Tuesday, October 30, 2007

साढ़े छह करोड़ साल पहले एक दिन

अपने नोएडा ब्यूरो प्रमुख पुरुषोत्तम भदौरिया आज खरामा-खरामा अपने अखबार के दफ्तर के पास ही रह रहे प्रो. एमबी नागर के घर लिवाते चले गए। यह एक छोटा सा एलआईजी फ्लैट है, जिसमें अपने एक बेटे के परिवार के साथ प्रो. नागर रहते हैं। भदौरिया जी का जुड़ाव एक जमाने से संघ परिवार के साथ है और यदि किसी कट्टर हिंदू की कल्पना आप कर सकते हैं तो भदौरिया जी वही हैं। मध्य प्रदेश से आए हर व्यक्ति के साथ उनका दुआ-सलाम संभवतः 'जय श्रीराम' के जरिए ही होता हो, लेकिन मेरे लिए यह इतनी अजीब बात थी कि मुझे लगा, प्रो. नागर के रूप में मेरी मुलाकात शायद प्रो. मक्खनलाल टाइप किसी संघ-संस्थापित छद्म बौद्धिक से ही होने वाली है।

जल्द ही मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि यहां मामला इसका ठीक उल्टा था। कुर्सी खींचकर हम अभी बैठे भी नहीं थे कि प्रो. नागर ने अपने पोते से कहकर प्लास्टिक के तीन-चार कनस्तर हमारे सामने रखवा दिए। भदौरिया जी के लिए इन कनस्तरों का मतलब सिर्फ इतना था कि इनमें अभी उस खबर के कुछ हिस्से अभी बचे हुए हैं, जिसे उन्होंने कल किया था और जिसका इंट्रो लिखने में मुझसे थोड़ी मदद ली थी। 'करोड़ों साल पहले के जानवर और पेड़-पौधे खोजे गए।' लेकिन प्रो. नागर ने उन कनस्तरों से जो-जो चीजें निकालकर अपने घर के डबल बेड पर फैलाईं, वे मेरी कल्पना से भी परे थीं।

कहां-कहां, किन-किन जंगलों में भटकते हुए, कैसे-कैसे पत्थरों के ढेर से उन्होंने इन्हें खोजा होगा! एक समूचे जीवन की भटकन का नतीजा थे ये जीवाश्म, जिनमें से कई तो ऐसे हैं, जिनका कोई नाम ही नहीं निर्धारित हो सका है, क्योंकि उनके जोड़ की कोई चीज दुनिया में अभी तक कहीं खोजी ही नहीं गई है।

प्रो. एमपी नागर की खोज-यात्रा जबलपुर के इर्द-गिर्द केंद्रित रही है- जबलपुर, मांडला, धार और डिंडोरी। मानव इतिहास में भी यह इलाका संसार की सबसे प्राचीन जगहों में गिना जाता है। लाख-सवा लाख साल पुराने मानवीय अवशेष यहां खोजे जा चुके हैं- जो निश्चय ही किसी अभाषिक मानव प्रजाति के होंगे। लेकिन जिस युग पर प्रो. नागर की खोज केंद्रित है, उसमें मनुष्यों की कौन कहे, स्तनधारी प्रजातियों का ही कोई अता-पता नहीं था। जिन चीजों को खोजने में उनकी जिंदगी पार हो गई, वे डाइनोसोरों के समय के, बल्कि उससे भी पुराने जमाने के प्रस्तरीभूत पौधों और जीवों के अवशेष हैं।

घोंघे से मिलता-जुलता जीव नॉटिलस, जिसके भीतर हवाई जहाज के इंजन जैसी घूमी हुई अस्थि संरचनाएं मौजूद हुआ करती थीं। गहरे समुद्रों में इस जीव की नई नस्लें अब भी निवास करती हैं, लेकिन साढ़े छह करोड़ साल पहले के नॉटिलस के शरीर पर जो तीखी उभरी हुई गरारियां मौजूद हुआ करती थीं, जो इसे अपने युग के सबसे ताकतवर जीवों में एक बनाती थीं, वे अब लापता हो चुकी हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि गहरे समुद्रों का यह जीव साढ़े छह करोड़ साल पहले डिंडोरी के जंगलों में क्या कर रहा था, जो किसी भी समुद्रतट से कम से कम एक हजार मील दूर है। नॉटिलस के छोटे-बड़े बहुतेरे जीवाश्म मैंने अपने हाथों में तौल-तौल कर देखे। इनमें एक संसर्गरत जोड़ों का भी था, जो शायद किसी ज्वालामुखी के लावे से दबकर ठीक उसी अवस्था में मेरी हथेलियों पर थे।

ज्वालामुखी की तपन से कोयले जैसा काला हो चुका एक दक्षिणमुखी शंख भी वहां था, जो अब संसार में दुर्लभ हो चुका है, लेकिन साढ़े छह करोड़ साल पहले समुद्रों और दलदलों की एक सामान्य जीव प्रजाति हुआ करता था। यह शंख ही प्रो. नागर की खोजों की वजह बना। इलाके के आदिवासी ऐसे शंख खोजकर मंदिरों में चढ़ाने आते थे। वहीं प्रो. नागर के एक गुरू ने उन्हें देखा और इनकी खोज के काम में उन्हें लगा दिया। वह दिन है और आज का दिन है, प्रो. नागर जबलपुर, धार, डिंडोरी और मंडला के जंगल-जंगल घूमकर अजीबोगरीब दिखने वाले पत्थर छांटते हैं, अंदाजे से उनपर छेनी हथौड़ा चलाते हैं। उनमें से किसी-किसी में किसी पुरातन जीव का जीवाश्म निकल आता है तो उसे सहेजकर रख लेते हैं।

अपनी खोजों के सत्यापन के लिए प्रो. नागर लखनऊ स्थित बीरबल साहनी बॉटेनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट और कोलकाता स्थित जूलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया पर निर्भर करते हैं। वनस्पति शास्त्र ही उनका अपना क्षेत्र रहा है। यही विषय उन्होंने पढ़ा और कुल सात साल पढ़ाया, लिहाजा पौधों की जाति में आने वाले पत्थर उनकी पहचान में आ जाते हैं। लेकिन जंतुशास्त्र से जुड़े जीवाश्मों के मामले में उन्हें एक-एक चीज नए सिरे से पढ़नी पड़ती है। दुर्भाग्यवश इन दोनों जाने-माने शोध संस्थानों के उच्च वेतन प्राप्त सरकारी वैज्ञानिकों के पास प्रो. नागर जैसे आवारा खोजियों के लिए ज्यादा वक्त नहीं होता। बड़ी हताशा के साथ वे बताते हैं कि कैसे एक ही चीज को एक संस्थान ने पेड़ का तना तो दूसरे ने डाइनोसोर के पांव की हड्डी बता दिया।

प्रो. एमबी नागर के पास एक बड़ी-सी कोई पांच-सात किलो की एक चपटी सी चीज ऐसी भी है, जो क्या है, इसके बारे में कोई कुछ नहीं बता पा रहा है। उनका खुद का मानना है कि यह किसी पौधे का बहुत बड़ा बीज हो सकता है, लेकिन जीवाश्म शास्त्र से जुड़ी दुनिया भर की किताबों और शोधग्रंथों में ऐसी किसी वानस्पतिक या जंतुशास्त्रीय चीज की कोई पहचान नहीं की गई है।

गरीबी और हताशा से घिरे घरेलू परिवेश में भी उनकी आंखों में किसी खोजी की कौंध मौजूद है। वे कहते हैं, उनके घर वाले उन्हें पागल समझते हैं। अपनी सनक में घर-परिवार सबकुछ बर्बाद कर देने वाला एक अजीबोगरीब आदमी। लेकिन उन्हें देखकर मुझे इलाहाबाद में गणित के नामी प्राध्यापक और फिलहाल आजादी बचाओ आंदोलन की शीर्ष हस्ती प्रो. बनवारी लाल शर्मा की कही वह बात याद आती है, जिसे सुनकर मेरे मित्र विपिन बिहारी शुक्ल और अरुण कुमार अपना घर-बार छोड़ने पर उतारू हो गए थे- 'समझदार लोग इस देश का काफी सत्यानाश कर चुके हैं और अब इसे कुछ पागलों की जरूरत है।'

11 comments:

स्वप्नदर्शी said...

agar aap in fossils ki digital image le kar apane blog par laga de to shayad mei inkii pahchaan karvaane me aapkii madad kar saktii hoo.

Sagar Chand Nahar said...

इस आलेख को पढ़ने के बाद प्रों नागर द्वारा खोले जये जीवाश्मों की तस्वीरें देखने की इच्छा हो रही है।
संभव हो तो आप हमें उन जीवाश्मों की तस्वीरें बतायें जिससे हमें कुछ नई जानकारी मिले।
बहुत बढ़िया लेख रहा,
धन्यवाद|
॥दस्तक॥
गीतों की महफिल

अनिल रघुराज said...

प्रो. नागर के पास वाकई अद्भुत सत्य हैं। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इन चीजों को अहमियत नहीं जा रही। मेरा भी यही अनुरोध है कि प्रो. नागर की चीजों की फोटो खींचकर आप अपने ब्लॉग पर लगाएं।

दिलीप मंडल said...

चंद्रभूषण जी, मैं फोटोग्राफर तो नहीं लेकिन फोटो खींच जरूर लेता हूं। आप अगर प्रोफेसर नागर से कोई समय तय कर लें तो एक फोटो सेशन कर सकते हैं। जरूरी हुआ तो किसी प्रोफेशनल मित्र फोटोग्राफर की मदद भी ली जा सकती है। वैसे कुछ दर्जन पहाड़ों की पत्थरनुमा और कुछ फॉसिल सरीखी चीजें मैंने और अनुराधा जी ने भी अपनी घुमक्कड़ी में इकट्ठा की हैं। लेटेस्ट कलेक्शन अभी इसी महीने हमारी हंपी यात्रा का है। प्रोफेसर नागर से ये जानना है कि उनके बारे में विस्तार से जानकारी हासिल करने का तरीका क्या है।

Sanjeet Tripathi said...

अद्भुत!!

चित्र दिखा सकें तो अच्छा!!

अभय तिवारी said...

ऐसे सनकियों और झक्कियों को हमारा समाज मान नहीं देता.. यहाँ मान का मापदण्ड आर्थिक है.. पैसा है तो मान मिलेगा.. और पैसे को लात मार दो तो और ढेर मिलेगा...

चंद्रभूषण said...

भाई दिलीप मंडल से बात हो गई है। हम लोग कल नागर जी के यहां जाएंगे और उनके मोबाइल फोन से जीवाश्मों के फोटो खींचकर उन्हें ब्लॉग पर चिपका देंगे।

स्वप्नदर्शी said...

kya mobile phone ke alawaa koi achcha camera nahi mil saktaa? mobile se aap focus nahi kar payenge, agar kuch vakai karna ho to achchi digital image chahiye.

स्वप्नदर्शी said...

mere husband kuch salo pahle Cornell ke ek Study tour me gaye the aur kafi local fossils wali rocks lekar aaye the.
http://www.museumoftheearth.org/
agar nagarji chahe to is institute me mera parichay hai

स्वप्नदर्शी said...

Do logo ke naam mere jahan me aate hai, jo ye kaam kar sakte hai pure professional tareeke se.

1. Avinash Little, jo NBRI me photography ke head hai (vo mudra-raksash ke bhateeje bhi hai, aap patrkaaro ke liye seedha introduction). Avinash se merii thodii bahut dostii thii kisi jamaane me. Avinash shaukiyaa photographer bhi hai or kuch martaba unki exhibition me jaane kii bhi mujhe yaad hai.

2. Pratima Naithani, ye New York School kii behtareen photographer or artist hai. (www.pratimanaithani.com).
Pratima is planning her trip to India next year and I can ask her to do that.

Uday Prakash said...

चन्द्रभूषण जी, नागर जी ने जबलपुर और डिन्डौरी तथा जिस इलाके से ये जीवाष्म एकत्र किये है वह पुरातात्विक, भूगर्भीय और पूर्व-ऐतिहासिक अध्ययन के लिये विख्यात 'नर्मदा घाटी' का इलाका है. विन्ध्य पर्वत की श्रिन्खलाओ का भूभाग. लाखो वर्ष पहले इसके पार समुद्र हुआ करता था. धरती का तल (धरातल) समाप्त हो जाता था. यह इलाका भूगर्भीय अध्ययन के लिहाज से उत्तरी हिमालय या गन्गा-घाटी की तुलना मे अधिक महत्वपूर्ण है. समुद्री जीवाष्मो का वहा होना बिल्कुल स्वभाविक है और इसमे कुछ भी चौकने वाली बात नही है क्यो कि आप जानते होगे कि भारतीय उप-महाद्वीप के बहुत से पर्वत भूगर्भीय परिवर्तनो से उभरने वाले पर्वत नही बल्कि केम्ब्रिअन काल मे ही समुद्र से ऊपर रहे आने वाली भू-सनरचनाए है. जुरासिक काल मे जब गोन्ड्वानालेण्ड दो भागो मे विभक्त हुआ और भारत, मेडागास्कर और औस्ट्रेलिया पूरब मे और दक्शिण अमेरिका और अफ़्रीका पश्चिम मे प्रिथक हुए तो अपने बहुत से चिन्ह पीछे छोड गये. (इसीलिये कुछ जीवष्म आपको अजनबी लगते है)नर्मदा घाटी कई मायनो मे शिवालिक से अधिक महत्वपूर्ण है. वहा जीवाष्म (फ़ोस्सिल) जगह -जगह बिखरे हुए है और बहुतायत मे पाये जाते है. मैने नागर जी का सन्ग्रह तो नही देखा लेकिन मेरे बहुत से मित्रो के पास इस तरह का सन्ग्रह है. जीवाष्मो के अध्ययन विष्लेषण का, मेरे द्रिष्टिकोण मे, सबसे महत्वपूर्ण काम पुणे के डेकन कोलेज मे हुआ है. वहा के पुरा-वनस्पति वैग्यानिक डा. काजले ने वनस्पतियो के पराग-कणो (पोलेन-ग्रेन्स)के फ़ोसिल्स पर विस्मयकारी शोधकार्य किया है. इसी तरह पुरा-प्राणी वैग्यानिक डा. वालिम्बे ने अन्य जीवो पर काम किया है. मेरा गान्व नर्मदा और सोन के उदगम के बहुत निकट है और इन जीवाष्मो को बचपन से मैने भी देखा और चमत्क्रित हुआ हू. जहा तक शन्ख, नारियल, घोन्घो और अन्य समुद्री जीवो के जीवाष्म क प्रश्न है, तो वे वहा बहुतायत मे है. लख्ननऊ के बीरबल साहनी इन्स्टिच्यूट के सुप्रसिद्ध पुरा-वानस्पतिग्य डा. सारस्वत ने कुछ महत्वपूर्ण कार्य करना चाहा, परन्तु वे सम्भवतह बाद मे हडप्पाकालीन शोध मे अधिक व्यस्त हो गये. आप चाहे तो विख्यात नर्मदा यात्री अम्रित लाल बेगड से भी इन जीवष्मो के बारे मे पूछ सकते है. खुशी की बात है कि आप दिल्ली के पत्रकार लोग ऐसे विषयोन पर ध्यान दे रहे है. अगर कुछ महत्वपूर्ण पहल आप जैसे युवाओ के द्वारा हुई तो विन्ध्य पार का भारतीय जन-मानस आपलोगो के प्रति क्रितग्य होगा. वहा हमारे भूगर्भीय और पूर्व-ऐतिहासिक महत्व के अनेक रहस्य मौज़ूद है.