Thursday, May 1, 2008

एक हड़ताल की दास्तान

आरा शहर में सफाईकर्मियों की कोई यूनियन नहीं थी। उनका एक नामनिहाद संगठन दिलीप सिंह नाम का एक दलाल कांग्रेसी नेता चलाता था, जिसे मजदूरों की मुश्किलों से कुछ भी लेना-देना नहीं था। 1993 की गर्मियां शुरू हो चुकी थीं और सफाईकर्मियों को तेरह महीने से एक भी पैसे पगार नहीं मिली थी। उनकी तनख्वाह की व्यवस्था भी अजीब थी। कहने को वे नगरपालिका के कर्मचारी थे लेकिन हर महीने वेतन का उनका कोई सिस्टम ही नहीं था। मुनिसपाल्टी में उनके नामों की एक लिस्ट रखी थी। जब तनख्वाह बंटनी होती थी तो ठीकेदार उनसे अंगूठे लगवाकर अपनी राजी-खुशी के मुताबिक किसी को हजार किसी को बारह सौ दे दिया करता था।

हम लोगों के लिए यहां संगठन बनाना लोहे के चने चबाने जैसा था। दिन भर बस्ती में कोई मिलता नहीं था और शाम को लोग पता नहीं कहां से पैसे जुटाकर कच्ची दारू या ताड़ी पी लेते थे। फिर तो वे इस हाल में भी नहीं होते थे कि चैन से कहीं बैठ सकें। ऐसे में उनसे बातचीत तो क्या होती। संयोग से शहर की मेहतर बस्ती के एक आदमी सदर अस्पताल में काम करते थे और हम लोगों के साथ उनकी कुछ हमदर्दी थी। उन्हीं के जरिए हम लोगों ने इस बस्ती में शाम के वक्त उठना-बैठना शुरू किया। तय हुआ कि जो भी थोड़ा-बहुत बैठ पाने की हालत में हो, उसे साथ में बैठने के लिए बुला लिया जाए। पुरुष फिर भी शुरू में आने में हिचकते रहे लेकिन महिलाएं धीरे-धीरे जमा होने लगीं।

करीब दो महीने की तैयारी के बाद जब संगठन का कुछ हल्का-फुल्का ढांचा बनना शुरू हुआ तो सबसे पहले पुरुषों से कसम ली गई कि वे शराब अगर पिएंगे तो दिन में या शाम को नहीं, रात में घर में बैठकर पिएंगे। महिलाओं ने कहा कि जो भी यह कसम तोड़ेगा, उसकी सार्वजनिक रूप से झाड़ुओं से पिटाई की जाएगी। फिर हुआ कि नहीं, कम से कम एक बार संबंधित व्यक्ति को चेतावनी दी जाएगी और अगली शाम की मीटिंग में सार्वजनिक रूप से उन्हें समझाने का प्रयास किया जाएगा। फिर भी कोई नहीं सुधरा तो महिलाएं उससे निपटने के लिए स्वतंत्र होंगी।

अप्रैल-मई में संगठन की तरफ से हड़ताल करने का फैसला किया गया। दिलीप सिंह गुट के दो-तीन खांटी लोग बसंती में मौजूद थे। उन्होंने भीतर-भीतर माहौल बनाया कि हड़ताल करेंगे तो सबको रोल से हटा दिया जाएगा, खुद यह बस्ती ही गैरकानूनी है, तोड़ दी जाएगी। लेकिन लोगों में एक नवजागरण जैसी लहर थी। शादी-ब्याह की बातें तक वे शाम की मीटिंगों में करने लगे थे, बच्चों के पढ़ने-लिखने का कुछ खाका बनने लगा था, लिहाजा उन्होंने अफवाहों पर कान नहीं दिया और अपने फैसले पर डटे रहे।

समस्या यह थी कि सफाईकर्मी कोई कारखाना, कोई दफ्तर या कोई बैंक तो नहीं चलाते जो उनकी हड़ताल पर कोई चौंककर गौर करता। सफाई की हड़ताल के कोई मायने किसी को लंबे समय तक नहीं समझ में आए क्योंकि वैसे भी आरा में कौन सी सफाई हर रोज हर जगह हुआ करती थी। मुनिसपाल्टी पर सभाएं लगभग हर रोज हुआ करती थीं। करीब पंद्रह दिनों की हड़ताल के बाद हम लोगों ने शहर के तमाम पढ़े-लिखे, गणमान्य लोगों को बुलाकर उन्हें सफाईकर्मियों की समस्या समझाने का प्रयास किया। अखबारों में खबर भी जारी हुई, लेकिन जिले के ताकतवर राजनीतिक दलों और पटना की सरकार के जिम्मे करने को बहुत सारे दूसरे काम थे।

अप्रैल के बाद मई भी बीतने जा रही थी। आखिरकार तंग आकर जुझारू लोगों के एक छोटे ग्रुप ने गुपचुप फैसला किया कि शहर के सारे नाले जाम कर दिए जाएं, ताकि किसी को तो लगे कि सफाईकर्मी की भी शहर में कुछ जरूरत होती है। पूरे आरा शहर का कचरा बाहर निकालने वाले कुल ग्यारह नाले थे, जिनकी निकासी की सारी जगहें सफाईकर्मियों को अच्छी तरह पता थीं, और वह तकनीक भी, जिनके जरिए नाले बंद किए जा सकते थे। एक रात इस काम को अंजाम देकर लौटते कुछ लोगों को पुलिस ने पकड़ लिया। फिर रातोंरात शहर के उस थाने पर जबर्दस्त प्रदर्शन हुआ, जिसके हवालात में उन्हें रखा गया था। पुलिस वाले मारपीट पर आए तो उनकी कुछ गाड़ियां टूटीं। लोगों के हाथ-पैर टूटे तो कई पुलिस वाले भी ठीकठाक पिटे।

रात के इस बवाल ने आरा के एसपी-डीएम की नींद में खलल पैदा कर दिया। अगली सुबह कचहरी के घेराव का नारा दिया गया। शहर के दूसरे मेहनतकश तबकों को भी सफाईकर्मियों के पक्ष में खड़े होने के लिए तैयार किया गया। रिक्शे वाले, तांगे वाले, बक्सा मजदूर, दर्जी, खोखे-पटरी के दुकानदार और रेलवे स्टेशन के पल्लेदार सैकड़ों की संख्या में बारह बजे के आसपास कचहरी पर जमा हुए। फिर तीन बजे के आसपास डीएम ने पांच लोगों को बातचीत के लिए बुलाया। लोग अड़ गए कि डीएम को बाहर आकर सबसे एक साथ बात करनी होगी।

काफी लाग-लपेट के बाद इसके लिए तैयार हुए डीएम ने कचहरी के ग्रिल के पीछे से लोगों को संबोधित किया कि उनकी पटना बातचीत हो गई है। सफाईकर्मियों की तनख्वाह करीब सवा साल से आरा में ही नहीं, पूरे राज्य में बकाया है। फिर भी आरा के लिए कुछ करने को वे लोग तैयार हैं। पूरी तो एक बार में नहीं दे सकते लेकिन तीन-तीन महीने की करके दीवाली तक सारा हिसाब बराबर कर देंगे। यह आरा शहर की विरली कामयाब हड़तालों में एक थी और इसके मायने शहर के मेहनतकश वर्ग के लिए सफाईकर्मियों की तनख्वाह से कहीं ज्यादा थे।

8 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

कामयाब हड़ताल और मिली जीत की बधाई। आज भी इसी तरह के काम की जरूरत है। बाधाएं अधिक हैं।

Prabhakar Pandey said...

एकता में बहुत बल होता है। बस दिशा सही होनी चाहिए।

मैथिली गुप्त said...

पड़कर शरीर में फुरफुरी सी उठी. आपके संस्मरण सुनना आंनददायी है?

Batangad said...

दरअसल हड़तालें ज्यादातर मामलों में किसी दलाल नेता का हित साधने को होती रहीं और अपनी प्रसंगिकता ही खत्म करती रहीं। सच्चाई ये है कि इस जैसी ईमानदार हड़ताल तो, स्वस्थ समाज के लिए बेहद जरूरी है। लेकिन, हक की लड़ाई का ये हथियार जब बंधक बनाने का जरिया बनता है तो, मुश्किल होती है।

अफ़लातून said...

ऐसा काम आगे भी होगा ?

चंद्रभूषण said...

अफलातून दा, जबतक जीवन है, लोग हैं, तबतक होगा। अगर आप यह पूछना चाहते हैं कि इसमें मेरा दखल होगा या नहीं, तो यह सवाल मैं खुद से भी अक्सर करता हूं और उदास हो जाता हूं।

आशीष कुमार 'अंशु' said...

वाह! वाह!

Sarvesh said...

शाहाबाद के पानी का असर है. वहा का पानी बगावत के लिये ललकारते रहती है. किसी को भी गलती बर्दास्त नही करने देती. वहा का गरिब से लेकर अमीर तक बगावती नजर आयेगें.