Friday, February 1, 2008

क्या हो सामाजिक विवेक की कसौटी?

कहां गया ज्ञान? सूचनाओं में खो गया। कहां गया विवेक? ज्ञान ने उसे खा लिया। माओ त्से तुंग ने चीनी कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को एक गंडा बांधा था- जनता से सीखो। गांधी ने राज संभालने जा रहे कांग्रेसियों को एक जादुई ताबीज दी थी- कोई भी फैसला लेते वक्त उस सबसे गरीब आदमी को याद करो, जिसे तुम जानते हो। सोचो कि तुम्हारे फैसले से उसकी जिंदगी पर क्या असर पड़ेगा। ऐसे सूत्रवाक्य भुलाने में लोगों को बमुश्किल दस साल लगते हैं। खुद इन्हें देने वाले भी इन्हें उतनी ही आसानी से भूल जाते हैं। माओ के बारे में यह बात बिल्कुल साफ है। गांधी अपने सूत्रवाक्य के बाद ज्यादा दिन जिंदा ही नहीं रहे, लिहाजा दुविधा की धुंध में उनके बारे में जो चाहे कह लें।

सूचनाओं की भरमार है, ज्ञान और अज्ञान के बीच फर्क बड़ी तेजी से मिट रहा है। विवेक क्या होता है, इस बारे में जानकारी शायद कहीं किसी शब्दकोष में ही मिले तो मिले। अतीतग्रस्त पूरबी मानस बड़ी जल्दी अपनी पुरानी धुरी पर लौट आता है। चीन और भारत की कुल ढाई अरब आबादी के लिए विराट बदलावों के साठ साल बीत चुके हैं। सही और गलत के बीच तमीज करने के, फैसले लेने के मानदंड अब क्या होंगे, कोई नहीं जानता, न ही इसे जानने की फिक्र में अब कोई दुबला होता है। हो सके तो याद करें दिनकर को- जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। क्या इस अर्धाली में मनुज की जगह समाज को रखकर देखना अनुचित होगा?

बहरहाल, अपने यहां चारु मजूमदार ने जनता से सीखो नारे को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लिया था। शायद खुद माओ त्से तुंग से भी ज्यादा गंभीरता से। इस नारे के असर में विप्लवी नौजवानों की एक पूरी पीढ़ी सचमुच जनता से सीखने निकल पड़ी थी। मैं खुद ऐसे कई लोगों से मिला हूं- नक्सलियों से ही नहीं, संपूर्ण क्रांति के अनुसारकों से भी- जिन्होंने महानगरों की अभिजात पृष्ठभूमि से आकर गरीब किसान का पूरा जीवन सीखा। बोली-बानी, कामकाज, कपड़ा-लत्ता, मौसमों से लेकर इलाज तक के बारे में समूची देसी समझ अर्जित की। काश, उनका यह अर्जित विवेक देश के लिए बड़े फैसले लेते वक्त किसी काम आ पाता।

वह नहीं आया। न शायद कभी आएगा। लेकिन एक धुंधली सी बात इस प्रक्रिया में जरूर उठी कि स्थापित धारणाओं से इतर ज्ञान और विवेक के कुछ अलग मायने भी होते हैं। एक बार हम लोगों में बात हो रही थी कि सीपीआईएमएल-लिबरेशन जैसी क्रांतिकारी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में भी दलित प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों है? भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में यह सवाल पहले भी उठा है और इसका जवाब यही दिया जाता रहा है कि शीर्ष नेतृत्व के लिए जिस व्यापक ज्ञान की आवश्यकता है, वह समाज के कुलीन तबकों को ही हासिल हो पाता है, लिहाजा उपरले दर्जे के नेता भी वहां से नहीं तो भला और कहां से आएंगे। कमोबेश यह वही तर्क है, जिसे आरक्षण के विरोध में और मेरिट के पक्ष में देश के तमाम विद्वज्जन दिया करते हैं।

लेकिन हमारी उस दिन की बहस से एक भिन्न नतीजा निकला था। एक साथी ने कहा कि 'चारु दा जब कहते हैं जनता से सीखो तो उनका मतलब क्या होता है? क्या सीखो? सीखने के लिए जो कुछ होगा वह कोई ज्ञान ही तो होगा। जिसे हम ज्ञान समझते हैं, उससे भिन्न किसी और तरह का ज्ञान। उसे सिर्फ एक औपचारिकता क्यों माना जाना चाहिए? क्या उस ज्ञान का पर्याप्त प्रतिनिधित्व पार्टी की शीर्ष इकाइयों में हो पाता है?' वह आज भी नहीं हो पा रहा है। पता नहीं इस शक्ल में यह सवाल भी अब किसी के दिमाग में है या नहीं।

जब हम भारत में ज्ञान सरणियों के रूप में एक तरफ अतीतजीवी परंपरा और दूसरी तरफ पश्चिम का चर्बित-चर्वण ही हावी होने की बात कहते हैं तो यह कहते हुए क्या सिर्फ अपने सिनिसिज्म का परिचय दे रहे होते हैं? अगर नहीं, तो ज्ञान की आडंबरपूर्ण परिभाषाओं से निपटने के लिए हमें अपने विवेक की कसौटियां नए सिरे से तय करनी चाहिए। गांधी, माओ और चारु की टीपें इस काम में शायद हमारे ज्यादा काम न आएं। लेकिन मानवीय संवेदना को हमलावर स्वार्थपरकता तक सिमटा देने वाले, पर्यावरण से लेकर इन्सान तक को बेदर्दी से खा रहे भेड़ियाधसान जैसे मौजूदा माहौल में सामाजिक सोच का कोई खाका खड़ा करने में इनसे कुछ मदद जरूर मिल सकती है।


1 comments:
Rajesh Joshi said...
Kal se hi intzaar kar raha hoon, ki koi to aayega aur Chandu ki baat se apni baat jodega. Lekin comments ab tak 0 hi dikha raha hai. Ham kaisi baaton se prabhavit aur udwelit hote hein? Kaun si baaten hamen jad pathhar sa bana deti hein? Gyan aur vivek par likhi gayee Chandu ki baat hamen kured kyon nahi payee? Kyon kisi ne pratikriya nahi bheji? Kyon ye post kisi bahas ki shuruaat nahi kar saki?

7 comments:

azdak said...

मैं आंखें मूंदके समझने (ज़्यादा संभावना है इस कसरत में थोड़ी देर बाद हार जाने) की कोशिश करूंगा..

अनिल रघुराज said...

राजेश भाई, किससे सवाल कर रहे हैं? जिनको बहस की शुरुआत करनी है, वो ब्लॉग नहीं पढ़ते। और, ब्लॉग पर तो अपनी-अपनी राम-कहानी सुनानेवालों की भरमार है। यहां किसी को सुनने और सोचने की फुरसत नहीं है। फिर बात ये भी है कि सूत्र वाक्य पढ़ने और सुनने में ही बड़े सुहाने लगते हैं। जब इन्हें बोला जाता है तब भी इन पर अमल नहीं होता। ज्ञान और विवेक बहस से नहीं मिलता। अपने अंदर के संघर्षों की घनघोर यात्रा में इंसान इसे हासिल करता है।

अजित वडनेरकर said...

बढ़िया बात है। गंभीर चिंता भी है।
हिन्दी पत्रकारिता की सँकरी सी गली में रोज़ ग्यारह घंटे गुज़ारने और चलते-फिरते विश्वविद्यालयों को अपने आगे से गुज़रता देखने के बाद चंदूभाई ही नहीं किसी और की किसी और की गंभीर बानी पढ़ने की ताब जुटाना मुश्किल होता है।
आशंका इस बात की ज्यादा है -
हालाते-जिस्म , सूरते जां और भी ख़राब
सब तरफ ख़राब , यहां और भी ख़राब

क्या होगा बहस से। बहस कर भी लें तो एक सुविधाजनक, पारदर्शी आमसहमति बनने जैसी स्थितियां दिखती हैं आपको ? सामान्य नियमों का तो हमसे पालन होता नहीं , ज्ञान-विवेक की बातों से कुछ हासिल हो भी जाए तो फिर वही अमल की समस्या , जैसा अनिल भाई कह रहे हैं।
सूनी सड़कें है । कोई आवाजाही न हो और चौराहे पर एक मिनट वाली लालबत्ती जल रही हो तो हिन्दुस्तान में कितन लोग जेब्रा लाइन से पहले इंतजार करते हैं। (लंदन वालों की बात नहीं करता, दिल्ली वालों को भी बख्श देता हूं। )
बदलाव सामान्य नियम है।
इन चार चिट्ठियों पर ही कौन सा चंदूभाई ने कुछ प्रत्युत्तर देना है।

अजित वडनेरकर said...

ग़ालिब फ़रमाते हैं-

हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो असद
आलम तमाम हल्क़ए-दामे-ख़याल है ।

-ऐ असद, ज़िन्दगी के फ़रेब में न आ जाना। सारा विश्व विचार के जाल का फन्दा है।

अर्थात्

कहते हैं ज्ञानी
दुनिया है फ़ानी

तो अब क्या करें और क्या कहें...

चंद्रभूषण said...

व्यक्तिगत विवेक तो अपने संघर्षों से ही हासिल होता है, बशर्ते बहसों को भी हम संघर्ष का ही एक रूप, उन्हीं का एक हिस्सा मानें। लेकिन अगर हम ऑडिएंस की शर्तों पर चलते हुए मीठी-मीठी बातों में ही मगन रहें, संघर्षों की चर्चा छोड़कर उन्हें ट्रिवियलाइज करने में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगें...नैतिकता को सिर्फ 'भय से उपजी हुई चीज' बताकर हर तरह की घपलेबाजी को जायज ठहराने के तर्क मुहैया कराने लगें...ऐसा कहते हुए यह भूल ही जाएं कि एक वयस्क व्यक्ति के लिए नैतिकता उसकी एक सुचिंतित जिद भी हो सकती है, तो मेरे ख्याल से ये सारे कदम विवेकसंगत होने के बजाय अविवेकी करार दिए जाने चाहिए।

मेरी मुश्किल व्यक्तिगत विवेक को लेकर उतनी नहीं, जितनी सामाजिक विवेक को लेकर है। यह दूसरी वाली चीज अब ब्लॉग ही नहीं, समाज के ही एजेंडा से बाहर होती जा रही है। ब्लॉग में इस पर बात करने से क्या होगा, क्या नहीं होगा, सवाल यह नहीं है। देश में कहीं भी, किसी भी जगह पर अगर इस सिलसिले में बात शुरू होनी है तो इसके लिए (सबसे कम दबाव वाली जगह होने के चलते) ब्लॉग मुझे सबसे मुफीद लगता है।

अपनी खाल के भीतर ही पूरी दुनिया देखकर इतराई, अघाई हुई बातें करना, या फिर इससे खीझकर सिनिकल हो जाना, अकेलखोरी की कशीदाकारियां करने लगना- क्या विमर्श की सिर्फ ये ही दो पद्धतियां हमारी नियति हैं? क्या इन दोनों को ही विमर्श के बजाय एक ज्यादा और एक कम ग्लैमरस एकालाप कहना बेहतर नहीं होगा?

राजनीति का मतलब अगर हरामीपना और एनजीओ का मतलब दर-हरामीपना है तो फिर बड़े पैमाने की सामाजिकता के अब क्या कोई मायने ही नहीं रह जाएंगे? अपनी इस पोस्ट का स्लग 'बहस' डालने से मेरा तात्पर्य इस पोस्ट पर बहस चलाने से नहीं, जो बातें हम ब्लॉग पर किया करते हैं, उनका संदर्भ बड़ा करने से है।

अजित वडनेरकर said...

पहले तो सहमत था ही , अब एकदम सहमत हूं।
ये पहलू ज्यादा आसान लगा।

Ashok Pande said...

बिल्कुल सही बात कह दी चन्दू भाई आपने.