क्या तुलसीदास, प्रेमचंद या महादेवी वर्मा आपकी रिश्तेदारी में आते हैं? चलिए, कौन जाने आते ही हों। लेकिन क्या विलियम शेक्सपीयर, चार्ल्स डिकेंस, एमिली ग्रांट या फिर जेम्स हैडली चेज, इब्ने सफी बीए और गुलशन नंदा के घर-परिवार में भी कभी आपका आना-जाना रहा है? अगर नहीं, तो ये सारे लोग या इनमें से कुछ आपको अपने सगे या फिर चचेरे-ममेरे-मौसेरे-फुफेरे भाई-बहन की तुलना में अपने दिल के ज्यादा करीब क्यों लगते हैं?
क्या किसी से लगाव होने के लिए उससे नजदीकी जान-पहचान या रिश्तेदारी होना जरूरी है? उलटकर पूछें तो यह सवाल कुछ इस तरह बनेगा कि क्या किसी भी तरह की जैविक या सामाजिक नजदीकी आपके लिए किसी रचना या रचनाकार के साथ उच्चतर लगाव बनने में बाधक हो जाती है?
गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज ने 'वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीच्यूड' पर फिल्म बनाने की इजाजत हॉलीवुड के सबसे नामी निर्माता-निर्देशकों को भी आखिरकार नहीं ही दी। अब से पंद्रह साल पहले तीन करोड़ डॉलर तक की पेशकश किए जाने के बावजूद। वजह पूछने पर बताया कि वे चाहते हैं, उनके हर पाठक को इस किताब का हर पात्र अपने घर के किसी सदस्य जैसा लगे, ऐंजेलिना जोली या ब्रैड पिट जैसा नहीं। जो जितना ठोस दिखता है, उतना ही दूर चला जाता है- कहां यह सोच, और कहां खोज-खाजकर रिश्तेदारी जोड़ने, परिचय निकाल लाने की अपनी समझ, जिसके जरिए हम हर रचे हुए और रचने वाले को अपनी ही छोटी-सी तराजू में तौलकर उसे दो कौड़ी का बना डालते हैं।
यह हमारी कोई निजी या ठेठ भारतीय किस्म की समस्या है, यह मानने के लिए मैं तैयार नहीं हूं।, जैविक या सामाजिक जुड़ाव से इतर लगाव के कुछ अलग मायने भी होते हैं- इसे सहज रूप में स्वीकारने के लिए शायद कोई भी तैयार नहीं होता। इस काम में संस्कृति हमारी मदद करती है, माहौल मदद करता है, आलोचक मदद करते हैं। लेकिन लिखित अक्षरों के जरिए, पर्दे पर या कैनवस पर उकेरी गई छवियों के जरिए, यहां तक कि सुनी गई ध्वनियों के जरिए भी जो नए तरह के लगाव बनते हैं, वे आपको उस चीज के करीब पहुंचाते हैं, जो आप हो सकते हैं, या शायद हो सकते थे।
यूरोपीय समाजों ने अपने नवजागरण के दौर में इस नए तरह के लगाव के मायने समझे। साथ ही यह भी जाना कि अपने परिवेश से एक हद तक अलगाव बनाए बगैर उसके साथ इस तरह का लगाव हासिल नहीं किया जा सकता। कौन जाने भारतीय समाज में भी यह बात कभी समझी गई हो, और फिर भूलते-भूलते पूरी तरह भुला ही दी गई हो। समस्या यह है कि यह समस्या दिनोंदिन घटने के बजाय बढ़ती जा रही है।
तुलसी को अपने जीवनकाल में जमाने भर की लातें खानी पड़ीं। फिर पहलवानों की संगत और हनुमानगढ़ियों की स्थापना उनके काम आई। 'बारे ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन, चाहत हौं चारि फल चारि ही चनक को' वाली नियति से निकलकर ठेठ बुढ़ापे में अपने रचनाकर्म का थोड़ा-बहुत यश उन्हें मिल ही गया। लेकिन आधुनिक युग में कमोबेश तुलसी के ही कैंड़े के कवि निराला और मुक्तिबोध तो इतने भी भाग्यशाली नहीं रहे।
मरने से पहले तक निराला पढ़े-लिखे हिंदी समाज के लिए एक 'अधपगले बाभन' बने रहे, जिसने 'ये कान्यकुब्ज कुल-कुलांगार, खाकर पत्तल में करें छेद' जैसी 'पगलेटपन भरी' बातें लिख डालीं, और मुक्तिबोध लगातार बीड़ी पीते रहने वाले एक सटके हुए बकबकिया, जिससे कोई बात शुरू करने के बाद उसे किसी खंभे के किनारे खड़ा करके चुपचाप सटक लो तो भी पूरी रात आपसे बतियाता ही रहे। (इनमें से एक बात मैंने लिखित रूप में पढ़ी है और दूसरी एक विद्वान के मुंह से सुनी है।) आश्चर्य नहीं कि बड़ी बुरी मौत इन दोनों कवियों के हिस्से आई। इलाहाबाद में रहते हुए महादेवी वर्मा और रघुपति सहाय 'फिराक' जैसे जीनियसों के बारे में सुनी गई कुत्सित बातें यहां दोहराने का कोई औचित्य नहीं है।
हमारे समाज में परिचय का अर्थ अभी बिल्कुल इकहरा है। इस बात का एहसास पूरी शिद्दत से होने में शायद हमें सौ-दो सौ साल और लगें कि किसी से रचनात्मक लगाव के कुछ अलग ही मायने होते हैं और इसके बनने में परिचय अक्सर मददगार होने के बजाय दीवार बन जाता है।
औरों की क्या कहूं, मैं खुद अपनी इस दुष्प्रवृत्ति का भुक्तभोगी हूं। अपनी मित्र और पत्नी इंदिरा राठौर की कविताओं से मैं खुद को एकबारगी कभी नहीं जोड़ पाया। हमेशा किसी और से चर्चा सुनकर, उनके बारे में कहीं लिखा देखकर दूसरी, तीसरी बार उन्हें पढ़ने की जरूरत पड़ी- और इनमें से हर दो बार के बीच कई-कई साल का फासला रहा। लोग-बाग उनकी कविताएं खूब पसंद करते थे लेकिन मुझे लगता था कि ऐसा वे उनसे परिचित होने या सिर्फ उनके लड़की होने के चलते कर रहे हैं। मेरे इस इनडिफरेंट नजरिए के चलते एक बहुत बड़ा नुकसान हो गया। इंदु का कविताएं लिखना कम होते-होते लगभग बंद ही हो गया- जिसका पूरा नहीं तो कुछ न कुछ दोष मुझपर भी आता है।
सार्वजनिक दायरे में ही नहीं, निजी दायरे में भी सचेत ढंग से लगाव और अलगाव बनाना, इन दोनों के बीच एक अपने ही ढंग का संतुलन साधना हमें कभी न कभी तो सीखना ही होगा। इसके बगैर अपने लोगों से रचनात्मक जुड़ाव हमारा कभी नहीं बनेगा। जीतेजी बेभाव की आह-वाह से लेकर लत्तम-जुत्तम तक का, और मरने के बाद लंबी-लंबी भावभीनी श्रद्धांजलियां ठेलने का खेल अलबत्ता इसके बगैर भी अपनी सुंदर लयात्मकता के साथ चलता रह सकता है।
4 comments:
बहुत ही सहजता से रखी हुई एक बहुत इमानदार चिन्ता ।
आपसे सहमत हूँ।
भाई, हमारे यहाँ एक लोकोक्ति है-
जियत न देंय मही
मरे पियावैं घी.
(मही माने मट्ठा, माठा, छाछ)
सलाम आपकी इस ईमानदारीपूर्ण स्वीकारोक्ती को कि उनके कविता लेखन बंद होने के लिए कुछ हद तक आप दोषी थे/हैं।
"सार्वजनिक दायरे में ही नहीं, निजी दायरे में भी सचेत ढंग से लगाव और अलगाव बनाना, इन दोनों के बीच एक अपने ही ढंग का संतुलन साधना हमें कभी न कभी तो सीखना ही होगा।" चन्दू भाई
वाकई दिल तक पहुँची है आपकी बात,सीखना अनवरत क्रिया है,बड़ी साफ़गोई से अपनी बात रखी है,अच्छा लिखा है आपने...शुक्रिया
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