Monday, March 31, 2008

चंद्रमा की गंध, और धरती की भी

आपसे अगर कोई धरती की गंध के बारे में पूछे तो शायद कुछ भी बताते न बने। यहां हर चीज की अपनी अलग गंध है। बाकी चीजों को छोड़कर बात अगर सिर्फ हवा की गंध की करनी हो तो भी काम ज्यादा आसान नहीं होगा क्योंकि देश-दुनिया के हर इलाके की गंध हर मौसम में, यहां तक कि एक ही दिन के अलग-अलग वक्तों में भी बदलती रहती है। लेकिन हमारे पड़ोसी पिंड चंद्रमा को कम से कम गंध के मामले में इतना वैविध्य हासिल नहीं है।

चंद्रमा के पास अपना एक बहुत बड़ा इलाका है- क्षेत्रफल के लिहाज से लगभग अपने एशिया महाद्वीप जितना बड़ा (चंद्रमा का क्षेत्रफल 3 करोड़ 79 लाख 30 हजार वर्ग किलोमीटर है जबकि तुर्की से लेकर जापान तक और साइबेरिया से लेकर इंडोनेशिया के ठेठ दक्षिणी छोर तक एशिया का इससे थोड़ा ज्यादा- 4 करोड़ 38 लाख 10 हजार वर्ग किलोमीटर)। उतार-चढ़ाव (टोपोग्राफी) की विविधता यहां जबर्दस्त है- धरती से ज्यादा ऊंचे पहाड़ और यहां से ज्यादा गहरे गड्ढे। गर्मी-सर्दी की ऊंचाई-नीचाई में भी पृथ्वी चांद की बराबरी में कहीं नहीं ठहरती । लेकिन गंध के मामले में चंद्रमा हर जगह लगभग एक सा है।

जरा ठहरिए, इसमें एक छोटी सी समस्या है। गंध का अंदाजा सांस खींचकर ही लगाया जा सकता है लेकिन चंद्रमा पर सांस लेने के लिए हवा ही नहीं है। चंद्रमा पर अभी तक पहुंचे कुल 19 इन्सानों (सब के सब अमेरिकी) में से एकमात्र वैज्ञानिक (भूगर्भशास्त्री) हैरीसन श्मिट (अपोलो-17) ने प्रत्यक्ष प्रेक्षण के जरिए दर्ज किए जा सकने वाले जो सामान्य वैज्ञानिक तथ्य इसके बारे में इकट्ठा किए थे उनमें से फोटो और दस्तावेजों के रूप में मौजूद लगभग सभी की मूल प्रतियां नासा की एक लाइब्रेरियन को कबाड़ में फेंकी हुई मिलीं (संदर्भ, न्यू साइंटिस्ट, 26 जून 1993)। अमेरिका के सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थान की नजर में दुर्लभ प्रेक्षणों की इतनी ही अहमियत है!

बहरहाल, श्मिट के प्रेक्षणों में चंद्रमा की गंध भी शामिल थी, जो उनके मुताबिक जंग लगे लोहे को करीब से सूंघने पर आने वाली गंध जैसी है।

चंद्रमा में किसी किस्म की ज्वालामुखीय हलचल अभी बची है या नहीं, यह बहस अभी खत्म नही हुई है। जब-तब सतह पर नजर आ जाने वाली चमक अगर ऐसी ही हलचलों की निशानी हुई तो शायद कहीं-कहीं गंधक की गंधैली गैसों की गंध भी सूंघने को मिल जाए, लेकिन इस बारे में पक्की सूचना आज भी उतनी है जो अब से छत्तीस साल पहले अपोलो-17 की सवारी करके लौटे हैरीसन श्मिट ने दी थी- मोर्चे की बहुत हल्की गंध से गंधाता हुआ चांद।

इसी चांद के साथ मार्च के महीने में धरती पर गंध की कैसी-कैसी अठखेलियां जुड़ जाती हैं। ठहरी हुई हवा वाली बेचैन चांदनी रातों में ग्यारह-बारह बजे टहलते हुए किसी भी तरफ निकल जाइए। तरह-तरह की दुर्गंधों से भरे अभागे महानगरों में भी कम इस्तेमाल वाली किसी सड़क पर आप इस चमत्कार का आनंद ले सकते हैं। कहीं कोई नीम, बकाइन या मीठी नीम का पेड़ अनजाना-अनदेखा पड़ा रह गया हो तो इस वक्त उसका जादू सिर चढ़कर बोल रहा होगा।

मेरे लेखे नीम के फूलों की गंध का दुनिया में कोई जवाब नहीं है। गांवों में इसे देवी की देह-गंध समझा जाता है। मादक, बिल्कुल पागल कर देने वाली। रूपकीय नहीं, शाब्दिक अर्थों में भी! स्त्री-गीतों की सबसे प्यारी धुन- पंचरा- जिसे अन्य किसी भी मौसम में गाना निषिद्ध है, इसी गंध के साथ जुड़ी है। 'निबिया की डरिया मइया डारेलीं हिंड़ोलवा कि झुलि-झुलि ना/ मइया मोरी गावेलीं गितिया हो कि झुलि-झुलि ना।' असर ऐसा कि डांवाडोल मनःस्थिति वाले लोग औचक नींद में उठकर नीम के पेड़ पर झूलती देवी को देख भी लेते थे और फिर बड़ी धार-पौहार के बाद ही ठिकाने पर आ पाते थे।

महुआ तो अब निहायत पिछड़े इलाकों को छोड़कर भारत भूमि से उच्छिन्न ही हो गया है। एक समय था जब इसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार समझा जाता था, लेकिन आज महुआ के पेड़ कहीं खोजे नहीं मिलते। बीतते मार्च की उजेली रातों में मद्धिम मदिर गंध के बीच महुए का टपकना एक कभी न भूलने वाला दृश्य हुआ करता था। किससे पूछें कि धरती और चांद के करोड़ों साझा वर्षों में सिर्फ पिछले बीस-पचीस साल इस अद्भुत दृश्य को मिटा देने वाले क्यों साबित हुए?

दृश्यों और ध्वनियों का मेला लगा हुआ है, लेकिन गंध अब एक खोती हुई अनुभूति है। अपने भीतर इसका होना महसूस करने के लिए आपको अब नामी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के महंगे परफ्यूम इस्तेमाल करने होते हैं। इस क्षमता को अपने वास्तविक स्वरूप में बनाए रखने के लिए अब आपको शायद कुछ खास कसरतें करनी पड़ें- कुछ उसी तरह, जैसे हर सुबह पार्कों में लोग हंसने की याद जिलाए रखने के लिए एक से एक विद्रूप प्रस्तुत करते दिखाई-सुनाई देते हैं।

लेकिन इसकी नौबत न आए तो ही बेहतर है। आप चांद के नहीं, धरती के बाशिंदे हैं। जंग लगे लोहे की अपनी हल्की एकरस गंध को अपने घर छोड़कर प्यारा चंद्रमा लगभग हर रात ही आपके इर्द-गिर्द तरह-तरह की सुगंधियां बांटता फिरता है (मैथिली महाकवि विद्यापति इसे 'चुमावन का न्यौता देना' कहते हैं)। किसी रात चुपचाप घर में ताला मारकर अकेले निकल जाएं और हो सके तो अपने हिस्से की थोड़ी सी सौगात अपनी आत्मा में भर लें।

10 comments:

shashi said...

adbhut....mere nanihal me ab mahua ke ek do ped hi bache hai. shashi bhooshan dwivedi

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

वाह चंदू भाई!
विज्ञान और लोक संस्कृति की इतनी अच्छी खिचडी आपने पकाई है की मन प्रसन्न हो गया.

अभय तिवारी said...

क्या बात है चन्दू भाई.. हमेशा की तरह शानदार!

अनूप शुक्ल said...

बेहतरीन पोस्ट! शानदार, जानदार! मजा आ गया पढ़कर!

अनामदास said...

आज ही खुश हो रहा था लंदन में स्प्रिंग की आहट देखकर. चेरी ब्लॉसम, ढेर सारे सफेद फूलों से लदी डालियाँ. लेकिन आपने दुखती रग छेड़ दी. महुआ की खुशबू के तो क्या कहने, जो गीत आपने लिखा है उसके सुर गूंजने लगे कानों में हमारी अम्मा गाती हैं रामनवमी की रात को, शीतला पूजा में. हमेशा की तरह सुंदर.

Unknown said...

हिंडोला पोस्ट - कहाँ से कहाँ - सुभान अल्लाह

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बहुत उम्दा प्रस्तुति !

azdak said...

सही है, सिपाही. महकी मारेले करेजवा कटार, हो..

Arvind Mishra said...

आपतो आभासी दुनिया के गंधी निकले ,कैसे कैसे गंधों की युगलबंदी कर डाली है ,कभी कभार कोई अवारा/ यायावर गंध कहीं से भूली भटकी आ नथुनों मे समा जाती है तो बचपन के दिन याद हो उठते है ,यानी गंध और स्मृति का चोली दामन का रिश्ता है ......

अनुराग अन्वेषी said...

यहां तो दृश्यों और ध्वनियों का मेला है
और गंध
अब एक खोती हुई अनुभूति।
इसे अपने वास्तविक रूप में
बनाए रखने के लिए
अब आपको कुछ खास कसरतें करनी पड़ती हैं
कुछ उसी तरह, जैसे हर सुबह पार्कों में
हंसने की याद जिलाए रखने के लिए
एक से एक विद्रूप पेश करते लोग
दिखाई-सुनाई देते हैं।
- आपके लिखे को एडिट करने के लिए क्षमाप्रार्थी हूं। पर क्या करूं चंदू भाई, आपकी भाषा इतनी काव्यात्मक लगी कि उसे इस रूप में देखने के लोभ से खुद को बचा नहीं पाया। सचमुच जबरदस्त अभिव्यक्ति।