'आई वांट टु बी अ बैड गर्ल'- किसी अमरीकन स्त्री कवि की रचना है। किसकी? सिल्विया प्लाथ की? सिर्फ तेरह साल की उम्र में आत्मघात से पहले क्या वह ऐसा लिख सकती थी? शायद किसी और की हो। लेकिन बात दुनिया में कम से कम पैंतालीस साल से तो है ही। इसलिए प्रमोद जी ने 'पतनशीलता' का इस्तेमाल चाहे जिस भी मतलब से किया हो, लड़कियों के- खासकर मध्यवर्गीय शहरी लड़कियों के लेखे इसका एक खास मतलब है। कुछ बंदिशें झटक कर फेंक देने की, एक आजाद इन्सान की जिंदगी जीने की इच्छा इस शब्द में प्रतिध्वनित होती है।
इस शब्द का मेरे लिए एक खास निजी अर्थ भी है। एक खास लड़की के लिए- अपनी बड़ी बहन के लिए यह बात मेरे मन में बहुत बार आई है। कई बार तो सपनों में भी। ससुराल में चार साल चार सदियों की तरह गुजार लेने के बाद सिर्फ बाइस साल की उम्र में जिस हालत में उसकी मौत हुई, वह सारा किस्सा मेरे अवचेतन में दफन है। मैंने बहुत बार सोचा कि काश वह सत्रह-अट्ठारह साल की होने पर शादी के बंधन में बंधने के बजाय किसी के साथ भाग जाती, कोई ऐसा गलत काम कर देती कि उसे घर से निकाल दिया जाता तो वह शायद आज भी जिंदा होती।
कुछ-कुछ इसी तरह का सपना भी मैंने दो-तीन बार देखा है कि वह दुखी है, मैले कपड़े पहने हुए है और एक छोटा सा बच्चा अपनी गोदी में लिए उसे दूध पिला रही है। मेरे जीजाजी दुहेजू थे लेकिन उनकी जांच कराने की बात कभी किसी के मन में नहीं आई- ससुराल में ही नहीं, हम मायके वालों के भी मन में नहीं। उस नन्हीं सी जान के हिस्से ही सारी खलनायकी आ गई और उसकी मौत के साथ ही सारी समस्याओं का समाधान भी हो गया।
बहन मुझसे चार साल बड़ी थी और उसे मरे पचीस साल गुजर चुके हैं। यह सही है कि उसपर यह अज़ाब थोपने में मेरी अपनी भी कुछ हिस्सेदारी थी। अगर शादी करने के बजाय उसने घर से भाग जाने का फैसला किया होता तो शायद तमाम और लोगों की तरह मैंने भी उसे अपनी नजर में मरा हुआ मान लिया होता। लेकिन मरा हुआ होना और मरा हुआ मान लिया जाना दो बिल्कुल अलग बातें हैं। बाद वाले मामले में कभी न कभी धारणाएं बदल जाने की एक संभावना भी मौजूद होती है, जो पहले वाले में बिल्कुल नहीं होती।
मेरी अपनी धारणाएं बदलने में भी इसके बाद काफी समय लगा, लेकिन जीवन के एक प्रगतिशील रास्ते पर बहुत साल गुजारकर ही इस समझ तक पहुंचा कि अपने दायरे में मौजूद किसी भी लड़की को मां-बाप की मर्जी से शादी करके घर-बार बसाने की सलाह कभी नहीं देता। आयोजित विवाह (अरेंज्ड मैरेज) को मैं एक अनैतिक कदम मानता हूं और इसके लिए दुनिया के किसी भी फतवे का सामना करने को तैयार हूं।
जहां तक सवाल पतनशीलता का है तो इसके दो बिल्कुल साफ मायने हैं। एक वह है जिसका उल्लेख मैंने इस पोस्ट की शुरुआत में किया है। विद्वज्जन इसे अवांगार्दिज्म की एक व्यापक श्रेणी का अंग मानते हैं। प्रगतिशील खेमे के जो भी लोग इसे प्रगतिशीलता-विरोधी मानते हैं उन्हें मैं मूर्ख और प्रतिगामी मानता हूं। पतनशीलता का एक दूसरा मायने भी है, जिसकी बाजार में बड़ी मांग है और पश्चिम के नारीवादी आंदोलन को नष्ट करने में उसकी केंद्रीय भूमिका रही है- यानी 'हे बेब्बे, तुम जरा जल्दी पतित हो, वक्त से थोड़ा पहले ही, ताकि गुलशन का कारोबार चलता रहे।'
जमूरे की तरह उछल-उछलकर बात-बात पर बोलने की मेरी आदत नहीं है, न ही किसी बहस में इसलिए शामिल होता हूं कि लाला लोग इस जगह पड़ी टीपें गिनें ताकि देर-सबेर दो पैसे का जुगाड़ हो। मेरे लिए कोई भी शब्द सिर्फ बौद्धिक फैशन के लिए ग्राह्य या त्याज्य नहीं है। भाषा का जो भी हिस्सा मेरे दिल से नहीं सटता उसका मेरे लिए कोई मतलब नहीं है और जो सटता है उसे बचाने के लिए मैं जान देने और लेने की हद तक जाने में भी कोई बुराई नहीं समझता।
17 comments:
चन्दू भाई ज़िन्दाबाद!
सही चिंतायें हैं, चंदू. दिक्कत यही है कि मगर इस तरह ठहरकर सोचने का धीरज किसके पास है? उन लड़कियों के पास तो कतई नहीं जिन्हें लगता है जीवन ने वैसे भी उनके समय की काफी धुनाई की है. उम्मीद यही करें कि कॉंन्टेक्स्ट में, दूरी बनाकर, लोग अपने कहे-लिखे को भी ठीक-ठीक जान सकें.
ऐसे ही छुरीदार दिमाग चमकाये रखो. सही.
aap kii behan kae saath jo hua maerii tau jii kii betii kae saath bhi vahi hua per unkae teen bachche bhi they lekin jab woh mari maayake vaale bhi nahin gayae . mae tab kewal 10 varsh kii thi . suna hae logo se kii unka saara sharir neela tha. per afsoos kii maayake walo nae kuch nahin kiyaa jab bhi woh maaykae aatii thi aur apni taleef kehtee thi aur yahaan tak kii unkae bachccho sae bhi koi sambandh nahin rekha . aap visvaas nahin karegae un baccho ne apni maa kii tasveer bhi nahin daekhi haen . is saal maene apne album se didi kii ek foto jo unhonae apni shaadi kae baad mujeh dee the un bachcho ko bhej dii ek jagah un sae akaasmat sampark hone kae baad. kyon hamara samaaj ladkiyon kae liyae itna kathor haen ?
चन्द्रभूषण जी ,
कहाँ से प्रगतिशीलता को इहाँ उठा लाए ।
क्या आप वहाँ तक नही पहुँच पा रहे जहाँ से मनीषा देख रही है और बाकी सब ...या पहुँच रहे हैं पर एक इठलाता शब्द वहाँ बैठा देना चाहते हैं ...
आपकी बहन के बारे में सुनना पतनशीलता के बारे में विचार दृढ करता है ।
और विस्तार से लिखिये इस विषय पर ..
बेशक चोखेर बाली पर ही आकर ....
आपका ई मेल नही दिखा इसलिये निमंत्रण नही भेज सकी । आप चाहें तो ई मेल करें । अच्छा लगेगा अगर इस पर बात हो जाए ।
मेने पहले भी कहा था, कि इन्दु अगर चाहे तो हमारी बहस मे आ जाये,
अच्छा रहेगा. उनकी कुछ कविताये मेने भी पढी है.
सारगर्भित लेख......चन्दूजी,भाई ब्लॉग में कुछ ही तो हैं जिनसे आज भी कुछ ना कुछ मिल जाता है,शुक्रिया
बहुत से मुल्य जो पुरुषो के सन्दर्भ मे प्रगतिशील है, वो औरतो के लिये अपमान सूचक य फिर खुले शब्दो मे चरित्र्हीनता है. वैसे चरित्र की परिभाषा भी ले देकर sexual context मे ही खत्म हो जाती है. एक मात्र तरीका और बहुत सक्षम भी औरत के वज़ूद को खत्म करने का.
ये है कुछ् मुल्य जिन के बिना पर औरते पतनशील और आदमी प्रगतिशील बनते है.
नास्तिक होना, अपने वस्त्रो के प्रति लापर्वाह होना, घर के कामो मे रुची का न होना, पुरुषो के साथ कन्धा रगडने की कूवत का होना, जाति, धर्म, लिंग को दरकिनार करके दोस्ती करना, बिना-छिपाये शुभ अवसरो पर मांस-भक्षण, वर्त -उपवास न रखना.
चन्द्रभूषण जी ये देखे
http://swapandarshi.blogspot.com/2008/02/blog-post_18.html
सोचती है क्या पता क्या हर घड़ी जिज्जी
माँ कहे है अब सयानी है बड़ी जिज्जी
अपने दोस्त रवि पाराशर की ये ग़ज़ल याद आ गई। चंदूभाई ज़िंदाबाद....
चंद्रभूषण जी बहनों को यूँ सस्ते में ही खोकर भी यदि हम सम्भल जाएँ और बेटियों को उस जीवन की आग की लपटों की कभी एक आँच तक ना आने दें, तब उनकी मृत्यु भी कुछ सार्थक हो जाएगी ।
घुघूती बासूती
चंद्रभूषण जी, आपका सधा हुआ और संतुलित स्वर हमेशा ही अपील करता है। ठीक, बिल्कुल ठीक कि 'प्रगतिशील खेमे के जो भी लोग इसे प्रगतिशीलता-विरोधी मानते हैं, उन्हें मैं मूर्ख और प्रतिगामी मानता हूं।' लेकिन साथ ही आप बाजारू डिमांड वाली पतनशीलता को भी रेखांकित कर रहे हैं। जब मैंने अपने पतित होने की इच्छाओं पर कुछ बात कही, तो भी पैरलली दिमाग में यह ख्याल भी था कि कहीं इसे रिएक्शन न समझा जाए, कहीं गलत तरीकों से व्याख्यायित न किया जाए और दूसरी बात ये कि ऐसे सटायर का एक बेहद सीमित संदर्भ में कुछ मूल्यों, विचारों और सिस्टम पर उंगली रखने जितना ही महत्व है, यह स्पष्टता बनी रहे। अगर उससे आगे बढ़कर यह पतनशील राग विमर्श का स्थाई सुर हो जाए या पतनशीलता के सवाल पर भी ज्यादा गंभीरता और समग्रता से विचार न किया जाए, तो अंतत: होगा यही कि थोड़ा सहूलियत प्राप्त मेरे जैसी कुछ लड़कियां पतनशील हो जाएंगी। अच्छा भी है। लेकिन उसके बाद क्या। जैसेकि एक पारंपरिक मर्यादाओं का बोझ ढोने की परिणति एक स्त्री की मृत्यु में होती है। अब विचार करें कि उन परंपराओं को धता बताते हुए अगर वह भाग जाती तो क्या होता। संभवत: उतना बुरा न होता, जितना कि हुआ। लेकिन आगे और क्या-क्या बुरा होता कि कोई गारंटी नहीं है। मतलब कि यथार्थ इतना सीधा-सपाट नहीं है। ठीक है कि एक लड़की को मम्मी-पापा की मर्जी से अच्छे, कमाऊ लड़के से शादी करके सुशील बहू बनने के निर्णय को लानत भेजनी चाहिए, लेकिन ऐसा करने के लिए उसे और भी तो बहुत कुछ करना चाहिए, मसलना अपने मन, बुद्धि, विवेक और विचारों को उन्नत करने की कोशिश, जीवन को समझने की कोशिश, मेधा और साहस हासिल करने की कोशिश, जीवन में प्रेम और पुरुष के अतीव स्वाभाविक, कोमल सपनों के अभाव को पतन का रास्ता न बनने देकर, अपने जीवन के समस्त यथार्थ को उदात्तता के साथ स्वीकारने, समझने और जीने की कोशिश। इन कोशिशों के बगैर पहली कोशिश बेकार है। इस यथार्थ के और भी जटिल पहलू होंगे, लेकिन थोड़ा-सा जो मुझे समझ में आया, मैंने अपनी बात कही है।
सुजाता, मैंने आपके लिंक पर अपना मेल भेजने का प्रयास किया लेकिन उसका सॉप्टवेयर लगता है मेरे यहां काम नहीं कर रहा है। मेरा ई-मेल यह है- patrakarcb@yahoo.co.in आप इसपर लिंक भेज दें। बीच-बीच में चोखेर बाली पर कुछ लिखना मुझे बहुत अच्छा लगेगा।
स्वप्नदर्शी, आपकी बात मैंने इंदु को बता दी थी और इससे पहले उन्होंने खुद भी इसे पढ़ लिया था। घर पर उन्हें नेट छूने की फुरसत नहीं मिल रही है और ऑफिस में ब्लॉग पर कुछ लिखना शुरू करते ही कंप्यूटर हैंग हो जा रहा है।
बहस के संदर्भ में मुझे इन टिप्पणियों के बाद सिर्फ इतना कहना है कि लड़कियों के पतनशील होने की बात सुनते ही बाजार में बधाइयां सी बजने लगती हैं और लप्पूझन्नों की लार टपकने लगती है- पतनशीलता का वह मायने मुझे बुरा लगता है, और शायद वह शायद चोखेर बाली के सदस्यों को भी बुरा ही लगता होगा।
प्रगतिशील शब्द मेरे लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन किसी और की नजर में यह एक बासी शब्द हो सकता है और अपने अनुभव से वह इसका कोई घटिया अर्थ भी निकाल सकता है। आश्वस्ति के साथ मैं सिर्फ अपनी बात कर सकता हूं, जो यह है कि इसका जो अर्थ इस देश में मेरे जैसे हजारों लोगों ने जिया है उसमें लड़कियां वह सबकुछ कर सकती थीं/हैं जो वे चोखेर बाली वाले अर्थ में पतनशील होकर कर सकती हैं।
सारगर्भित...........
प्रिय भाई! असरदार पोस्ट के लिए अभय के स्वर में मेरा भी स्वर मिला लें .
सिल्विया प्लाथ को थोड़ा-बहुत पढा-सराहा है जो उनके जिक्र से फिर से घुमड़ उठा . उनकी उम्र के बारे में आपसे कुछ गफ़लत हो गई है . शायद इकत्तीस (31) का तेरह(13) हो गया है .
अपने पति( अंग्रेज़ कवि टेड ह्यूज़ेस)से अलग होने और शायद बीमारी और धन-साधनहीनता से उपजे अवसाद में उन्होंने तीसेक साल की उम्र में गैस ओवेन में सिर धंसा कर आत्महत्या कर ली थी . इसके पहले इस मां ने अपने दोनों सोते बच्चों को गीले तौलिए से लपेट दिया था .
यार ये कुछ घपला हो गया। सिल्विया के साथ यह 13 क्यों मेरे दिमाग में चिपका हुआ है? शायद इस उमर में उसने कुछ और घपला किया होगा। एक अमेरिकन ऐंथोलॉजी में एक जमाने पहले उसकी कविताएं पढ़ी थीं, तब से कुछ पढ़ा नहीं। खुदकुशी की उसकी कई कोशिशों की बात याद है- क्या पहली कोशिश 13 की उम्र में की थी?
चंदूजी, बहुत बढ़िया बात बहुत बढ़िया तरीके से कही आपने। मैं बिल्कुल इस बात की कायल हूं कि जीना जरूरी है चाहे उसके लिए तथाकथित पतनशीलता का ही सहारा बने। हालांकि यह इतना जटिल मुद्दा है कि मुझे अपनी बात के पक्ष में सही तरीके से तर्क देना भी नहीं आएगा लेकिन इतना तो कहूंगी कि पहले मर्जी के साथ जीने का मौका तो मिले सामाजिक वर्जनाओं में जकङी बेचारी लङकियों को।
बहुत अच्छा लगा आपका सारगर्भित लेख पढ़कर!
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