Wednesday, February 13, 2008

एक घोषित वेश्यागामी की मौत

उजड्ड छवि का भी अपना कुछ आकर्षण होता है। वर्ना इस संस्थान में काफी पहले से काम कर रहे अनिल सिंह मेरे करीब भला क्यों आते। सुल्तानपुर के रहने वाले थे, लेकिन बगल के जिले आजमगढ़ का रहने वाला मैं भी हूं, इसका पता मेरे साथ सालोंसाल रहने वालों को भी नहीं रहता। वे हमारे अखबार में कंपोजिटर थे, हंसमुख आदमी थे और सतह के नीचे कुछ और भी है इसका एहसास कराने वाला एक कमीना लीचड़पन थोड़ा ही गौर करने पर उनके बुढ़ाते व्यक्तित्व से टपकने लगता था। हमेशा (मेरे ख्याल से नींद में भी) आगे की तरफ निकली हुई एक पीली या नीली टोपी लगाए रहते थे। और हां, इसी टोपी के नीचे हमेशा कंडोम का एक पैकेट भी मौजूद रहा करता था।

उनके बारे में अंतिम जानकारी मुझे अपने एक बुजुर्ग कहानीकार मित्र से प्राप्त हुई, जिसके जीवंत प्रदर्शन के लिए एक दिन अचानक पीछे से आकर उन्होंने अनिल सिंह की टोपी उठा दी। खरखराती हुई दो-ढाई इंच की एक छोटी सी चीज उनके कंधे से टकराती हुई नीचे गिरी। कोई आम आदमी शायद लपककर उसे उठाने का प्रयास करता। लेकिन वे आम आदमी नहीं थे। वे अनिल सिंह थे। आसपास मौजूद सारे लोग इस चीज को अच्छी तरह देख लें, इतना इंतजार करने का धीरज उनमें था। देखने वालों ने (जिनमें दोनों ही लिंगों के लोग शामिल थे) जब अफराकर नजर फेर ली तब उन्होंने वह निरोध का पैकेट उठाया और हे-हे-हे हंसते हुए दुबारा उसे सिर पर रखकर टोपी लगा ली।

मौका मिलते ही मैंने कहानीकार मित्र को हड़काया कि इस घिनौने इन्सान से अगर आगे भी उन्हें अपना रिश्ता जारी रखना है तो वे शौक से रखें लेकिन उसे लिवाकर कम से कम मेरी तरफ तो न आएं। थोड़ी दिक्कत इन साहब के साथ भी है। कुछ गतिविधियों के चलते संस्थान में उनका जिक्र कभी 'रंगीन मिजाज खूसट' के रूप में तो कभी 'दिल पचपन का उमर बचपन की' मुहावरे के जरिए किया जाता है। लेकिन ये सिर्फ ऊपरी बातें हैं। फैंटेसी में उनकी गति जबर्दस्त है। घनघोर अकेलापन उनकी आत्मा को अपनी गिरफ्त में जकड़े हुए है और रूमानी प्रेम के लिए उनका दिल बिल्कुल आखिरी बूंद पेट्रोल में चल रहे किसी स्कूटर की तरह उछालें मारता है।

उन्होंने कहा कि अनिल सिंह के साथ उनकी दोस्ती सिर्फ उन्हें एक कैरेक्टर के रूप में जानने-समझने के लिए है और उनकी बातें हमेशा ही इतने सच्चे दिल से कही गई होती हैं कि इस बात को फेस वैल्यू पर स्वीकार कर लेने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। वैसे भी अनिल सिंह से मेरी चिढ़ उनके भदेसपन को लेकर थी। उनके कैरेक्टर से मुझे कोई अड़चन नहीं थी क्योंकि उनसे कहीं ज्यादा अड़बंग और घटिया लोगों के साथ लंबा-लंबा वक्त गुजारने का मौका मुझे पहले भी मिल चुका था।

वाकई अपने कहानीकार मित्र की समझ का कायल हूं। इतनी चिढ़ के बाद भी अनिल सिंह से नजदीकी की गुंजाइश उन्होंने नहीं बनाई होती तो वेश्याओं, कॉलगर्लों और रंडीबाजों की एक पूरी दुनिया शायद मेरे लिए 'लोला' से होते हुए 'देवदास' और 'प्यासा' तक चले आ रहे अतार्किक आक्रोश और रहस्यमय करुणा का विषय ही बनी रह जाती।

कंपोजिंग के सिवाय अक्षरों से और कोई रिश्ता न रखने वाले अनिल सिंह का पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों से साहित्य में जमी रूमानी धुंध से कोई वास्ता नहीं था। इस अलग-सी दुनिया के बारे में धीरे-धीरे करके जो जमीनी बातें उन्होंने मुझे बताईं उनसे एक छोटी सी खिड़की मेरे सामने जरूर खुल गई, जिससे होकर मैं वक्त जरूरत इसे थोड़ा-बहुत देख सकता हूं।

जब हमने देह-व्यापार की नई प्रवृत्तियों पर 'सहारा समय' साप्ताहिक का एक अंक निकाला तो अनिल सिंह की बातों पर आधारित कई केस स्टडीज भी साथ में दीं। ये चीजें जयंती दत्त जैसे मनोचिकित्सकों की केस स्टडीज से कम रोचक और कम समझदारी भरी किसी मायने में नहीं थीं। अनिल सिंह से मैंने आग्रह किया कि इनके साथ वे अपना नाम जाने दें लेकिन इसके लिए वे तैयार नहीं हुए। आखिरकार ये टिप्पणियां एक रिपोर्टर की प्रस्तुति के रूप में देनी पड़ीं।

इस रास्ते पर अनिल सिंह कैसे बढ़े, इसके पीछे कोई रोने-धोने वाली कहानी नहीं है। दिल्ली में परिवार पालने का खर्चा उठा पाना उनके बूते के बाहर था। पहले मौज-मजे के लिए इधर-उधर गए, फिर तय कर लिया कि महीने में सौ-दो सौ रुपया खर्च करके अगर गांव के खेतिहर परिवार में हजार-डेढ़ हजार रुपये अबाध रूप से भेजे जा सकें तो इसमें बुराई क्या है। यह संतुलन साधने में वे पचपन साल की उम्र तक कामयाब रहे, लेकिन पता नहीं कैसे अंतिम दो-तीन वर्षों में यह अचानक गड़बड़ा गया।

उनके बेटे की शादी हुई और गौना आने के दो-तीन महीने बाद ही उसने खुदकुशी कर ली। लड़का बेरोजगार था और ससुराल की तानेबाजी उससे बर्दाश्त नहीं हुई। अनिल सिंह इस घटना से अचानक टूट-से गए और शायद अपने शौक पर उनका खर्चा भी इसके बाद कुछ ज्यादा ही बढ़ गया। एक घरबारू लेकिन पेशेवर महिला के बारे में वे काफी प्रेम से बताते थे जिसकी मांग उनसे महीने में पांच सौ रुपये की थी लेकिन मात्र दो-तीन सौ की ही व्यवस्था कर पाने के बावजूद उससे रिश्ते टूटे नहीं थे।

आखिरी दिनों में अनिल सिंह को हाई बीपी की शिकायत रहने लगी थी। हाल में वे घर गए थे। वापसी के लिए शाम को ट्रेन पर चढ़ने की सूचना भी दी थी। लेकिन अगले दिन उनके बजाय उनकी खबर ही यहां पहुंच पाई।

मैंने अपने जीवन के कुछ-कुछ दिन बलात्कारियों और अपनी बहू को जलाकर मार डालने वालों के साथ भी बिताए हैं लेकिन उनके इर्द-गिर्द मुझे हमेशा एक असह्य आपराधिक दुर्गंध सी फैली हुई मालूम पड़ती थी। अनिल सिंह के साथ ऐसा कभी नहीं महसूस हुआ। देह व्यापार पर उनका मात्र एक व्यापार की तरह चर्चा करना जुगुप्सापूर्ण जरूर था, लेकिन इसमें मानव शरीर के प्रति कोई हिकारत मौजूद नहीं थी।

इसके उलट वे घंटे-दो घंटे के लिए खरीदे गए अपने रिश्तों पर भी बड़े लगाव से बात करते थे। यह एक ऐसी बात है, जिसे पारंपरिक साहित्यबोध के जरिए समझना बहुत मुश्किल है। अपने एक अटपटे मित्र के प्रति इसे मेरी श्रद्धांजलि समझा जाए।

11 comments:

Priyankar said...

बेहद संवेदनशीलता और तटस्थ किस्म की आत्मीयता से ओतप्रोत संतुलित श्रद्धांजलि अपने सहकर्मी को .

azdak said...

भई, ऐसे (जाने कैसे?) लोगों से वास्‍तविक जीवन में मैं भी हड़का रहता हूं, मगर इस किस्‍से को पढ़कर पता नहीं क्‍यों एक सूखी उदासी घेर गई.. एक श्रद्धांजलि हमारी ओर से भी..

Unknown said...

बहुत बारीकी से आपने रेखाचित्र बनाया है....और जजमेंट देने के मूड में भी नहीं हैं...सच तो यह है कि लोग और उनकी कई बातें हमें पसंद नापसंद पहले हो जाती है और बाद में हम अपनी पसंद की वजह का कोई रेफरेंस ढूँढते हैं।
इस दोस्त की सबसे अच्छी बात शायद उसकी जेन्यूनिटि है.....घोषित वेश्यागामी....

कहाँ तो परतों के नीचे ठठोलने पर भी आदमी नहीं मिलते....।

दिनेशराय द्विवेदी said...

इस जीवन में कई पेच हैं। कहाँ कौन सा पेच लगेगा कोई नहीं जानता पर जहाँ भी दो लोग एक दूसरे की जरूरतें पूरी करते हैं वहाँ जो रिश्ता बनता है उसे क्या कहा जाए ये तो मैं नहीं जानता लेकिन इस रिश्ते में बराबरी जरूर रहती है। आप के साथी ऐसे ही रिश्तों की दुनियां में जिए। और उन की तरह जीने वालों की कमी नहीं है। हर सीन में एकाध व्यक्ति ऐसे मिल ही जायेंगे। लेकिन उन का जीवन भी जीवन तो है ही। आप का सहकर्मी को श्रद्धांजली देना भला लगा।

Yunus Khan said...

भाई आपने बेहद मार्मिक संस्‍मरण लिखा है । एक बार फिर ये तय हो गया कि हम तथाकथित नैतिकता और शराफत के चश्‍मे से चीज़ों को देखें तो कितना कुछ अनदेखा रह जाता है । दोस्‍ती के दायरे का गहरा अन्‍वेषण ।

Samrendra Sharma said...

बेह्द सवेद्ननशील,मार्मिक प्रस्तुति

इन्दु said...

तटस्थ होकर चीजों को देख पाना सचमुच बेहद मुश्किल है. पता नही किसकी पंक्तियाँ हैं बहुत पहले सुनी थीं -
बाहर-बाहर जुड़ने पर भी अन्दर कितना टूटे हैं, ऐसे में भी पता नही क्यों लोग हमीं से रूठे हैं ।
मुर्दा नक्षत्रों की घाटी हम सब शव यात्री जैसे, मत पूछो हर चीज हाथ से छूट रही है कैसे-कैसे,
आंसू हैं पवित्र सभी के ओंठ सभी के जूठे हैं, ऐसे में भी पता नहीं क्यों लोग हमीं से रूठे हैं .....

मनीषा पांडे said...

बहुत मार्मिक। नैतिकता के तथाकथित पैमानों से परे भी कुछ बातें होती हैं। सही और गलत, नैतिक और अनैतिक, ब्‍लैक एंड व्‍हाइट में नहीं होता। बीच में ढेर सारे ग्रे शेड भी होते हैं। अच्‍छा लगा, जिस मार्मिक तटस्‍थता से आपने उन्‍हें श्रद्धांजलि दी है।

अभय तिवारी said...

बढ़िया लिखा चन्दू भाई.. मन्टो भी इसी दुनिया का बाशिन्दा था.. अगर वो स्थापित नैतिक मापदण्डों से ही सब कुछ देखता तो मन्टो कैसे बनता.. उसकी ताक़्त ही यही थी कि वो अमानुष समझे जाने वाले लोगों को मानवीय प्रकाश में चित्रित करता था.. यही ताक़त स्पैनिश डाइरेक्टर पेद्रो अलमोदवार की भी है..

Neelima said...

घोर उदासी भर देने वाला चित्र खींचा आपने ! कौन पुरुष अपने जीवन के ऎसे चेहरे को दिखाना चाहेगा !अनिल सिंह -या किसी उपन्यास का पात्र ?

संगम पांडेय said...

संस्मरण कुछ अधूरा सा लग रहा है। आखिर एक वेश्यागामी से बलात्कारी जैसी दुर्गंध क्योंकर आएगी?....