Monday, October 29, 2007

ओल्मी की ओट से

बीते शनिवार को सराय (सीएसडीएस) के एक छोटे से ऑडीटोरियम में पंद्रह-बीस मित्र दर्शकों के बीच प्रमोद सिंह द्वारा प्रदर्शित इतालवी फिल्मकार एरमान्नो ओल्मी की फिल्म 'द ट्री ऑफ वुडेन क्लॉग्स' पर अविनाश ने मोहल्ला पर अपनी टिप्पणी डाल दी है। फिल्म वाकई बहुत ही सघन है। बिना किसी नाटकीयता के यह मंथर गति से चलने वाले किसान जीवन का नाटक पकड़ती है, बिना किसी बयानबाजी के उसके दारुण दुख का दीदार कराती है। हमारे जैसे किसान पृष्ठभूमि से आए लोगों के लिए तो यह बिल्कुल अपने गांव-घर की कहानी जैसी है।

सराय में उस दिन फिल्म पर हुई छोटी-सी चर्चा में थोड़ी-बहुत और बातें तो आईं लेकिन ठीक यही बात पता नहीं कैसे रह गई कि यूरोप ही नहीं, भारत में भी बनी फिल्मों में बहुत कम- नहीं के बराबर- फिल्में ऐसी हैं, जिनमें किसान जीवन अपने दुख-सुख की तमाम रंगतों के अलावा अपनी पूरी गरिमा के साथ आया हो, जिनमें इसे 'अहा ग्राम्य जीवन' के आभामंडल या दुखों के पहाड़ तले कुचलकर इसका बिल्कुल मलीदा ही न बना दिया गया हो।

शायद कुछ मामलों में 'तीसरी कसम' को इसकी जोड़ीदारी में खड़ा किया जा सके, लेकिन वह मूलतः एक भाषिक और सांगीतिक रचना है- बासु भट्टाचार्य से कहीं ज्यादा रेणु और शैलेंद्र की रचना। बासु इस रचना को अपने माध्यम में उतारने का जितना जीतोड़ प्रयास करते हैं, उतना शायद मुंबइया सिनेमा का कोई और निर्देशक न करता, लेकिन कल्पना करें कि तीसरी कसम से अर्जित अनुभव को वे रेणु की या इसी मिजाज की कुछ और कहानियों पर आजमाते। शायद राजकपूर के बजाय किसी और अभिनेता के साथ, जिसका गोबर में हाथ न डालने और फारबिसगंज के किसानों की तरह बाल न कटाने का ऐसा दुराग्रह न होता, जो स्टारडम के पार जाकर हिरामन जैसे जिंदा चरित्र की गहराइयों में उतरने को लेकर कहीं ज्यादा गंभीर होता।

इसके बजाय बासु भट्टाचार्य अपना मुहावरा बनाने कहीं और चले जाते हैं। अपने गुरु विमल राय की राह छोड़कर अपनी अलग राह बनाने के नाम पर अपने आराध्य सत्यजित राय की तर्ज पर ही आविष्कार, अनुभव और गृहप्रवेश की त्रयी बनाते हैं- खुद की तीसरी कसम और सत्यजित राय की पथेर पंचाली, अपूर संसार, अपराजितो- दोनों ही तरह के सघन सांस्कृतिक परिवेश से बिल्कुल उलट, अपनी ही धुन में मगन अकेलखोर मध्यवर्ग के एकांतिक स्त्री-पुरुष संबंधों पर केंद्रित।

ऐसा करके वह कुछ गलत करते हैं, सो बात नहीं है। बात बस इतनी है कि अपनी पहली फिल्म से शुरू हुई व्यापक सिनेमेटिक खोज को अपनी अलग राह बनाने के नाम पर किसी दार्शनिक स्टेटमेंट की खोज तक सिमटा देने में ही वे अपनी चरम उपलब्धि देखते हैं। इस खोज यात्रा में उनकी आखिरी फिल्म 'आस्था' कहां ठहरती है, वह झालरों के पार संबंधों की तह में जाने की उनकी मूल प्रतिज्ञा में कहीं आती भी है या नहीं, इसे आंकने का काम हम फिलहाल छोड़ ही दें।

शनिवार को ओल्मी की फिल्म पर सराय में हुई थोड़ी सी बातचीत में तीसरी कसम का सिर्फ एक जरा सा जिक्र भर आया था- लगभग उतना ही, जितना गौतम घोष की 'पार' का । दरअसल, बाहर की अच्छी फिल्में देखने के बाद अपने यहां हर जगह ही बात घूम-फिरकर हॉलीवुड और बॉलीवुड की तुलना पर ही केंद्रित होती है। कम साहसी लोग हुए तो देखी गई फिल्मों के महीन पहलुओं पर मगजमारी करते हुए मुंबइया फिल्मों को गरियाते हैं, ज्यादा हिम्मत वाले हुए तो तुलनात्मक बहस पर आकर चीजों को अपने परिचित संदर्भ में पकड़ने का प्रयास करते हैं। यहां पार का जिक्र मैंने ही किया था लेकिन बाद में याद करने पर इस फिल्म के सिर्फ दो फ्रेम दिमाग में हाजिरी लगा पाए।

इतवार की सुबह प्रमोद भाई से फोन पर हुई बातचीत में पार को लेकर इस समस्या का सामना मुझे करना पड़ा और उनकी यह प्रस्थापना जायज लगने लगी कि पिछले तीन-एक दशकों से अपने संभावनामय फिल्मकार भी पाला छूकर निकल लेने में ही अपना भला समझने लगे हैं। यहां से फोन पर ही एक समस्या यह उठ खड़ी हुई कि फिल्म ही नहीं, और क्षेत्रों में भी अपने लोग रचनात्मकता की किसी लंबी- जीवन भर चल सकने वाली- यात्रा पर क्यों नहीं निकलते। ऐसे धुन के धनी लोगों के नाम याद करने चले तो लगा कि वे सब के सब सत्तर या अधिकतम अस्सी के दशक तक अपना खेल दिखाकर मंच से विदा हो चुके हैं। क्या सचमुच हकीकत ऐसी ही है, या रघुवीर सहाय के इन शब्दों से कुछ उम्मीद बांधें कि 'सब कुछ कहा जा चुकने के बाद भी कहने को बचा रहेगा बहुत कुछ'?

1 comment:

बोधिसत्व said...

भाई सिनेमा की बहुत समझ तो नहीं है लेकिन लगता है कि इस चर्चा में दो बीघा जमीन को शामिल की जा सकती है....