Friday, February 15, 2008

कलकत्ते की एक रात

कितना बजा?
कोई फर्क नहीं
चलते चलो, बस चलते चलो

सुन्न शहर के
पीले कठुआए आसमान में
मरी मछलियों से उतराए तारे
थके डैनों से रात खेता
भटका एक समुद्री पाखी
धुंध की गोल तलैया में डूब रहा
एक अदद आवारा चांद

कोई वहां है?
वहां, अलसाए पेड़ों के पीछे
क्या कोई है?

तुम हो जूलियट?
तुम हो वहां?

लैला, शीरीं, सस्सी
क्या तुम हो
अपनी शाश्वत प्रतीक्षा के साथ?

तुम जो भी हो,
चली जाओ
लौट जाओ अभिशप्त प्रेमिकाओं

जमे लहू सी काली सड़कों पर
गूंजने दो आज
सिर्फ इन दो पैरों की आवाज

कभी-कभी तो आती है
यूं भरी-भरी भरमाई रात
खुद में खोए पंछी सा
हौले-हौले उड़ता रहे
कभी-कभी तो होता है
यूं भरा-भरा आवारा मन

5 comments:

azdak said...

क्‍या बात है.. ओये होये.. बहुत खूब.

स्वप्नदर्शी said...

I am leaving this comment for indu,
to join choker baali

Bhupen said...

गज़ब की रात है.

सुजाता said...

वाकई ..कभी कभी ही तो आती है यूँ आवारा रात , बस अपने दो कदम और उनकी आहट !
बहुत खूब !

Unknown said...

ये बात हुई हुज़ूर - लेकिन बहुत ना इंसाफी है - तमाम रोमियो सहित मजनूँओं, फ़रहादों, पुन्नुओं को अकेला कर दिया [:-)] - इसी पर याद आया - एक मन्ना दा का गाना है [- जो या तो कलकत्ते के "मीत" लगा सकते है या हल्द्वानी वाले पांडे जी ] - "ये आवारा रातें.." - सादर - मनीष [ पुनश्च : मेल मिली कि स्नेल भई ?]