Monday, February 4, 2008

भाव गहरे हों तो भाषा क्या, उर्फ 'कौन ग़ालिब नहीं है हाजतमंद'

भाषा की जीवंतता और शुद्धता पर काफी बहस हो चुकी है। जिंदा भाषा का एक नमूना यहां पेश है, लेकिन अंग्रेजी में। सौ साल पहले (1909 में) बंगाल के एक सज्जन बाबू ओखिल चंद्र सेन द्वारा ट्रांसपोर्टेशन सुपरिंटेंडेंट को भेजे गए जिस पत्र से भारतीय रेलों में टॉयलेट बनाने का प्रावधान शुरू हुआ, उसे आज पढ़ने का मौका अंग्रेजी टेब्लॉयड मेल टुडे के सौजन्य से प्राप्त हुआ। इस पत्र का हिंदी अनुवाद असंभव है। आशा है कि अंग्रेजी में इसे ज्यादा आसानी से समझ लिया जाएगा। सार-संक्षेप हिंदी में देना ही हो तो यह कि उक्त सेन महाशय ने दबाकर कटहल खा रखा था (पता नहीं कोया या सब्जी)। गाड़ी चलने को हुई तो हाजत के लिए लोटा लेकर बाहर निकले, और अभी बैठे ही थे कि गार्ड ने झंडी दिखा दी। शिकायत पत्र अक्षरशः इस प्रकार है-

Dear Sir,

I am arrive by passenger train at Ahmedpore station, and my belly is too much full of jack fruit. I am therefore went to privy, Just as I doing the nuisance, that guard making whistle blow for train to go off and I am running with lotah in one hand and dhotie in the next hand . I am fall over and expose my shockings to man and female woman on platform. I am get leaved at Ahmadpore station.

This too much bad, if passenger go to make dung, that dam guard no wait train 5 minutes for him. I am therefore pray your honour to make big fine on that guard for public sake, otherwise I am making big report to papers.

Your faithful servant
sd./ Okhil Ch. Sen

चलिए, मान लेते हैं कि आपकी अंग्रेजी या हिंदी बहुत अच्छी है और आप ओखिल चंद्र सेन से अच्छा लिख सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे, अंग्रेजी राज में स्थानीय रेलवे अधिकारियों को भेजी गई सेन महाशय की यह अर्जी राष्ट्रीय स्तर पर कामयाब रही थी। अगर आप में दम हो तो किसी भी समस्या को लेकर अपनी अच्छी भाषा में भारत सरकार या उसके किसी भी विभागीय अधिकारी को संबोधित कोई अर्जी लिखें। उसका जो अंजाम होगा, उसे देखकर अपनी सरकार और अपनी भाषा, दोनों के ही बारे में आपकी गलतफहमियां दूर हो जाएंगी।

6 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

wah-wah wah chandu bhai

काकेश said...

फिर से पढकर फिर मुस्कुरा लिये...

Priyankar said...

चिट्ठी वेदनापूर्ण और 'हिलेअरियस' दोनों है . एकसाथ . पर अन्ततः प्रभावी रही यही इसका उजला पक्ष है . किसी पत्रिका से की गई इसकी एक कटिंग मेरे पास भी है .

लंगड़ी भाषा को तरह दीजिए . महत्वपूर्ण तथ्य यही है कि थोड़ी-सी हुज्जत से ही हाजतमंद की हाजत पूरी हुई .

अनामदास said...

Okhil Babu go to do dung in privy but some people like to do it everywhere on paper, on blog...does not matter how you do the dung noses are immune to the smell...
Wonderful piece of crafty writing...
thank you to Okhil babu and Chanduji
Anamdas

azdak said...

very smellingful crappy good post, dear. feel like putting dung all over, meaning decorating your blog good intentionally, really..

अभय तिवारी said...

ग़लतफ़हमी कौन सी..किसी को लगता है कि अपनी भाषा दमदार है.. और किसी को लगता है कि अपनी भाषा मरियल है..अर्ज़ी लिखने से क्या दोनों प्रकार की ग़लतफ़हमियाँ दूर हो जायेंगी?
पोस्ट तो मज़ेदार लगी पर ये बात साफ़ नहीं हुई..बताइये न चन्दू भाई क्या अंजाम होगा और क्या ग़लतफ़हमी दूर होगी?