Friday, April 18, 2008

असूर्यम्पश्या होलटाइमर (नेपाल डायरी-4)

एक छोटे से झरोखे से आती उगते सूरज की रोशनी सीधी आंख पर पड़ रही थी। यह बांस और लकड़ी की बनी चूल्हे और सिगड़ी के धुएं में लंबे समय तक सिझकर काली हो चली दुछत्ती या कोठे जैसी कोई जगह थी, जिसमें मेरे जैसा दरमियानी कद का आदमी भी अचके में खड़ा हो जाने पर सिर फुड़ा सकता था। इसी जगह सुबह-सुबह मेरी आंख खुली थी। थोड़ी देर तक तो कुछ समझ में ही नहीं आया। फिर ध्यान पड़ा कि कल शाम नेकपा (एमाले) के धादिङ जिला कार्यालय से बहुत लंबा, थकाऊ पहाड़ी रास्ता पैदल तय करके एक वरिष्ठ कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के साथ मैं यहां पहुंचा था और जैसे-तैसे दो-चार कौर मुंह में फेंक कर कोठे पर अचेत सो गया था।

रास्ते में कई नदियां पड़ी थीं, या शायद एक ही नदी को कई बार पार करना पड़ा था। बमुश्किल पंद्रह-बीस फुट चौड़ी लेकिन बहुत तेज बहने वाली बर्फ जितनी ठंडी उथली जलधाराएं। ठरते हुए पांव चिकने पत्थरों पर जरा भी फिसल जाएं तो आप किसी लकड़ी के लट्ठे की तरह बहते नजर आएं!

सीधी चढ़ाई चढ़ते हुए पहाड़ पर अच्छी-खासी ऊंचाई तक पहुंचना, फिर उतनी ही सीधी उतराई पर लुढ़कते हुए से नीचे आना, फिर थोड़ा सा समतल पार करके घुटनों तक पैंट चढ़ाए किसी का हाथ पकड़े-पकड़े डरते-कांपते नदी पार करना, फिर थोड़ा समतल, और फिर खड़ी चढ़ाई। यही प्रक्रिया कम से कम तीन बार दुहराई गई। पहले शाम के धुंधलके में, फिर घुप्प अंधरे में।

बिजली का दूर-दूर तक कहीं नामोनिशान नहीं। ऊंचे पहाड़ों पर बसी बस्तियों में जलती लालटेनों की रोशनी ही दिशा का अनुमान लगाने का अकेला सहारा। साथ चल रहे कार्यकर्ता स्थानीय थे, लेकिन उन्हें भी एक बार एक रास्ते पर कुछ दूर तक आगे बढ़ जाने के बाद वापस आकर दूसरा रास्ता पकड़ना पड़ा था। एक चढ़ाई पर बीच में ही कहीं मामूली लयभंग के साथ लगातार चलने वाली घरड़-घरड़ की आवाज सुनाई दी। मैंने पूछा, यह कैसी मशीन चल रही है। उन्होंने बताया, घराट है।

गेहूं पीसने की ठेठ पहाड़ी टेक्नीक, जो अपने कुमाऊं-गढ़वाल से अब तकरीबन गायब ही हो चली है । नदी के किसी ऊंचे बिंदु से नाली निकाल कर खड़े गिरते हुए पानी से चक्की चलाई जाती है। कम से कम एक आदमी घराट पर हमेशा मौजूद रहता है। जिस भी परिवार पर घराट का जिम्मा होता है वह पसेरी भर गेहूं पर एक पाव आटे के हिसाब से पिसाई लेता है।

यह नेकपा (एमाले) के एक पुराने समर्थक परिवार का घर था। रात के घने अंधेरे में इलाका जितना पिछड़ा नजर आ रहा था, दिन की तस्वीर उससे काफी अलग थी। भीतर का हाल चाहे जैसी भी हो लेकिन ऊंचाई पर बना हुआ यह घर भी बाहर से बहुत सुंदर था। चारो तरफ नींबू जैसे पेड़ थे। मैंने पूछा तो लोग बोले सुनतले के पेड़ हैं। सुनतला? पता चला संतरे को पूरे नेपाल में इसी नाम से पुकारा जाता है। हैसियत से लोग खुशहाल किसान नजर आए। संभवतः क्षत्रिय परिवार था। मैंने पूछा पार्टी से संपर्क कैसे हुआ, तो पता चला कि गांव के स्कूल में पढ़ाने वाले मास्टर साहब ही कम्युनिज्म को इस गांव और इस घर की दहलीज तक ले आए थे।

थोड़ी ही देर में इस घर से जुड़ा एक और रहस्य खुलना शुरू हुआ। पिछले साल यहां पुलिस दबिश देकर गई थी। मार-पीट तो नहीं की गई लेकिन कुर्की-जब्ती कर लेने, घर उजाड़ देने की धमकियां जरूर दी गई थीं। वजह? इस घर में नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) की दो होलटाइमर नेत्रियों का वास था।

बुआ और भतीजी, दो की दोनों पूर्णकालिक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता।...और अब उल्टे पल्ले के साथ सिर पर सफेद साड़ी का पल्लू लिए, कंधे पर अपना-अपना अपना-अपना झोला लटकाए दोनों तीसरे पहर इलाके में होने वाली एक चुनावी आमसभा की तैयारी के लिए एक साथ ही घर से बाहर निकल रही थीं।

पचीस-तीस साल की उम्र वाली उन महिलाओं का पहनावा-ओढ़ावा देखकर मैं कुछ चकित हुआ। उनके निकल जाने के बाद साथ आए कार्यकर्ता साथी से मैंने पूछा कि ये दोनों लोग सफेद कपड़े क्यों पहने हुए हैं, और उत्साह से दागे गए लाल सलाम के बाद भी चेहरे पर एक अजीब विषाद सा क्यों छाया हुआ है? उन्होंने पहले बात को टालने की कोशिश की, फिर धीरे-धीरे खुले।

पता चला कि नेपाल के गांवों में कम से कम ब्राह्मण-ठाकुर परिवारों में आज भी निस्संतान विधवाओं को असूर्यम्पश्या ही बनाए रखने का रिवाज है। इस जुबान टेढ़ी कर देने वाले शब्द से अब हम भारतीय जन नावाकिफ हो चले हैं, जो कि अच्छा ही है। इसका अर्थ होता है, ऐसी स्त्री, जिसका दर्शन कोई पुरुष तो क्या, खुद सूर्य भी न कर सके। यानी पूरा दिन घर में बंद रहने वाली स्त्री। कोई निस्संतान विधवा यदि इस नियम का उल्लंघन करती है तो उस परिवार के सामाजिक बहिष्कार की नौबत आ जाती है। सुनते हैं, यह रिवाज पहले भारत में भी था- सती से निचले दर्जे की एक वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में!

कार्यकर्ता साथी ने बताया कि नेपाल में कमउम्र विधवाएं दिखना आम बात है। रोजी-रोटी के लिए पुरुषों को प्रायः भारत जाकर फौज में या मेहनत-मजूरी के दूसरे कामों में लगकर कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। नेपाल में कहीं कोई काम मिल गया तो हालत और खराब रहती है क्योंकि यहां तो अभी कार्यस्थल की सुरक्षा की कोई अवधारणा ही नहीं है। उनकी अपेक्षा ज्यादा सुरक्षित उनकी पत्नियों का जीवन इन्हें जीते-जी मार देने का सबब बन जाता है। हालांकि वे भी इसे मात्र संयोग ही मानते थे कि इस घर में दो जवान विधवा स्त्रियां मौजूद थीं, और वे बुआ-भतीजी के रिश्ते के बावजूद लगभग हमउम्र भी थीं।

गांव के कम्युनिस्ट मास्टर साहब ने अस्सी के दशक में जब यहां सामाजिक जागरण का सिलसिला शुरू किया तो इसकी लौ धीरे-धीरे गांव की स्त्रियों तक भी पहुंची। फिर तो यहां की असूर्यम्पश्या अभिशप्त स्त्रियों ने न सिर्फ सूरज को बल्कि अपने इर्द-गिर्द की धरती और वहां रहने वाले इन्सानों को भी खुली आंखों देखना शुरू कर दिया। आज यह प्रक्रिया इन दोनों स्त्रियों को होलटाइमर बनाने की हद तक ले आई है और ये पूरे इलाके में जागृति फैला रही हैं।

कॉ. मदन भंडारी के नेतृत्व में नेकपा (माले) ने अपनी धज में यही बुनियादी बदलाव किया था। क्रांति की माओवादी पद्धति का अनुसरण करते हुए हथियारबंद संघर्षों के जरिए खुद को दूर-दराज के इलाकों में 'मुक्त-क्षेत्र' विकसित करने के काम में लगाए रखने के बजाय अस्सी के दशक में उसने एक व्यापक लोकतांत्रिक जनजागरण को अपना मुख्य एजेंडा बनाया। इसके लिए उच्च शिक्षण संस्थाओं के अलावा शिक्षकों को प्रशिक्षित करने वाले नॉर्मल स्कूलों में भी उसने अपना काम केंद्रित किया। इन प्रशिक्षण स्कूलों से निकले शिक्षक उसके भूमिगत कार्यकर्ताओं की भूमिका निभाते हुए ग्रामीण नेपाली समाज में परिवर्तन के खमीर बन गए।

लेकिन यह जानने में भी मुझे ज्यादा देर नहीं लगी कि माले (बाद में एमाले) की यह सामर्थ्य ही दरअसल उसकी सीमा भी थी। समाज के उच्चजातीय, मध्यवर्गीय तबकों में एक उदार लोकतांत्रिक चेतना विकसित करने का महत्व जगजाहिर है, लेकिन राजशाही और पूंजी की मिली-जुली ताकत का मुकाबला क्या सिर्फ इस चेतना के जरिए किया जा सकेगा? नव जनवादी क्रांति के लिए समर्पित ग्रामीण सर्वहारा की छापामार टुकड़ियों वाली बात अगर एक तरफ रख दें तो भी आंदोलन को कठिन से कठिन दौर में टिकाए रखने वाला समाज का दलित, उत्पीड़ित मेहनतकश तबका इस जनजागरण केंद्रित उदारवादी एजेंडे से किस हद तक आकर्षित हो सकेगा? उसी दिन तीसरे पहर हुई चुनावी आमसभा में लोगों की उदासीन सी भागीदारी देखकर यह संदेह और भी पुख्ता हो गया।

4 comments:

अफ़लातून said...

अद्भुत दैनन्दिनी !
बचपन में माता-पिता के साथ हिमाचल प्रदेश में एक सर्वोदय सम्मेलन में गया था ,वहाँ घराट देखा था ।
काश ! इन असूर्यम्पश्या बूआ-भतीजी में से कोई नई संविधान सभा में चुनी गयी हों और 'लाल ' सूरज की लालिमा से नव-जनवाद को आलोकित कर रही हों । ऐसी कितनी महिलाएं संविधान सभा में चुनी गयी हैं?पता चले तो बताइएगा । मेरी नानी , मालती देवी चौधुरी भारत की संविधान सभा में चुनी गयी थी ।
आपका पुख्ता सन्देह कब उलटा ?

काकेश said...

चारों भाग पढ़ लिये हैं. अच्छा लग रहा है आपकी कलम से नेपाल को जानना.

पहाड़ में आटा पीसने की पनचक्की जिसे घट कहते हैं अभी भी कहीं कहीं मिल जायेगी. लेकिन बांकी आपके पहाड़ का वर्णन वैसा ही है जिस पहाड़ में मैं पला बड़ा हूँ.

आगे की कड़ियों का इंतजार है.

Unknown said...

नेपाल पिछले साल गया रहा लेकिन वह काठमांडू रहा इस वृत्तांत में बहुत कुछ नया है -रोचक, सचेतक और ज्ञानवर्धक - rgds manish

स्वप्नदर्शी said...

नेपाल को इस तरह जानना अच्छा है आम भारतीय के लिये. मेरे लिये इसमे काफी कुछ जाना पहचाना है, काफी कुछ साथ मे पढने वाले नेपाली दोस्तो से पता था. घट की याद के साथ बचपन की कुछ और यादे लौट आयी.`