Wednesday, January 30, 2008

हिंदी हो चली हैं मनोज भाई की कविताएं

भाई मनोज शर्मा से मेरी पहली मुलाकात 1994 के शुरुआती दिनों की है। जम्मू में रह रहा शुद्ध हिंदी का कवि और ठेठ पंजाबी मिजाज का इन्सान। तब हम लोग जनमत निकालते थे और इस पत्रिका की जड़ें तलाशते हुए मनोज शर्मा हमसे आ मिले थे। कई बार उन्होंने जम्मू आने का आग्रह किया लेकिन जाने का मौका मिला मई 1995 में- यानी मेरी शादी के डेढ़ महीने बाद। जनमत में सबकी राय बनी कि मैं और इंदु जम्मू और श्रीनगर के लिए निकल लें तो अदालती शादी की सादगी के साथ कुछ दिनों की चहल-पहल जुड़ जाएगी और हो सकी तो इसी दौरान इस परेशानहाल राज्य की थोड़ी-बहुत रिपोर्टिंग भी हो जाएगी। लेकिन इधर हम लोग जम्मू के लिए रवाना हुए और उधर वहां चरार-ए-शरीफ कांड हो गया। इसके बाद पूरी घाटी में हंगामा मच गया और हम लोग जम्मू में ही फंसकर रह गए।

करीब दस साल पहले मनोज भाई का ट्रांसफर जम्मू से सीधे मुंबई हो गया। वे नाबार्ड में काम करते हैं और इस तरह की उलटबांसियां वहां होती रहती हैं। अभी वे मुंबई से अपने बेटे अतीव की काउंसिलिंग के लिए यहां आए हुए थे। तीन दिनों की अच्छी-खासी हुड़दंग रही। यहीं से अपने मोबाइल का बहुत सारा बिल बढ़ाकर जम्मू के साथियों से उन्होंने हमारी बात कराई। तेरह साल पहले की बातें उन्हें याद थीं। कहने लगे, 'आप वही हैं न जो तब कह रहे थे कि चाहे घाटी में हमें आतंकवादी बताकर गोली ही क्यों न मार दी जाए लेकिन जाएंगे जरूर। कितनी मुश्किल से आपको हम लोगों ने रोका था।....और आपके साथ एक लड़की भी तो थी...'। मनोज भाई ने कहा, 'वह इनकी बीवी थी, आज भी है...लो बात करो उससे भी...'।

उस समय जम्मू में ही लिखी गई अपनी कविता 'चरार-13 मई '95' को मैं अपनी सबसे अच्छी कविताओं में एक मानता हूं। बहरहाल, बात मेरी नहीं, मनोज भाई की कविताओं की चल रही थी। शुरुआती मुलाकातों में उनकी जो कविताएं सुनी थीं, उनमें पंजाबियत बड़ी गहरी थी। चीजों के ठोस एहसास वाली गहरी ऐंद्रिकता, नैतिकता की पुरबिया लौह-लंगोट से मुक्त एक गबरू जियालापन, वामपंथी रुझान के नाम पर बड़ी-बड़ी उलझी हुई अमूर्त बातें करने के बजाय खुरदरी हकीकत के बीच सामाजिक आस्था की ईमानदार तलाश। उस समय तक पंजाबी कविता के नाम पर सिर्फ अवतार सिंह पाश से वाकफियत थी। लेकिन मनोज शर्मा के जरिए परिचित हिंदी मुहावरों में पंजाबियत के नए आयाम आंखों के सामने खुले।

उस समय दिल था कि उत्तरी भारत की पूर्वी और पश्चिमी बहाव वाली नदियों के समानांतर विकसित हुई पुरबिया और पंजाबी साहित्यों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए। आमने-सामने रखते हुए- नानक और तुलसी को, वारिसशाह और मलिक मोहम्मद जायसी को, पाश और गोरख पांडे को। यह इच्छा आज भी अपनी जगह कायम है, बशर्ते कभी सचमुच इसपर काम किया जा सके, लेकिन इस इच्छा की मूल प्रेरणास्रोत मनोज शर्मा की तब की कविताएं ही बनी थीं।

आज अपने घर पर इरफान और इंदु के साथ मैंने मनोज भाई की मुंबई में लिखी दो कविताएं सुनीं। इनमें एक लंबी कविता चित्रकला के बारे में है- मुंबई की अमूर्त कला से शुरू होकर कस्बों में कभी चलने वाली किस्सों और तस्वीरों की जुगलबंदी तक बहती हुई। दूसरी एक बार गर्ल की चॉल पर केंद्रित है और पहली पंक्ति से ही बांध लेती है। आदतवश मैं इन दोनों कविताओं में वही पुरानी पंजाबियत ढूंढता रहा, लेकिन वह वहां वैसे ही नहीं दिखी, जैसे मेरी अपनी कविताओं में मेरा पुरबियापन अब बड़ी मुश्किल से ही दिख पाता है। कल शाम हम लोगों ने पहले अशोक पांडे (कबाड़खाने वाले) की कविताएं पढ़ी थीं और फिर मेरी सुनी थीं। अशोक मेरे लिए हमेशा की तरह मुग्धकारी थे लेकिन मनोज भाई तो उन्हें पढ़कर बिल्कुल चमत्कृत थे। खुशी की बात है कि अशोक में कुमाऊंनीपना (देश-विदेश में पसरी उनकी आवारगी के बावजूद) काफी बचा हुआ है- सबके लिए यह आसान नहीं होता।

5 comments:

Unknown said...

सही में आसान नहीं है? [ क्या आपको पता है कि दिल्ली में अशोक की किताबें कहीं मिल सकती हैं? अगले आठ नौ दिन दिल्ली (वसंत कुंज / जसोला (शायद नोयडा) वहीं चक्कर लगाने हैं- क्या श्री राम सेंटर में होंगी?] - मनीष

अजित वडनेरकर said...

अब यही कहा जा सकता है कि बहुत बढ़िया। मीत मिले बिछुड़े। कविताई भी हो गई। और क्या चाहिए ....कुछ दिनों का सुख झोली में तो आया।

Ashok Pande said...

मेरी कचरा कविताओं को आप लोग अब तक पढ़ते हैं चन्दू भाई! भई हद है!! मगर अच्छा लगा. अब अपना कूड़ा लेकर कब आ रहे हैं हमारी दुकान पे? वरना मीर बाबा की लताड़ लगैगी कि :

कभू सच्चे भी हो, कोई कब तक
झूठे वादों का एतिबार करे

चंद्रभूषण said...

अशोक बाबू, जैसा कि आपने देखा होगा, ऊपर जोशिम उर्फ मनीष आपकी कविताओं के तलबगार हैं। इनके दिल्ली में मिलने का पता इनके ब्लॉग पर टिप्पणी की शक्ल में चिपका दीजिए। कबाड़ इकट्ठा हो रहा है। किसी दिन आपकी दुकान पर फैला दिखेगा।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

पहले की तो मैं नहीं जानता, लेकिन अब भी जब कभी मनोज जी से मुलाक़ात होती है तो उनमें काफी गर्मजोशी पाता हूँ.