बीतती जनवरी और बीतता सितंबर, दोनों की ही छाप शरीर से लेकर मन तक बहुत गहरी है। हमेशा कुछ हैपनिंग-हैपनिंग सा लगता रहता है। पता नहीं इस अनुभूति का रिश्ता होली और दशहरे के इंतजार से है या मौसम में आए झटकेदार बदलाव से। और सालों का तो नहीं कह सकता, लेकिन मेरे लिए इस साल सितंबर की आखिरी तारीख यादगार हो गई। एक जमाने बाद इलाहाबाद के इतने सारे मित्र दिल्ली के श्रीराम आर्ट सेंटर की कैंटीन में एक साथ बैठे, दो-तीन घंटे गप्पें लड़ाईं, फिर करीब दो घंटे दरियागंज में रद्दी किताबों के बीच मगजमारी की (जिसे उतना यादगार नहीं माना जा सकता)।
अभय तिवारी और प्रमोद सिंह मुंबई से पधारे। पंकज श्रीवास्तव लखनऊ से नौकरी बदलकर नोएडा आ गए। बाकी सारे लोग- इरफान, राजेश अभय, मनोज, रवि पटवाल और मैं- यहीं दिल्ली-गाजियाबाद में आसपास ही रहते हैं लेकिन मिलना-जुलना जरा कम ही हो पाता है। ये सारे लोग थोड़े-बहुत अंतर से इलाहाबाद में एक ही छात्र संगठन पीएसओ में काम कर चुके हैं। और हां, लंबी बीमारी से उठने के बाद भूपेन भी चले आए, जिनसे बातों और विचारों का इतना साझा है कि याद करने पर ही याद आता है कि वे इलाहाबाद में हमारे साथ नहीं थे।
इन नौ लोगों में पेशे के लिहाज से अभय तिवारी और प्रमोद सिंह का नाता टीवी और फिल्मों से है। इरफान रेडियो जॉकी हैं, पंकज टीवी रिपोर्टर हैं, राजेश अभय दो-तीन फिल्मों में ऐक्टिंग कर चुके हैं लेकिन रेगुलर नौकरी के लिहाज से मेरी तरह वे भी प्रिंट मीडिया से जुड़कर डेस्क पर काम करते हैं। भूपेन एक न्यूज चैनल में डेस्क पर हैं, रवींद्र या रवि पटवाल बिजनेस रिप्रेजेंटेटिव हैं और मनोज का अपना छोटा-सा बिजनेस है।
ब्लॉगिंग में सीधा दखल इनमें सिर्फ पांच लोगों का है। बाकी चार में से पंकज और रवि को कभी-कभी ब्लॉग देखने की फुरसत मिल जाती है, राजेश और मनोज को वह भी नहीं मिलती। अलबत्ता कुछ लोगों के लगातार ब्लॉगिंग से जुड़े रहने का इस मुलाकात में इतना फायदा जरूर हुआ कि हमारी बातें अल्यूमिनाई मीट की तरह नोस्टैल्जिया-केंद्रित नहीं होने पाईं।
इलाहाबाद से जुड़ी सिर्फ एक बात यहां हुई कि कैसे एक बदमाश, जिसकी इलाहाबाद युनिवर्सिटी कैंपस में राजेश के ही नेतृत्व में जमकर धुनाई हुई थी, यहां दिल्ली में पुराना झगड़ा भूलकर लंबे समय तक राजेश का रूम पार्टनर बनकर रहा। बाकी धरती और आकाश के बीच में जितने भी विषय संभव हैं, लगभग वे सभी कॉफी के प्यालों के बीच हमारी बातों के दौरान उभरे। कुछेक बातें, पतंगबाजी की ही शक्ल में सही, भविष्य की योजनाओं के बारे में भी हुईं- काश उनमें से कोई सच निकल जाए!
इतने अर्से से लोगों से मिलना-जुलना दो रूपों में ही हो पा रहा है। या तो किसी सार्वजनिक एजेंडा पर केंद्रित बृहद बैठक में, या फिर वन-टु-वन किसी निजी एजेंडा के तहत, काम-धंधे की तलाश में। बाकी मिलना-जुलना पता नहीं क्यों दिल को झौंसने-सा लगा है। हैसियत के फासले बहुत बढ़ गए हैं। कोई अगर अपनी उपलब्धियां दिखाकर जलाने की कोशिश नहीं कर रहा होता है तो भी लगता रहता है कि वह इसे लेकर अत्यंत सजग है और सही मौका देखकर चोट करने वाला है।
नहीं जानता कि इन्हीं सारे मित्रों से अलग-अलग मिलूं तो कैसा लगेगा। शायद वैसा ही लगे, जैसा बाकी सारे मित्रों और रिश्तेदारों से मिलकर लगता रहता है। लेकिन इतने सारे लोग एक साथ मिले तो सचमुच में मिलने जैसा हो गया- कुछ-कुछ वैसा ही जैसा बहुत साल पहले हुआ करता था। त्योहारों का सीजन शुरू हो रहा है, लेकिन मेरे लिए तो सीजन का पहला त्योहार 30 सितंबर को ही आ गया।
4 comments:
सच है पुराने मित्रों से मिलन भी एक त्यौहार सा ही है चंदु भाई. उत्सव मनाने सा मौका. बढ़िया लगा आपकी मित्र मंडली की मिलन कथा पढ़कर.
abhay jii kaa likhaa bhii padhaa aur aapkaa bhi. kuchh alg pahloo saamaneayaa.
bahut badhiyaa.yah tyohaar aksar aaye.
पुराने दोस्तों से मुलाकात की बात पढ़ना बड़ा सुखद रहा।
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