Thursday, October 4, 2007

पच्छूं का घर

घर का यह अकेला कमरा था, जिसमें किवाड़ लगे हुए थे। ये किवाड़ भी नीचे से पानी लगने के चलते बुरी तरह सड़ चुके थे और इनके साथ जुड़ा गोपनीयता का तत्व अब सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह गया था। बाद में लटकते-लटकते ये किवाड़ एक दिन गिर ही गए। सिर्फ चौखट बचा, वह भी ऐसा, जिसका नीचे वाला पाया नदारद था। शब्दों के साथ खेलने की सुविधा होती तो इसे तिरखट जैसा कुछ कहा जाता, लेकिन यह सुविधा तब हमारे पास नहीं थे। हम चीजों को उनके मूल, गौरवशाली नाम से ही याद करते थे, भले ही उस गौरव की छाया तक इनमें न बची हो।

मां इस कमरे को पच्छूं (पश्चिम) का घर कहती थी- जैसे इसके अलावा और भी कई घर हमारे पास मौजूद हों। उसकी देखादेखी हम भी इसे पच्छूं का घर ही कहते थे, हालांकि हमारा नाता इससे उतने सघन अपनत्व वाला नहीं था। मां इसी कमरे में ब्याह कर आई थी। इसी में उसकी मुंहदिखाई हुई थी, यहीं उसकी सुहागरात मनी थी। यह उसका अपना कमरा था- यानी तब, जब पूरा घर सही-सलामत था और पच्छूं के घर के अलावा और भी कई कमरे घर में हुआ करते थे।

मिट्टी के बहुत पुराने घर में पचासों साल से लिपाई होते-होते इसका फर्श और बाहर का आंगन भी करीब एक फुट ऊपर उठ गया था। लेकिन उस हिसाब से चौखट-दरवाजे को उठाने की कोशिश कभी की नहीं गई। दरवाजा घूमता रहे, इसके लिए आंगन और कमरे के बीच लगातार एक गड्ढा-सा छोड़ा जाता रहा। हर बारिश में एक स्थायी काम इस गड्ढे से पानी निकालने का बना रहता था।

पच्छूं के घर के अलावा समूचे घर में आंगन के पूरब तरफ ईंट की छत वाली कई जगहों से चूती एक अजीब सी ओसारी ही सही-सलामत बची थी। यह हमारे स्वप्नजीवी ताऊ जी की दिमागी उपज थी, जिसका कोई तर्क किसी आम आदमी की समझ से बाहर था। पूरा घर कच्चा और एक तरफ तीन खंभों पर खड़ी एक पक्की ओसारी। खपरैल वाले कच्चे घर हर दो-तीन साल पर कायदे की मरम्मत मांगते हैं। बीच में कई साल घर खाली था, लिहाजा मरम्मत के नाम पर एक अर्से तक सन्नाटा खिंचा रहा। नतीजा यह हुआ कि हर चौथी-पांचवीं बारिश में एक के बाद एक कमरा ध्वस्त होता गया और चारो तरफ से बंद कमरे के नाम पर परिवार के पास सिर्फ पच्छूं का घर ही बचा रह गया।

इस घर में एक जांता गड़ा हुआ था। मां और पड़ोस की चाची दुपहरिया में इसपर गेहूं, जौ और कभी-कभी सतुआ पीसती थीं। ऊपर लकड़ी की करियों पर बांस बिछाकर लदा हुआ मिट्टी का कोठा था, जिसमें भूसा भरा रहता था। आम के सीजन में इसी भूसे में पाल डाली जाती थी। एक बार मैं पाल में से आम चुराकर खाने गया तो खलियाते भूसे के पीछे बनी एक ताखानुमा जगह में मुझे दो-तीन चीजें मिल गईं। एक पिताजी की बीएसएफ की ट्रेनिंग के वक्त का रोमन हिंदी में लिखा फायरिंग मैनुअल, एक बिल्कुल फटी-चिटी बहुत पुरानी चौथे दर्जे की हिंदी की किताब, जिसमें लंगड़े और अंधे की कहानी सही-सलामत थी, और एक न जाने किस जमाने से बंद पड़ी मेजघड़ी।

मां घड़ी देखकर चौंकी और बताया कि मेरे दोनों बड़े भाइयों ने कैसे इंजीनियर बनने के चक्कर में बहुत पहले इस घड़ी को खराब कर दिया था। मुझे लगा कि इस इंजीनियरी परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए। घर में कोई पेंचकस नहीं था, सो मैंने करछुल की डंडी और नाखून से सारे पेंच ऐंठ-ऐंठकर दोपहर तक उसे बिल्कुल खोल-खाल डाला। घड़ी के पुर्जे बहुत जटिल थे। मुझे कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन दुबारा उसे बांधना भी मेरे बूते से बाहर था, लिहाजा अपने भाइयों की ही तरह उस उजड़ी-बिखरी चीज को मैंने घर के किसी और भी ज्यादा गुप्त कोने में ले जाकर छिपा दिया।

कोठे की करियां मां का बैंक हुआ करती थीं। उनकी खाली जगहों में वह छुट्टे पैसे, सुई-धागा, छोटे-मोटे कागज-पत्तर और तमाम दूसरी चीजें छिपाकर अक्सर भूल जाया करती थी। बाद में कोई जरूरत आ जाने पर वह सारी करियां टटोलती। पता नहीं कैसे उसकी खोज हर बार कामयाब रहती। कभी-कभी इन्हीं करियों में से अठन्नी-चवन्नी के सिक्के जोड़कर दस-बीस रुपये तक निकल आते। एक बार तो मंझले भाई के ऐडमिशन के लिए एक सौ का नोट यहीं से निकल आया था। मां को पक्का यकीन था कि यह काम भगवान के सिवाय और कोई कर ही नहीं सकता था।

होलटाइमरी का दौर समाप्त होने के बाद जब नौकरी के लिए मुझे अपनी मार्कशीट और सर्टीफिकेट्स की जरूरत पड़ी तो मेरे हाथ-पांव फूल गए। मुझे ख्याल था कि ये सारी चीजें लेकर मैं इलाहाबाद चला गया था। वहां से ये कहां गईं, मुझे कुछ भी याद नहीं था क्योंकि इलाहाबाद से पटना मैं सिर्फ कंधे पर टांगने वाला एक कपड़े का झोला लेकर गया था। मैंने मां को अपनी परेशानी बताई और पता नहीं कैसे उसने खोज-खाजकर किसी करी से इन्हें निकाल दिया। इंटरमीडिएट की मार्कशीट पर लैमिनेशन नहीं था लिहाजा झींगुर उसे लगभग पूरा ही हजम कर गए थे लेकिन हाईस्कूल और बी.एस-सी. की चीजें मिल गईं। ये नौकरी मिलने के लिए काफी थीं- बशर्ते कोई नौकरी देने के लिए तैयार हो।

बिना किसी खिड़की-रोशनदान वाले, बाहर से बिल्कुल घुप्प नजर आते इसी अंधेरे कच्चे पच्छूं के घर में दक्षिण की दीवार की तरफ दो लोहे के बक्से रखे थे और पूरब तरफ लकड़ी के आयताकार फ्रेम में ठोंककर बिठाया हुआ एक छोटा-सा मंदिर भी था। यह फ्रेम मैंने आजमगढ़ शहर में लगने वाली एक विज्ञान प्रदर्शनी में शामिल होने के लिए बनवाया था। मेरी योजना खोखले बेल से धरती और मंगल ग्रह बनाकर प्रतीकात्मक रूप से इन दोनों को एक रॉकेट के जरिए जोड़ने की थी।

यह योजना कारगर नहीं हो सकी क्योंकि रॉकेट का आइडिया कमजोर था। एक अर्से से पंचर पड़ी साइकिल पर अपनी वैज्ञानिक रचना को लादे हुए मैं स्कूल पहुंचा और रिजेक्ट होकर रोता हुआ घर आया। इसके कुछ ही दिन बाद मां ने मेरी नाकामी को एक अलग तरह की कामयाबी में बदल दिया। उसने फ्रेम को साफ करके उसका इस्तेमाल मंदिर के रूप में करना शुरू कर दिया, जिससे मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। इसके बाद से इस कमरे में भूसे, आटे और सीलन के अलावा कुम्हलाए फूलों और जब-तब जलने वाली धूप-अगरबत्ती की गंध भी रच-बस गई, जिसे आज भी मैं महसूस कर सकता हूं।

करीब पंद्रह साल पहले भइया ने गांव पर पक्का घर बनाने की महत्वाकांक्षी परियोजना हाथ में ली। मुझे पटना में चिट्ठी से पता चला कि पुराना घर तुड़वाकर पूरा घर नया बनवा दिया गया है। इस नए घर को देख पाने का अवसर मुझे एक-डेढ़ साल बाद ही मिल पाया। मेरे लिए यह पूरा का पूरा अपरिचित था। सिर्फ आंगन में ज्यों के त्यों पड़े चापाकल और उस अजीब सी ईंट की ओसारी को छोड़कर मेरे बचपन या किशोरावस्था की कोई याद इसके साथ जुड़ी हुई नहीं थी।

लेकिन यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि आठ-नौ कमरों वाले इस नए घर में भी ठीक उसी जगह एक पच्छूं का घर था- जिसमें भले ही कोई कोठा, कोई जांता या लकड़ी के आयताकार फ्रेम में जड़ा हुआ कोई मंदिर नहीं था लेकिन इसमें घुसने के बाद उन्हीं पुराने रंगों और गंधों समेत अपना बचपन वापस आ जाता था। समय बदल गया था, लोग बदल गए थे, पूरा का पूरा घर बदल गया था, लेकिन यह इस जगह के साथ मां का सघन जुड़ाव था, जिसने पच्छूं के घर को एक नया जन्म दे दिया था।

4 comments:

  1. हमारे गाँव के मकान में एक घर ठाकुर जी का अभी तक खाली पड़ा है। मैं जिस कमरे में पैदा हुआ वह पूरब का घर था। एक घर मलकिनी का था। वे मेरी दादी थीं.....हमेशा उसी घर में रहती थीं.....।

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  2. बहुत गहरी याद दिला दी, चंदु भाई-

    हर बारिश में एक स्थायी काम इस गड्ढे से पानी निकालने का बना रहता था।

    -सच में.

    प्रवाहित हो गये आपकी लेखनी में. लग रहा है अभी अभी गांव से लौटा हूँ जबकि अब तो बरसों बीते वहाँ गये. कुछ है भी नहीं अब वहाँ.

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  3. गाँव घर दिखा दिया आपने ।

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  4. गनीमत है. अभी आपके देखने के लिए वह पच्छू का घर बाक़ी है. बाकी पूरे आप वहाँ जाकर छोड सकते हैं. बंटवारे के नए दौर में तो कुछ लोगों के पास तो वह भी नहीं बचा.

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