की बातों से यह रहस्य भी उजागर हुआ था कि हंटिंगटन और फुकुयामा का रिश्ता दर्शन और चिंतन से ज्यादा अमेरिकी रणनीति से है और इनके बीच वैसा कोई विरोध नहीं है, जैसा ये दिखाने का प्रयास करते हैं। बाकी दुनिया को सभ्यताओं के कथित संघर्ष में उलझाकर धीरे-धीरे उसे अमेरिकी दबदबे वाली एकतरफा किस्म की सो-काल्ड मार्केट की ओर ठेलना ही अब तक अमेरिकी थैलीशाहों की रणनीति रही है, जिसे पोस्ट-सोवियत युग में ये खामखा चिंतन का जामा पहना रहे हैं।

खुद चोम्स्की और दरीदा की सोच में बहुत थोड़ी ही चीजें साझा मानी जा सकती हैं लिहाजा इनके साथ समझ का कोई पितृतुल्य नाता जोड़ना बेतुकी बात है। अलबत्ता एक साझा एतराज इन पर जरूर उठाया जा सकता है कि अमेरिका या किसी और केंद्रीय सत्ता को इतना ज्यादा वजन देकर दुनिया के बारे में कोई आम बात कहना क्या उचित है? मसलन, क्या यह कहना बिल्कुल वाजिब है कि अगर अंग्रेज हिंदुओं और मुसलमानों के बीच फूट नहीं डालते तो वे हमेशा आपस में भाई-भाई की तरह रहते? टकरावों के इतने आसान, कांग्रेसी टाइप समाधान ज्यादा समय तक काम नहीं आते। इतिहास की गुत्थियां सामना करने से हल होती हैं, कतराने से नहीं। इसलिए हंटिंगटन और फुकुयामा के सरलीकरणों से चोम्स्की और दरीदा के सरलीकरणों को बेहतर मानने का ज्यादा मतलब मेरी समझ में नहीं आता।

कार्ल मार्क्स की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे समाज की मुश्किल से मुश्किल गुत्थी का सामना किसी गणितज्ञ की तरह करते थे- एक-एक कर उनकी पर्तें खोलना, उन्हें सुलझाना, फिर उन्हें जोड़ कर उनकी ज्यादा पारदर्शी तस्वीर बनाने की कोशश करना। बल्कि मुझे तो मार्क्स से भी ज्यादा सोच की यह तरतीब एंगेल्स में नजर आती है। उनके चेलों और अनुयायियों में यह सिफत नहीं थी, और बीसवीं सदी में रूसियों ने तो मार्क्स को बाकायदा जारशाही मार्क्स बना डाला। स्तालिन के जमाने में ईजाद हुई- आदिम साम्यवाद, दासप्रथा, सामंतवाद, पूंजीवाद, समाजवाद और साम्यवाद- की सीढ़ी के डंडे पकड़ कर हम लोगों ने भी दुनिया को देखना सीखा है। बाद में मार्क्स-एंगेल्स की किताबों में ऐसी कोई चीज लिखी न देख कर बड़ी निराशा हुई थी।

मानव इतिहास की प्रेरणा, उसकी चालक शक्ति, उसकी नियति जैसी कोई चीज होती भी है या नहीं? और अगर ऐसा कुछ होता है तो उसका सड़क पर चलते एक आम आदमी की जिंदगी से, उसके सुख-दुख, रिश्तों-नातों से, उसकी सोच-समझ से क्या रिश्ता बनता है? यह सवाल फासीवाद, नाजीवाद, स्तालिनवाद, बुशवाद और ओसामावाद जैसी बंद गलियों से गुजर कर इक्कीसवीं सदी में नए सिरे से खुल गया है। फुकुयामा और हंटिंगटन का रोल इसमें इतना जरूर रेखांकित किया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने दो फुग्गे उछाल कर लंबे अर्से तक उबासियों का सबब समझे जाने वाले इस सवाल में कुछ रोमांच पैदा किया।

वस्तुगत रूप से इस सवाल का एक सिरा सोवियत युग के पराभव से खुला था और दूसरा अभी की ग्लोबल फाइनेंशियल क्राइसिस के साथ खुलने की राह पर है। डेढ़ सौ साल पहले मार्क्स और एंगेल्स ने इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की थी। आने वाले समय में शायद कुछ और लोग इसे आगे बढ़ाएं। यह काम दुनिया में जहां भी, जिस भी कोने पर हो, उस पर नजर रखी जानी चाहिए क्योंकि अपने अस्तित्व के बड़े सवालों से कतरा कर निकल जाने की सुविधा प्रकृति ने मानुस जाति को नहीं दी है।

13 comments:

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लगा आपका लिखा पढ़ना! ज्ञान छांटना तो कत्तई नहीं लगा!

Prakash Badal said...

आपने अच्छा लिखा है, नव वर्ष की आपको बधाई।

Prakash Badal said...
This comment has been removed by the author.
azdak said...

बहुत वज़ह नहीं है, मगर बात निकली है तो बस रेफरेंस के लिए याद कर रहा हूं..
अपने यहां बड़े एक्‍टर बड़ा पैसा बनाते हैं, अमरीका में कभी-कभी वे अच्‍छी फ़ि‍ल्‍म भी बना ले जाते हैं. 2006 में रॉबर्ट डीनीरो ने कोल्‍ड वॉर के दिनों के माहौल पर एक बड़ी शांत और कंटेप्‍लेटिव फ़ि‍ल्‍म बनायी थी- ‘द गुड शेपर्ड’. लगभग तीन घंटे इस बड़ी फ़ि‍ल्‍म में एक किरदार की ज़िंदगी के गिर्द बुनी कहानी के साथ बड़े धीमे, पारदर्शी तरीके से दिखता है कि सीआईए और उसके पीछे-पीछे अमरीकी कूटनीति काम कैसे करती रही सन पैंतालिस के बाद से. फ़ि‍ल्‍म के बीच में कहीं, साठ के दशक का वाक़या है, केजीबी के एक भगोड़े एजेंट की सीआईए के गुंडों ने जमकर तुड़ाई की है, कुछ केमिकल इंजेक्‍ट किया है कि वह सच्‍चायी उगले, बेचारा पीटा हुआ एजेंट बहककर रूसी में गाना गाने लगता है, फिर रूसी में बेखौफ़ मन की भड़ास निकालता है:
“Soviet power it a myth. A freak show. There are no spare parts, nothing is working, nothing. it's nothing but painted rust. But you. You need to keep the Russian myth alive to maintain your military industrial complex. Your system depends on Russia being perceived as a mortal threat. It's not a threat. It was never a threat it will never be a threat. It is a rotted bloated cow.”

चंद्रभूषण said...

Pramod bhai, film khojane ki koshish karunga. De Niro ke naam se shaid mil jaye. Anup Bhai, baat hue bahut din beet gaye. Prakash ji, pahali baar aaye ho is gali, ummid hai milna hota rahega.

स्वप्नदर्शी said...

Many times I tried to read these guys and tried to bribe myself into the thought of "end of history", but could not do that so far.

But the intent, and integrity of people like Noam and Harward Zinn can not be compared with Fukuyama and DeNero. They are not same thing.

Unknown said...

ठीक कहा आपने...काफ़ी अच्छा लिखा है...

azdak said...

तीन घूंटी (लाईक थ्री चीयर्स) जय बमबूटी फ़ॉर व्‍हॉट यू से, स्‍वप्‍नदर्शीजी, ब्रावो!

चंद्रभूषण said...

Swapndarshi, integrity is quiet another question. For the context, I think, the onus should be placed upon explanation of complexity. Chomsky explains Palastine well, but not the Pakistan that well. Derrida is too much non-political. Zinn and DeNero I dont know. Let me have something of them..please.

azdak said...

@Chandu dear,
go buy yourself a copy of Howard Zinn's "A People's History of the United States" as a new year gift. You'll find it in one of Delhi's literate book shops, or online for sure.
And please spare Mr. Chomsky for not having clear ideas on Pakistan. What he has done, and been doing all his life, is more than enough, i think, for an individual..
लौ लगाये रहो. समय जलाये रहो.

अनूप शुक्ल said...

टिप्पणियां पढ़ना और भी अच्छा लगा। मुझे हमेशा से लगता है कि प्रमोदजी को भी थोड़ा और सरल अंदाज में अपनी बातें/अनुभव बांटते रहना चाहिये। आपसे अनुरोध है कि हफ़्ते में एकाध पोस्ट लिखने का प्रयास करें।

स्वप्नदर्शी said...

Chanduji,
for explaination of Pakistan and rest of the muslim world, I find V. S. Naipaul's "An islamic journey" quite useful.

and rest I learn from frinds and collegues who hail from those countries.

अभय तिवारी said...

आप की सोच की सफ़ाई से हमेशा से प्रभावित रहा हूँ.. मुश्किल विषयों को आसान बना कर लिखते हैं आप.. धन्यवाद..
हफ़्ते में एक बार का आईडिया बुरा नहीं..