विल ड्यूरां की 'स्टोरी ऑफ फिलॉस्फी' में अर्से पहले पढ़ी गई परिचयात्मक टिप्पणी को छोड़ दें तो दावे के साथ कह सकता हूं कि मैंने बर्गसां पर, या उसका लिखा कुछ नहीं पढ़ा। कुछ समय पहले इलाहाबाद में अपने मित्र प्रणय कृष्ण की अज्ञेय पर की गई रिसर्च पढ़ते हुए पहली बार मुझे पता चला कि बर्गसां मनुष्य की बुनियादी प्रेरणाओं में जीने की इच्छा के समानांतर मरने की चाह को भी रेखांकित करते हैं। प्रणय ने अज्ञेय की कविताओं पर किए गए अपने शोध में साबित किया है कि उनके यहां ये दोनों प्रेरणाएं बर्गसाईं शक्ल में लगभग ज्यों की त्यों मौजूद हैं। दुर्भाग्यवश अज्ञेय का भी मैंने सिर्फ गद्य-गद्य पढ़ा है, वह भी ज्यादा नहीं। लिहाजा मौत की चाह नाम की इस अजीबोगरीब चीज को बुद्धि या संवेदना के धरातल पर समझने का मौका मुझे बिल्कुल ही नहीं मिला।
अभी तक मैं मृत्युभय को जिजीविषा के ही एक लगभग समानार्थी शब्द के रूप में समझता आया हूं, हालांकि आम धारणा इन्हें विलोम शब्दों के रूप में देखने की रही है। जिजीविषा का विलोम मरणेच्छा जैसी कोई चीज भी हो सकती है, यह बात अबतक मेरी समझ से परे है।
प्रणय ने अज्ञेय की जिन कविताओं को दृष्टांत के रूप में बरता है वे अंग्रेजी के तीनों बड़े रोमांटिक कवियों शेली, बाइरन और कीट्स की छाया लिए हुए लगती हैं, जिनमें 'ओ वर्ल्ड, ओ लाइफ, ओ टाइम- ऑन हूज लास्ट स्टेप्स आई क्लाइंब' जैसी पंक्तियों में मृत्यु को नजदीक से निहारते कवि जब ऊंचाई पर होते हैं तो यह कहते हुए से लगते हैं कि जीवन से जुड़ी चीजों का डर दिखाकर तुम उन्हें झुका नहीं सकते, और जब नीचाई पर होते हैं तो अपनी प्रेमिका या स्नेही जनों को मर जाने का भय दिखाकर खामखा डराते हुए से नजर आते हैं।
संसार की विभिन्न भाषाओं में उनसे प्रेरणा लेने वालों, या यूं कहें कि उनके नक्कालों में उनकी ऊंचाई के दर्शन नहीं होते, अलबत्ता उनकी नीचाई कभी-कभी बड़ी कमीनी शक्लों में दिखाई दे जाती है।
लेकिन रूमानियत की व्याख्या क्या मरणेच्छा जैसे किसी बौद्धिक उपकरण के जरिए भी की जा सकती है? या रूमानियत को छोड़ ही दें। अमेरिकी दार्शनिक हेनरी बर्गसां अंग्रेजी के रूमानी युग के ठीक सौ साल बाद अपने उरूज पर पहुंचते हैं, जब प्रथम विश्वयुद्ध की हताशा दुनिया भर के जहीन लोगों को परेशान किए हुए थी। यह अस्तित्वगत हताशा का दौर था, जिसकी तात्विक अभिव्यक्ति इलियट की 'वेस्टलैंड' में हुई थी। लेकिन इसकी मूल प्रेरणा भी अबतक मैं एक झटके में इतनी अकाल मौतें देख चुकने के बाद पैदा हुए जीवन के व्यर्थताबोध को मानता आया हूं। यह मरणेच्छा नाम की चीज फिर भी काव्यात्मक प्रेरणा के रूप में मेरी समझ से बाहर ही रह जाती है।
अपनी समझ में मैं जिजीविषा जितना ही वजन मृत्युभय को भी देता हूं, हालांकि एक बांग्ला गीत का हिंदी अनुवाद- 'मृत्युभय को जीतकर, तूफानों से टकराकर, बढ़ते चले हैं- कामरे...ड ' मेरे सबसे प्रिय गीतों में एक रहा है। मेरे लेखे मौत से डरना कायरता नहीं है। कायर लोग मौत से नहीं, जीवन से डरते हैं। लेकिन मौत की चाह रखने वाले लोगों की तो कोई शक्ल ही मेरे सामने नहीं बनती- यह कैसी प्रेरणा होती है? 'मरणेच्छा' मुझे निरर्थक शब्द जैसी तो नहीं लगती, लेकिन जिन लोगों में यह होती होगी, वे कैसे होते होंगे?
5 comments:
आप तो मार ही डालेंगे... बंद कीजिए इस तरह लिखना.... मौत जीवन से अधिक खूबसूरत होती है. उसे परदे में ही रहने दें सोचिए यदि अच्छा खासा जीवन से प्यार करने वाला मनुष्य मृत्यु की ओर भागते हुए कहने लगे - कुछ नहीं है मृत्यु से ज्यादा सुंदर, अमर और प्यारा... तब.. और यह संख्या दावे से कह सकता हूं यदि मौत जरा सा चिलमन से झांक जाए तो सारे आशावादियों की ऐसी तैसी फेर के रख देगी..... दर्शन न कराइए इस खूबसूरत बला... दुनिया को जी लेने दीजिए...
भैया निवेदन जे है थोड़ा सा, बस ज़रा सा ही नीचे लिखो न, क्या है न कि सब मेरे सर के उपर से निकल जाता है अक्सर, हाईट इतनी है फिर भी। :-)
मृत ? / आत्महत ?
फ़्रायड ने भी लिखा है इस बारे में इरॉस और थैनेटॉस.. ग्रीक मिथालॉजी के चरित्रों के आधार पर इन प्रवृत्तियों की चर्चा की है..
और रही बात मरने की तो प्यार में तो लोग मरते ही हैं एक दूसरे पर.. कुछ तो बात है मरने में.. ?!
हां, यह बहुत अस्वाभाविक नहीं है। मृत्यु की कामना होती है, कहीं-न-कहीं भीतर। चरम सुख के क्षणों में भी कई बार मृत्यु की कल्पना आती है, जीवन की ओर लौट जाने की नहीं। लगता है, बस जीवन यहीं खत्म हो जाए तो अच्छा है। मृत्यु का भाव उतना ही सच है, जितना जीवन का। अपनी मृत्यु की कामना को सिर्फ किसी मनोरोग या कारयता की श्रेणी में रख देने भर से बात नहीं बनती। जैसाकि अभय ने कहा, कुछ तो बात है मरने में।
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